कामक्षरण को रोकें उसे सही दिशा दें।

September 1985

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पृथ्वी के दो ध्रुव हैं- एक उत्तरी, दूसरा दक्षिणी। शरीर के भी दो महान शक्ति केन्द्र हैं। एक मस्तिष्क में अवस्थित सहस्रार चक्र-ब्रह्मरंध्र, जिसमें मन-बुद्धि-चित्त सुबोध का अन्तःकरण चतुष्टय निवास करता है। दक्षिणी ध्रुव जिसे मूलाधार चक्र कहते हैं, जननेन्द्रिय मूल में है। इन दिनों की समर्थताओं के बलबूते ही मनुष्य समुन्नत स्तर का बनता है। ब्रह्मरंध्र में बुद्धिमत्ता से लेकर ब्रह्मचेतना भरी पड़ी है। इसी को कैलाश, मानसरोवर कहते हैं। यही क्षीरसागर में शेषशायी विष्णु का निवास है। जननेन्द्रिय मूल के गह्वर में महाकाली कुण्डलिनी शक्ति का निवास है। इसे साहस का केन्द्र कहते हैं और वंशवृद्धि के तत्व भी इसी क्षेत्र में सन्निहित हैं। मस्तिष्कीय प्रसन्नता का अपना आनन्द है और काम चेतना का अपना उत्साह।

इन दोनों शक्ति भण्डारों को भगवान ने इसलिए प्रदान किया है कि उनके माध्यम से जीवन का सफल बनाने वाले एक-से-एक बढ़े-चढ़े कार्य सम्पन्न किये जा सकें। मस्तिष्कीय ब्रह्मरंध्र मनुष्य को विद्वान, बुद्धिमान, प्रज्ञावान, दूरदर्शी, दिव्यदर्शी आदि बनाता है। परमात्मा से साक्षात्कार करने से लेकर स्वर्ग-मुक्ति, ऋद्धि-सिद्धि आदि का यह उद्गम केन्द्र है। साँसारिक सूझ-बूझ एवं योजनायें भी इसी केन्द्र में उद्भूत होती हैं। मूलाधार चक्र में उत्साह और साहस के भण्डार भरे पड़े हैं। उनके सहारे कठिन दिखने वाले पराक्रम और पुरुषार्थ उपलब्ध होते हैं और साधारण दिखने वाला व्यक्ति भी असाधारण सफलता उपलब्ध करता है। इन्हें सुरक्षित रखा जाय, इस दृष्टि से भगवान ने इन्हें गोपनीय तिजोरियों में बन्द करके रखा है। मस्तिष्क खोपड़ी के सुदृढ़ कवच के भीतर अवस्थित है। जननेन्द्रिय क्षेत्र भी बालों से, वस्त्रों से इस प्रकार ढका रहता है कि साधारणतया किसी की दृष्टि उस पर न पड़े। यह सुरक्षा प्रबन्ध इसलिए है कि किसी प्रकार इन अनावश्यक क्षति न पहुँचे।

किन्तु मनुष्य की बुद्धिमत्ता को परखने की दृष्टि से सृष्टा ने इन दोनों केन्द्रों में ऐसी कुलबुलाहट उत्पन्न की है कि वे वयस्क होते ही उत्तेजित हो उठते हैं और उस दिव्य सामर्थ्य का अपव्यय काम-क्रीड़ा में करने लगते हैं। इसका परिणाम व्यक्तित्व को प्रतिभावान बनाने वाली प्राण चेतना के अनावश्यक क्षरण रूप में ही दृष्टिगोचर होता है और जो विवेकपूर्वक इन्द्रियनिग्रह का संयम बरतने नहीं पाते, वे थोड़े ही दिनों में खोखले हो जाते हैं। ऐसी दशा में ज्यों-त्यों जीवन की गाड़ी खींचते रहते हैं। कोई महत्वपूर्ण सफलता हस्तगत नहीं कर पाते। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए ही शास्त्रकारों ने ब्रह्मचर्य को सिद्धि दाता तप कहा है और यथासम्भव काम-क्रीड़ा से बचने का परामर्श दिया है।

विवाह का तात्पर्य दाम्पत्य जीवन की सार्वजनिक घोषणा और एक-दूसरे के चरित्र की रक्षा-विशेषताओं का मिलजुलकर रचनात्मक दिशा में सदुपयोग करना है। जो लोग इस प्रकार का जीवन बिता पाते हैं, वे परस्पर एक-दूसरे का हृदय जीतते, गहरा स्नेह-सद्भाव अर्जित करते हैं। काम वासना की पूर्ति भी दाम्पत्य जीवन में होती रहती है, पर उसमें दूरदर्शी विवेकशीलता अपनाने की महती आवश्यकता रहती है। इस संदर्भ में हम दूसरे प्राणियों को मिलने वाले प्रकृति प्रेरणा से बहुत कुछ शिक्षण ग्रहण कर सकते हैं। मादा जब गर्भ धारण की स्थिति में होती है, वैसी आवश्यकता अनुभव करती है तो नर को उत्तेजना प्रदान करती है। गर्भधारण होते ही दोनों पक्ष उस ओर से अपना मन सिकोड़ लेते हैं। पक्षी आमतौर से जोड़ा बनाकर रहते हैं, पर उनमें से कोई भी कुसमय की छेड़छाड़ नहीं करता। गाय, भैंस, भेड़, बकरी झुण्ड में चरती हैं। उनमें सभी मादाएँ नहीं होती कुछ नर भी होते हैं, पर गर्भधारण की प्राकृतिक उत्तेजना के बिना कोई किसी को हैरान नहीं करते। इसी में मर्यादा पालन भी है और शारीरिक मानसिक सुरक्षा भी।

