योग साधना का मजाक न बने!

September 1985

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मनुष्य शरीर और चेतना का सम्मिश्रण है। दोनों की सत्ता और महत्ता पृथक-पृथक हैं। यों दोनों मिलजुलकर ही जीवन की गाड़ी दो पहियों की तरह चलाते हैं। फिर भी उनकी संरचना और क्रिया-पद्धति में अन्तर है। शरीर पंचतत्वों के सम्मिश्रण से बना है। उसकी पाँच कर्मेंद्रियां और पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ मन मस्तिष्क, यह क्रिया पक्ष हैं। काय सत्ता जो उसके संचालन के निमित्त मशीन का काम करती है, वह धड़ एवं सिर के आवरण में छिपी है। धड़ में फुफ्फुस, हृदय, आमाशय, आँत, वृक्क, प्लीहा आदि अवयव हैं और खोपड़ी के भीतर मस्तिष्क ये प्रधान हैं।

यह सभी अवयव अपने-अपने काम करते रहते हैं और पालन-पोषण एवं सफाई का तन्त्र किसी प्रकार चलता रहता है। शरीर की संचालिका शक्ति को ‘प्राण’ कहते हैं। यह वह सचेतन विद्युत शक्ति है, जो नाड़ी तन्तुओं के माध्यम से समस्त शरीर में फैली हुई है। इसका प्रमुख केन्द्र मस्तिष्क का मध्य भाग माना जाता है, जिसे ब्रह्मरंध्र या सहस्रार कहते हैं। चेतना और शरीर का जब तक सम्बन्ध रहता है तब तक जीवन है और जब दोनों का वियोग हो जाता है, तो मृत्यु हो जाती है। यही है, संक्षेप में शरीर और प्राण चेतना का अति संक्षिप्त परिचय।

सुखी और बलिष्ठ जीवन के लिए शरीर को स्वस्थ रखा जाना चाहिए। इसके लिए आहार-विहार के नियमों का पालन किया जाना चाहिए। शारीरिक अवयवों में से किन्हीं को अतिरिक्त रूप से बलिष्ठ बनाना हो, तो उसके लिए विशेष व्यायाम करने पड़ते हैं। भारतीय विधि से उन्हें सम्पन्न करने की प्रक्रिया शारीरिक योग कहलाती है इसमें आहार की सात्विकता और ब्रह्मचर्य की संयमशीलता प्रथम है ही, इसके उपरान्त अंग विशेष के व्यायामों के लिए आसन-फेफड़ों की मजबूती और अधिक ऑक्सीजन प्राप्त करने के लिए प्राणायाम के अभ्यास करने पड़ते हैं। तीसरा उपचार ध्यान का है। इसके अंतर्गत मन की एकाग्रता और स्वसंकेत- ‘‘ऑटो सजेशन”-का प्रयोजन पूरा करना पड़ता है। आशा की जाती है कि इतना करते रहने वाला शारीरिक योगाभ्यासी दुर्बलता, रुग्णता और अकाल मृत्यु से बचा रहेगा उसे बलिष्ठ रहने का अवसर मिलेगा।

किन्तु इन्हीं क्रिया-प्रतिक्रियाओं को “योग” मान बैठना भूल होगी। यह शरीर पक्षीय “योग” है। जब कि ऋषियों की योग-परिभाषा में आत्मा और परमात्मा के मिलन को ‘योग’ कहते हैं। इस ब्रह्मांड में सचेतन शक्ति काम करती है। उससे प्रकृति के समस्त क्रिया-कलाप सुसंचालित ढंग से चलते हैं उस शक्ति को ‘परमेश्वर’ कहते हैं। इस परब्रह्म शक्ति का एक पक्ष वह भी है जो सचेतन आत्माओं के साथ संबद्ध है। इसे ‘परब्रह्म’ या ‘परमात्मा’ कहते हैं। इस निखिल ब्रह्मांड में परमात्म सत्ता प्रचुर परिमाण में भरी पड़ी है। कोई व्यक्ति यदि चाहे तो अंतरंग के सचेतन योग द्वारा अपनी आत्मा में परमात्म तत्व का अधिकाधिक भाग आकर्षित कर सकता है, साधारण प्राणवान से महाप्राण बन सकता है। अध्यात्म योग का यही स्वरूप है।

