तन कर खड़े रहो जीत तुम्हारी है।

September 1985

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मनोवैज्ञानिक डा. नारमन विन्सेंट पीले के अनुसार मनुष्य के व्यक्तित्व का विकास उसके चिन्तन और चरित्र पर निर्भर करता है। निषेधात्मक या विधेयात्मक चिन्तन मनुष्य को हेय नर-पशु अथवा उठा हुआ देव मानव बना देता है। विधेयात्मक चिन्तन एक प्रकार की विचार शैली है जिसमें व्यक्ति विषम या प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अपना मनोबल ऊँचा बनाये रखता है और अच्छे परिणामों की आशा रखता है। विपन्न परिस्थितियाँ, प्रतिकूलताएँ एक नया स्वर्णिम सुअवसर लेकर आती हैं जिनसे वह सबक सीखना और अपने व्यक्तित्व को निखारना, प्रखर बनाना अनिवार्य समझता है। विधेयात्मक पक्ष की ओर देखना, सोचना, संकल्पयुक्त विवेकशील मन की एक प्रक्रिया है जो व्यक्ति के चयन पर निर्भर करती है।

अच्छाइयों में आस्था रखने वाले आत्मविश्वासी उत्साही व्यक्ति के मन-मस्तिष्क में यह बात सदैव जीवन्त बनी रहती है कि ‘प्रगति एक दरवाजा रास्ता बन्द हो जाने पर सुनिश्चित रूप से दूसरे अनेक रास्ते खुलेंगे ही।’ विधेयात्मक दृष्टिकोण अपनाने वाले सदैव बुराइयों से अपना पीछा छुड़ाने और अच्छाइयों को अपनाने का प्रयत्न करते हैं। फलतः अच्छाइयाँ उनके जीवन और दृष्टिकोण का अंग बन जाती हैं। ऐसे व्यक्ति उज्ज्वल भविष्य की ओर देखते हैं और अन्धकारमय क्षणों, प्रतिकूल परिस्थितियों में अधिक प्रफुल्ल, उत्पादक और रचनात्मक दिशाधारा अपनाते हैं। यह मनोदशा ही उन्हें द्रुतगति से सफलता की ओर ले जाती है। उत्साही व्यक्ति ही विघ्न-बाधाओं से लोहा लेते और उन्हें निरस्त करते हुए प्रगति-पथ पर आगे बढ़ते हैं।

प्रख्यात विचारक एवं मनीषी विलियम जेम्स के अनुसार संसार में दो तरह के व्यक्ति पाये जाते हैं। पहले हैं- टफ माइण्डेड (सख्त स्वभाव वाले) तथा दूसरे हैं- टेण्डर माइण्डेड (नरम स्वभाव वाले संवेदनशील) व्यक्ति। नरम स्वभाव वाले व्यक्ति कठिनाइयों विघ्न-बाधाओं के उपस्थित हो जाने पर विचलित हो उठते हैं। आलोचना किये जाने पर तो उनका दिल ही बैठ जाता है। वे ऐसे व्यक्ति होते हैं जो रिरियाते चीखते-चिल्लाते भर हैं और कुछ न कर पाने के कारण असफलता ही उनके हाथ लगती है। सख्त मिजाज वालों की स्थिति इनसे भिन्न होती है। जीवन के हर क्षेत्र में वे सक्रिय और सफल होते देखे गये हैं। कैसी ही विषम कठिनाई या प्रतिकूलता क्यों न हो उससे वे हार नहीं मानते। प्रतिकूलता को ईश्वर का वरदान समझ कर नई सूझ-बूझ के साथ उसका सामना करते हैं। विश्व प्रख्यात लेखक स्काट निवासी थामस कार्लाइल में ऐसे ही व्यक्ति थे जिन्हें अपनी सारी जिन्दगी फाकामस्ती में काटनी पड़ी थी फिर अध्यवसाय के बलबूते वे सफलता की चरम सीमा तक पहुँचे थे। उनकी समाधि पर बने चबूतरे के एक ओर खुदी उनकी कुछ उनकी प्रेरक पंक्तियाँ आज भी स्काटवासियों के लिए ही नहीं वरन् समस्त विश्ववासियों के लिए प्रेरणा का स्त्रोत बनी हुई हैं। प्रेरक पंक्तियों का निष्कर्ष है “न तो कभी निराश हो और न कभी हार मानो- उठो, खड़े हो जाओ और संघर्ष करो जब तक विजयी न हो जाओ। ईश्वर तुम्हारी सहायता करेगा।” कार्लाइल कहते हैं- ‘जीवन हममें से प्रत्येक से यही पूछता है कि क्या तुम बहादुर बनोगे? अथवा कायर बनना पसन्द करोगे? निश्चय ही हमें मजबूत, निर्भय और उत्साही बनना होगा। विधेयात्मक चिन्तन करने वाला व्यक्ति कायर नहीं हो सकता। वह स्वयं के जीवन में, मानवता और ईश्वर में विश्वास रखता है, अपनी योग्यता और क्षमता को पहचानता है। वह निर्भीक और अपराजेय होता है। जो कुछ सामने आता है उसी से अपने उपयोग की अच्छाइयाँ छाँट लेता है।