आज के प्रचलनों में यह सबसे बड़ा दुर्भाग्य है कि नारी को वयस्क होते ही, उसे नर द्वारा कुदृष्टि से देखने का सिलसिला चल पड़ता है और उसकी परिणति बहुत बार काम सेवन के रूप में भी होती है। जहाँ तक कि उस प्रसंग में सभी नीति-नियमों का उल्लंघन अतिक्रमण आरम्भ हो जाता है। फलतः कुछ ही दिनों में दोनों पक्षों की जननेंद्रियां रोगग्रस्त हो जाती हैं। पुरुषों को प्रमेह, स्वप्नदोष, शीघ्र पतन, नपुँसकता आदि रोग घेर लेते हैं और स्त्रियों को प्रदर, रक्त प्रदर, जलन, खुजली, फुन्सी जैसे रोग घेरने लगते हैं, बहुमूत्र की व्यथा लग जाती है। ऐसे-ऐसे अनेकों रोग अमर्यादित मैथुन का दुष्परिणाम है।

प्रकृति ने नर नारी दोनों की विशेषतया नारी की जननेंद्रिय को इस प्रकार सृजा है कि जब प्रजनन की उत्कृष्ट अभिलाषा हो तभी उस अवयव पर दबाव पड़े, अन्यथा अनावश्यक घर्षण और क्षरण शरीर की बहुमूल्य धातुओं की बर्बादी आरम्भ कर देता है।

कुण्डलिनी गह्वर-जननेन्द्रिय मूल में समाहित शक्ति भण्डार को ऊर्ध्वरेता होना चाहिए, ताकि उस स्नेह के पोषण से बुद्धिमत्ता का दीपक प्रदीप्त रह सके। जो इस तथ्य की उपेक्षा करते व काम-सेवन में अतिवाद बरतते हैं, वे अपनी मेधा, समर्थता और स्वास्थ्य सन्तुलन को बेहिसाब गँवाते हैं। यह सौदा बहुत महंगा पड़ता है। कहते हैं कि कुत्ता सूखी हड्डी चबाने लगता है, तो उसके जबड़े छिल जाते हैं और खून निकलने लगता है। उसका स्वाद उसे ऐसा प्रतीत होता है, मानो यह रक्त सूखी हुई हड्डी का स्वयं हो। वस्तुतः होता यह है कि काम सेवन में अपनी समर्थता को बारूद की तरह जलाया जाता है और उस फुलझड़ी से छूटती चिनगारियों को देखकर मोद मनाया जाता है।

काम सेवन की तरह काम चिन्तन भी कम भयानक नहीं है। मस्तिष्क में जिस स्तर के विचार आते हैं उसी स्तर की क्रिया के निमित्त मन मचलने लगता है और इस आतुरता की पूर्ति के लिए सही गलत अनेक उपाय सूझते हैं। कई बार तो उसके लिए कोई न कोई तरकीब भी ढूंढ़ निकाली जाती है। इसीलिए भारतीय मनोविज्ञान वेत्ताओं ने परामर्श दिया है कि काम चिन्तन पर नियन्त्रण किया जा सके, तो काम सेवन की प्रक्रिया फिर कुछ भी कठिन न रह जायेगी।

यह स्मरण रखने योग्य है कि दाम्पत्य जीवन का उद्देश्य घर परिवार की व्यवस्था बनाने से लेकर परस्पर एक-दूसरे की प्रगति में सहायता करना है। जिसकी योग्यता बढ़ी-चढ़ी है, वही अपने साथी की सहायता भी अधिक कर सकता है। फिर मित्रता के साथ यह परम पवित्र कर्त्तव्य भी जुड़ा हुआ है कि एक-दूसरे की सुविधाओं की देखभाल ही न करें, वरन् योग्यता भी बढ़ायें। इसके लिए स्वयं भी प्रयत्न परामर्श करना पड़ता है। एकान्त का बचा हुआ समय समुन्नत जीवन की रूपरेखा बनाने की अपेक्षा यदि काम-कौतुक में ही वह संयम खर्च करते रहा जाय, तो दो कार्य एक साथ कैसे बन पड़ेंगे?