अध्यात्म योग के तीन भाग हैं-

(1) समग्र संयम- जिसे ‘तप’ कहा जाता है। तप के चार भाग हैं- (अ) इन्द्रिय संयम (ब) अर्थ संयम (स) समय संयम (द) विचार संयम। हमारी शक्तियाँ बेतरतीब उछल-कूद में अस्त-व्यस्त होती रहती हैं। इन चारों संयमों द्वारा उन्हें मात्र निर्धारित प्रयोजन में ही लगने की शिक्षा दी जाती है। (2) योग साधन की दूसरी धारा है- ध्यान। यों मन किसी-न-किसी शुभ-अशुभ प्रसंग का ध्यान करता ही रहता है, पर उसे आत्मसत्ता के विवेचन पर एकाग्र करने को ‘ध्यान’ कहते हैं। (3) तीसरा पक्ष है उत्कृष्टता के साथ तन्मयता, जिसे “भक्तियोग” भी कहते हैं। ऊँची स्थिति में यही समाधि बन जाती है। यह प्राण चेतना को अधिकाधिक समर्थ बनाने की कार्य पद्धति है।

जिस प्रकार शारीरिक योग से कोई व्यक्ति पहलवान, योद्धा, कलाकार, नट आदि बन सकता है, उसी प्रकार की आध्यात्मिक सिद्धियाँ भी हैं, जिन्हें श्रद्धा, प्रज्ञा, निष्ठा, प्रतिभा आदि कहते हैं। इसका समग्र स्वरूप ‘ब्रह्मतेजस्’ या ‘आत्मबल’ कहलाता है। इस क्षेत्र में विकसित हुए प्राण में अतीन्द्रिय क्षमताऐं जग पड़ती हैं। दूर श्रवण, विचार संचालन, प्राण प्रहार, प्रत्यावर्तन, भविष्य कथन आदि अतीन्द्रिय क्षेत्र की चमत्कारी सिद्धियाँ ऐसी हैं, जिन्हें दूसरे लोग देखकर आश्चर्यचकित हो सकते हैं। इसके अतिरिक्त उच्चस्तरीय सिद्धियाँ भी हैं, जो स्वयं अनुभव की जाती हैं, पर दूसरों को उनकी प्रतीति नगण्य ही हो पाती है।