भली-बुरी परिस्थितियों का निर्माण करना, बहादुर या कायर बनना व्यक्ति के अपने दृष्टिकोण पर निर्भर करता है। विधेयात्मक पक्ष अपनाने पर कायर व्यक्ति भी धीरे-धीरे निडर और हिम्मत वाला बन जाता है उसकी सारी परिस्थितियाँ पलट जाती हैं। अपनी त्रुटियों को पहचानना, उन्हें सुधारना, किये पर पश्चाताप करना, दण्ड पाना और भविष्य में वैसा न होने देने को कृत-संकल्पित होना अनिवार्य है। मन में सद्विचारों, सत्कर्मों और दृढ़-संकल्पों की त्रिवेणी जहाँ सदैव हिलोरे मारती रहती है वहाँ प्रगति का रुका हुआ अवरुद्ध मार्ग अपने आप ढह जाता है। सद्विचारों में असीम शक्ति होती है। विचार गत्यात्मक, जीवन्त और रचनात्मक हों तो व्यक्ति परिस्थितियों को बदल सकता है, उन पर नियन्त्रण कर सकता है और अपना भविष्य सुखमय बना लेता है। लेकिन यदि विचार हेय स्तर के घृणा, बेईमानी और असफलता से भरे हुए हैं तो वे व्यक्ति तथा समाज के लिए विनाशकारी परिस्थितियाँ उत्पन्न करते हैं।

डिजराइली कहा करते थे कि हमें अपने मस्तिष्क को महान विचारों से भर लेना चाहिए तभी हम महान कार्य सम्पादित कर सकते हैं। लोग क्षुद्र विचारों अपने बारे में, अपने बीवी बच्चों, परिवार, व्यापार आदि के सम्बन्ध में ही सदैव सोचते और मरते खपते रहते हैं। परिणामतः उसी स्तर के प्रतिफल भी उन्हें हाथ लगते हैं। यह एक तथ्य है कि जितना महान दृष्टिकोण और ऊँचे विचार होंगे उसी अनुपात में हमारे व्यक्तित्व का निर्माण होता जायेगा। मनोवैज्ञानिकों की अवधारणा है कि मनःमस्तिष्क या अन्तःकरण में उठने वाली वैचारिक तरंगें कल्पनाएं या भावनाएँ हमारे व्यक्तित्व को प्रकाशित करती हैं।

प्रख्यात मनःचिकित्सक मनोवैज्ञानिक एवं लेखक डा. नार्मन विन्सेंट पीले का कहना है कि जीवन के ही क्षेत्र में सफलता प्राप्त करने के लिए ध्यान देने योग्य प्रमुख बात है- ध्येय उद्देश्य का सुनिश्चित होना। आर्थिक, सामाजिक, बौद्धिक, भौतिक अथवा आध्यात्मिक उन्नति में से कुछ भी उद्देश्य हो सकता है। परन्तु मनुष्य का वास्तविक उद्देश्य आध्यात्मिक उन्नति करना है। बाकी अन्य सुविधाएँ तो उसके इस उद्देश्य की प्रगति में मात्र सहायक भर हैं।

विलियम जेम्स की मान्यता है कि महान प्रयासों को प्रयोजनों को सफलतम बिन्दु तक पहुँचाने में प्रमुख बाधा ‘थकावट’ का आना, उमंगों का ठण्डा पड़ जाना है। यह एक प्रकार की ऊब या उचाट है जो थोड़े से असामान्य प्रयास करने पर उत्पन्न होती है। थोड़े प्रयत्न के बाद ही व्यक्ति थक जाता है और हाथ में लिए कार्य को बीच में ही छोड़ देता है। यद्यपि ईश्वर ने मनुष्य के अन्दर विपुल शक्ति का भाण्डागार छिपा रखा है जिसे थोड़ी-सी कोशिश करने पर जागृत किया जा सकता है।

मनःमस्तिष्क से निषेधात्मक चिन्तन को निकालने के लिए बोस्टन के प्रख्यात चिकित्सक डा. सारा जार्डन का सुझाया गया मार्ग सर्वमान्य है। डा. जार्डन का कहना है कि प्रत्येक दिन सुबह अपने मस्तिष्क को विचार से रिक्त कर उसे शैम्पू से धोइये। समस्त वैचारिक गन्दगी युक्त धूल-निषेधात्मक चिन्तन को बुहार बाहर करें और उस रिक्त स्थान की पूर्ति सद्विचारों को मन में धारण करें। दिन भर उन्हीं सद्विचारों से अपने को ओत-प्रोत रखें। प्रतिदिन नये विचारों को अपनाने और अपनाये हुए विचारों को स्मृति पटल पर दुहराते रहने से मनःसंस्थान इतना शक्तिशाली हो जाता है कि बुरे विचार पास तक नहीं आ पाते। प्रकारान्तर से यह आत्म शोधन का संकेत है। समाज में अगणित व्यक्तियों की तरह विचार और चरित्र भी भरे पड़े हैं। उनका प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है पर हमें ग्रहण वही करना चाहिए जो हिम्मत बढ़ाते और भटकाव के क्षणों में मार्गदर्शन करते हैं।


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