सृष्टि के सभी प्राणी नया गर्भ धारण तब करते हैं, जब पिछला बच्चा बहुत हद तक स्वावलम्बी हो जाय। मनुष्य ही है जो इस मर्यादा का अतिक्रमण करता है और पिछला बच्चा समर्थ होने से पूर्व ही नयी जिम्मेदारी उठाने के लिए आतुर होने लगता है। बहुप्रजनन ही दृष्टि से अनर्थकारी है। इससे जननी का स्वास्थ्य बर्बाद होता है। पिता पर आर्थिक भार पढ़ता है। बच्चों का लालन-पालन सही रीति से नहीं हो पाता और समाज की प्रगति योजनाओं का सर्वनाश होता है। इतना उत्पादन नहीं बढ़ रहा है जितनी तेजी से बच्चे पैदा हो रहे हैं काम सेवन में मर्यादा न रखने के फलस्वरूप अधिक बच्चे पैदा होते हैं और उन सभी को न माता-पिता का उचित स्नेह संरक्षण मिल पाता है और न उनकी प्रगति के लिए आवश्यक साधन जुटाना बन पड़ता है।

धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के चतुर्वर्ग में जहाँ ‘काम’ शब्द का उपयोग हुआ है, वहाँ उसका अर्थ हास-परिहास, क्रीड़ा-विनोद मात्र है। यौनाचार की खुली छूट नहीं। इस संदर्भ में जितना संयम बरता जा सके, उतना ही उत्तम है। इसमें अपना ही नहीं साथी का भी शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य सही रहता है। जो इसका ध्यान रखते हैं, उन्हें सच्चा मित्र भी कह सकते हैं और साथ ही हित चिन्तक भी।

नारी को कामिनी, रमणी, वेश्या के रूप में चित्रित करने में ओछे साहित्यकारों, कवियों, गायकों, चित्रकारों की पूरी भूमिका रहती है। रीतिकाल के कवियों ने नारी के कामोत्तेजक पक्ष को ही उभारा है। नृत्य, अभिनय आदि भी इसी कुत्सा तक केन्द्रित हो गये हैं। इसका परिणाम यह हुआ है कि भावनात्मक शालीनता हम बुरी तरह गंवा बैठे और मानवी उत्कृष्टता को परित्याग कर उन पशुओं की बिरादरी में सम्मिलित हो गये, जिनमें काम सेवन के लिए बहिन, पुत्री, माँ आदि के लिए भी कोई प्रतिबन्ध नहीं है। जिस उच्छृंखलता के साथ यह दुष्प्रवृत्तियां बढ़ रही हैं उसे देखते हुए यही कहा जा सकता है कि हम शील का परित्याग करके नरपशु बनते जा रहे हैं।

नीति और औचित्य का भावना स्तर यह बताता है कि नर-नारी के बीच भाई-भाई जैसा, बहिन-बहिन जैसा व्यवहार होना चाहिए। शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य की माँग है कि अश्लीलता को उत्तेजित करना एक दण्डनीय अपराध माना जाय। अश्लीलता का दृष्टिकोण समाज क्षेत्र में प्रगति का सबसे बड़ा व्यवधान है, क्योंकि वह नारी की योग्यता एवं क्षमता को प्रतिबन्धित रखता है। नर और नारी सर्वथा अलग रहें, तो फिर बात वहाँ से शुरू करनी चाहिए कि लड़के माता का दूध न पियें। बहिन भाई एक घर में न रहें। इतने पतित समाज में पूरी अराजकता फैलेगी और सर्वनाश होगा। यह उसी की शुरुआत है कि नारी कि दृष्टि से नर को और नर की दृष्टि से नारी को सर्वथा पृथक रखने और मिल-जुलकर काम करने को अविश्वास की दृष्टि से देखा जाय। ऐसी व्यवस्था बनाने में तो हजार प्रकार की हानियाँ हैं। उचित इतना ही है कि दृष्टिकोण में परिवर्तन किया जाय। नारी को माता का, बहिन का, पुत्री का सम्मान दिया जाय और पत्नी को भी धर्मपत्नी, गृहलक्ष्मी दृष्टि से देखते हुए समान सम्मान, समान सहयोग एवं समान अधिकार देने का मानवोचित्त दृष्टिकोण अपनाया जाय। स्मरण रहे, वर्तमान प्रचलन जिसमें नारी मात्र के प्रति अश्लील कामुकता की दृष्टि से देखा जाता है, अत्यन्त हेय है। भगवान शंकर ने ऐसे ही उद्दण्ड कामदेव का नाश तीसरा नेत्र खोलकर किया था। हमें शिव-पार्वती, विष्णु-लक्ष्मी, राम-सीता के उच्च आदर्शों को समझने और अपनाने का प्रयत्न करना चाहिए। इसी में कल्याण है।

शास्त्रकार का यह कथन शत-प्रतिशत सही है कि “मरणं बिंदु पातेन जीवनं बिन्दु धारणात्” मर्यादा भंग के कारण बढ़ते हुए व्यभिचार ने ऐसे अनेकों रोगों को इन्हीं दिनों जन्म दिया है, जिनके कारण मनुष्य को आज नारकीय सड़न में सड़ते हुए मरना पड़ रहा है। अच्छा हो मनुष्य काम सेवन की मर्यादा समझे एवं ऊर्ध्व रेता बनकर अपनी शक्ति उच्चस्तरीय प्रयोजनों में लगाये।


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