वरदान देने, शाप देने, अपनी क्षमताएं दूसरे में हस्तान्तरण करने, पिता और देवता स्तर की आत्माओं से संपर्क, वातावरण का परिशोधन एवं परिष्कार आदि-आदि, यह सब परमात्म सत्ता के साथ घनिष्टता के चिन्ह हैं। इस स्थिति में ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ की-विश्व बन्धुत्व की भावनायें विकसित होती हैं और स्वार्थ परमार्थ स्तर तक अपना फैलाव कर लेता है। यह जानकारियाँ तो सभी को होती हैं, पर अनुभूतियाँ किसी-किसी को। जिसे अनुभूति होने लगे, उसे ‘तत्त्वज्ञानी’ कहते हैं। तत्त्वज्ञानी को अपनी अन्तरात्मा में विराजमान परमात्मा के सतत् दर्शन होते हैं। इसी को ‘ईश्वर-दर्शन’ कहते हैं। इस स्थिति तक पहुँचते-पहुँचते सम्पदा की लिप्सा, संचय की तृष्णा और बड़प्पन के प्रदर्शन की अहंता के त्रिविध बंधन टूट जाते हैं और मनुष्य “जीवन मुक्त” बन जाता है। यह मुक्ति जीवित स्थिति में भी हो सकती है। मरण की इसमें कोई शर्त नहीं। इस स्तर पर पहुँचने वाली आत्मायें नर पशु, नर पिशाच के नारकीय दलदल को पार कर लेती हैं और महामानव, ऋषि, देवात्मा स्तरों तक जा पहुँचती हैं। इन्हीं को अध्यात्म भाषा में ‘लोक’ कहा गया है। यहाँ लोक का तात्पर्य स्तर है, किसी ग्रह-नक्षत्र आदि में जा पहुँचना नहीं। इस स्तर के व्यक्तित्वों को प्रकृति के अदृश्य अंतराल की झाँकी होती है। वे भूत के घटनाक्रम, वर्तमान के प्रयास और भविष्य की संभावनाओं का स्वरूप जान सकते हैं। अपनी प्राण चेतना की टक्कर मार कर उन्हें उलट-पलट भी सकते हैं। ऐसी आत्मा को कर्मफल में बाधित होकर, जन्म-मरण के चक्र में घूमना, उनके लिए बाधित नहीं होना पड़ता। रिजर्व सेना की तरह परमात्म क्षेत्र में वे सुरक्षित प्रतिभाओं की तरह निवास करते हैं। जब भी सृष्टि संतुलन में जहाँ कहीं उनकी आवश्यकता होती है तब उन्हें सन्त, सुधारक, शहीद या अवतारी के रूप में भेज दिया जाता है, ताकि वे लोक मानस में असाधारण उत्तेजना पैदा कर सकें। सृष्टा स्वयं निराकार होने के कारण ऐसी ही दिव्य आत्माओं के अन्तराल में अपना विशिष्ट प्रकाश देकर कोई महत्वपूर्ण कार्य करा लेते हैं।

जिन्हें योग की ऋषि प्रणीत परिभाषा समझनी और अपनानी हो, उन्हें अपने पुरुषार्थ से अपने अन्तराल में अवस्थित दैवी संरचना और शक्ति भंडारों का पर्यवेक्षण एवं उत्कर्ष-जागरण करना होता है, पंचकोशों का अनावरण, षट्चक्रों का बेधन, कुण्डलिनी जागरण, सहस्रार उद्घाटन, त्रिविध ग्रन्थि भेदन आदि क्रियायें करनी पड़ती हैं। राजयोग, हठयोग, लययोग, प्राणयोग यह चार अभ्यास हैं और ज्ञानयोग, कर्मयोग, भक्तियोग-ये तीन जीवन यापन के क्रियाकलाप। इनमें से कौन, किसे, किस क्रम में करे इसके लिए अनुभवी मार्गदर्शक का अवलम्बन अपनाना पड़ता है। अखाड़े में उस्ताद शागिर्द का, पर्यवेक्षण और दिशा निर्धारण क्रम चलता है। ठीक इसी तरह साधक की स्थिति का गंभीरतापूर्वक पर्यवेक्षण करने के उपरान्त यह निश्चय करना होता है कि किस साधक के लिए, किस स्थिति में, किस प्रयोजन के लिए, क्या साधना विधान अपनाना आवश्यक होगा?

यह अध्यात्म योग साधना का प्रकरण हुआ। शारीरिक योगाभ्यास के बालबोध-आरम्भिक अभ्यास पर पहले ही कुछ प्रकाश डाला जा चुका है। वे शरीर से होने वाले व्यायामों की तरह हैं और उनका लाभ भी उतना ही सीमित है। जीवनचर्या और मनोभूमि को कसने की भी उनमें उतनी आवश्यकता नहीं पड़ती। स्कूली बच्चों की तरह उनकी पढ़ाई कोई भी कर सकता है। वे कसरतें सर्व सुलभ हैं।

इन दिनों शरीरगत कुछ हलकी-फुलकी कसरतों को ‘योग’ का नाम दिया गया है। हिन्दी के योग शब्द को अंग्रेजी में “योगा” कहा जाता है। पाश्चात्य देशों के निवासी इस “योगा” को कोई जादू-चमत्कार समझते हैं और उसे सस्ते मूल्य पर खरीदना चाहते हैं। न संयम बरतना पड़े, न कष्ट कठिनाई भरी साधनाओं का झंझट उठाना पड़े और आशा के अनुरूप फल भी मिले। ताड़ने वाले इस बाल-बुद्धि को समझ लेते हैं और उसी के अनुरूप एक सुगम-सा पाठ्यक्रम बना देते हैं। उनमें ‘आसन’ और ‘मेडीटेशन’ यही दो मुख्य हैं। आसन हल्के-फुल्के अंग संचालन जैसे एवं मेडीटेशन आंखें बन्द करके कोई कल्पना करते रहना। इससे भी आगे कदम बढ़ाना हुआ तो लम्बी सांसें खींचने का प्राणायाम और जोड़ लिया गया। आजकल भारत के चतुर सन्त वेश धारियों ने इसी प्रकार का योग यूरोप, अमेरिका के देशों में चलाया है। भारत में भी जहाँ-तहाँ उसी की नकल हो रही है। यह मनोरंजन का अच्छा रास्ता है। विशेषतया उसका नाम बड़ा और स्वरूप छोटा है। कोई भी अपने बेटे का नाम राजा रख सकता है, पर जो विशेषता और विभूतियाँ राजा के पास होनी चाहिए वे उसके पास न हों तो यह एक मजाक ही बनकर रहेगा। ‘योगी’ किसी समय बहुत ऊँची स्थिति तक पहुंचते हुए सिद्ध पुरुष होते थे। आज छोटी कक्षाओं के बच्चे भी कुछ कसरतें सीख कर अपने को योगी कहते हैं। इससे वे बच्चे तो योगी नहीं होते, ‘योग’ शब्द को ही बचकाना कहलाने का अवसर मिलता है। ऐसी दशा में योग विज्ञान के साधकों का भी मन छोटा होता है कि उन्हें इतनी तितिक्षा करने पर भी बाल बिरादरी में सम्मिलित होने से क्या लाभ? ‘योगी’ एक श्रेय सूचक शब्द है, उसकी परिधि बाल विनोद, क्रीड़ा कौतुक तक सीमित कर दी जाय तो इससे अपनी संस्कृति की मान्यताओं को आघात ही लगेगा।

यदि तथाकथित योगियों का विचार उसे बहुसंख्यक लोगों तक पहुँचाने का हो तो शुरुआत आसन और ध्यान की बी.ए.,एम.ए. जैसी कक्षाओं से न करके यम-नियम की आरंभिक श्रेणी से करनी चाहिए। राजयोग के यह प्रारम्भिक चरण हैं। यम-नियम अर्थात् शारीरिक-मानसिक सदाचार। यह सिद्धान्त परक भी है। इस आधार पर देश में नैतिक, बौद्धिक और सामाजिक क्रान्ति का वातावरण तैयार किया जा सकता है। व्यायामों में श्रमदान को लिया जाय और उसे सामूहिक रूप से प्रयत्न करके स्वच्छता तक आगे बढ़ाया जाय, जलाशयों को सुधारा जाय और घरेलू शाक वाटिका से लेकर वृक्षारोपण जैसे कार्यों में सामूहिक श्रमदान को व्यायाम के रूप में प्रचलित किया जाय। स्काउटिंग स्तर की परेडें और खेलकूदों को भी प्रश्रय दिया जा सकता है। यह सभी कार्य ऐसे हैं, जिनमें शारीरिक व्यायाम आसनों की तुलना में कम नहीं, अधिक अच्छी तरह किया जा सकता है। देहाती खेलकूद अब समाप्त जैसे हो गये हैं, उनका पुनरुद्धार फिर से किया जा सकता है। आसनों की दिशा यदि इस ओर मोड़ी जा सके तो बताये जाने वाले लाभों की तुलना में अभ्यासी ही नहीं, सारा समाज भी लाभ उठा सकता है।

‘मेडीटेशन’ का अर्थ यदि ध्यान की एकाग्रता ही है, तो उसके लिए इच्छाशक्ति भी साथ में बढ़ाने के लिए “स्वसंकेत”- ऑटोसजेशन क्या बुरा है? ध्यान में देवताओं और उनके वाहनों के चित्रों को माध्यम बनाने की तुलना में संसार के महामानवों, ऋषियों, उद्धारकों की जीवन गाथाओं में सन्निहित रहस्यों को खोज निकालने का काम सौंपा जा सकता है। प्रवास यात्राओं में भी वहाँ की पुरातन और अर्वाचीन परिस्थिति की तुलना करना तथा भावी प्रगति की योजनाओं को कार्यान्वित करने के लिए प्रश्नोत्तर करने और उनमें अधिक गहराई का परिचय देने वालों को पुरस्कृत करना प्रत्यक्षतः अधिक लाभदायक है।

यदि एक बिन्दु पर ध्यान करना आवश्यक हो तो आँखें बन्द करके उदीयमान सूर्य का ध्यान और उसकी किरणों का रोम-रोम में प्रवेश करके बल, ज्ञान और भावनाओं की अभिवृद्धि का ध्यान करना हर किसी के लिए उपयोगी हो सकता है। संगीत शिक्षा में एकाग्रता तथा भाव-संवेदनाओं को उभारने का गुण है। उसकी शिक्षा भी एकाग्रता के लिए बुरी नहीं है।

कहने का तात्पर्य यह है कि यदि योग को व्यायाम और एकाग्रता की शिक्षा के लिए ही प्रयोग करना है, तो उसके साथ अन्य सामयिक आवश्यकताओं को भी क्यों न सम्मिलित कर लिया जाय। निशानेबाजी अपने आप में एक एकाग्रता की कला है और स्कूलों में दी जाने वाली सैनिक ड्रिल में वे सभी गुण समाविष्ट हैं, जो व्यायाम की आवश्यकता पूरी करने के साथ-साथ अनुशासन भी सिखाते हैं और साहस, उत्साह भी बढ़ाते हैं। यह आन्दोलन तथा कथित “योगा” से किसी भी प्रकार कम महत्व का नहीं है। योग के ऊपर यह लाँछन लगते रहते हैं, कि उसमें स्वार्थपरक सीमित दृष्टिकोण रहता है। यह बात ऊँची श्रेणी के योग के संबंध में तो नहीं कहीं जा सकती, पर मात्र अंग संचालन सिखाने की अपेक्षा तो यह कहीं अच्छा है, कि ऐसे शारीरिक, मानसिक व्यायामों को लोकप्रिय बनाया जाय, जो नागरिक कर्तव्य एवं समाज निष्ठा की सत्प्रवृत्तियों को भी अग्रगामी बनाते हों एवं अध्यात्म की गूढ़ साधना के प्रति दिमाग भी साफ करें।

ध्यान और योगाभ्यास, यों दोनों ही ऊँचे दर्जे की आत्मशोधन तथा आत्म परिष्कार की प्रक्रिया हैं। उन्हें अपनाने पर आत्मा को परमात्मा स्तर का क्षुद्र से महान बनने का अवसर मिलता है। पर यदि उसके साथ जुड़े हुए अन्य कर्त्तव्यों का निर्वाह कठिन पड़े और उसे स्कूलों में ही चलाना हो, तो इन व्यायामों को ‘योग’ न कहा जाय, साथ ही उनके साथ ऐसी चारित्रिक नियम निष्ठा तथा कार्य पद्धति, जोड़ी जाय, जो व्यक्ति और समाज दोनों के लिए ही लाभदायक सिद्ध हो सके। इसी में योग की और उसे अपनाने वालों की सार्थकता है।


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