अत्यधिक गम्भीर न रहें।

September 1985

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गम्भीर रहना वैसे सामान्यतया बुरा माना जाता है और समझा जाता है कि हँसना-हँसाना, हल्के-फुल्के रहना अच्छा होता है। इसमें कोई शक नहीं कि मनुष्य को प्रसन्न चित्त रहना चाहिए किन्तु, गम्भीर रहना भी एक कला है। यहाँ पर गम्भीरता से तात्पर्य जीवन के प्रति गम्भीर दृष्टिकोण अपनाने से है। प्राचीन काल से ही जीवन के प्रति गम्भीर दृष्टिकोण अपनाने की नीति प्रचलित थी इस चिन्तन को प्रकारान्तर से दूरदर्शिता पूर्ण कहा जा सकता है।

मनीषी, दार्शनिक तथा महत्वपूर्ण कार्यों में संलग्न लोग हमेशा जीवन के प्रति गम्भीर दृष्टिकोण अपनाने के पक्षधर रहे हैं। वर्तमान युग में लोग चिन्तित रहते हैं गम्भीर नहीं। चिन्तित रहना एक बात है और गम्भीर रहना दूसरी।

जो चिन्तित रहते हैं, वे कोई महत्वपूर्ण कार्य नहीं कर पाते, केवल चिन्ता में घुलते रहते हैं। किन्तु जो गम्भीरतापूर्वक किसी एक विषय पर चिन्तन करते रहते हैं वे महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ हस्तगत कर अपना तथा समाज का भला करते हैं।

आधुनिक युग में लोग चिन्ता और तनाव से बचने के लिए हल्के-फुल्के मनोरंजन तथा नशा खोरी का सहारा लेते रहते हैं। ठाली बैठकर गपशप करना हल्के-फुल्के तथा गन्दे मजाक करना, ठिठोली करना और उसी में समय काट देना ही एक उनका उद्देश्य होता है। ऐसे लोग अन्दर से चिन्तित तथा तनावग्रस्त होते हैं और बाहर से सस्ते मनोरंजन का आधार लेकर प्रसन्न रहते हैं।

इसके विपरीत जीवन के प्रति गम्भीर दृष्टिकोण अपनाने वाले लोग यद्यपि सस्ते मनोरंजन से अपने मन बहलाव के बहाने नहीं खोजते प्रत्युत समस्याओं के महत्वपूर्ण हल निकालते और वास्तविक प्रसन्नता का अनुभव करते हैं। मनोरंजन के पुराने साधन सिनेमा, सिगरेट, शराब और गन्दे नाच गाने अब बीते युग की बातें होती जा रही हैं। इन दृष्प्रवृत्तियों से जितनी जल्दी मुक्ति मिले अच्छा है। अब तो प्रबुद्ध वर्ग इलेक्ट्रानिक खोजों चाँद पर जाने या अन्तरिक्ष शोधों में व्यस्त रहना ही अपना मनोरंजन समझता है।

वस्तुतः गम्भीर दृष्टिकोण अपनाकर भी स्वस्थ मनोरंजन किया जा सकता है। कब गम्भीर रहना व कब हल्का रहना यह भी एक कला है। बच्चों का विकास करने के लिए हिल-मिलकर समय काटने में सबको बड़ा आनन्द आता है। और एक महत्वपूर्ण उद्देश्य की दायित्व की पूर्ति होती है। ऐसे कार्यों में मन लगाना जिससे स्वस्थ मनोरंजन भी हो और उस मनोरंजन से लाभ भी मिले, गम्भीर लोगों को प्रिय होता है। इसी में वे स्वयं को तनाव मुक्त कर लेते हैं।

उद्देश्यों आदर्शों के प्रति गम्भीर रहने में हर्ज नहीं इससे अपना चित्त एकाग्र रखने और हाथ में लिए काम को प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाने उसका महत्व विचारने का अवसर मिलता है किन्तु यह गम्भीरता ऐसी नहीं होनी चाहिए जो उदासी उपेक्षा जैसी प्रतीत हो और लगे कि मनुष्य किसी परेशानी में डूबा हुआ है। ऐसा होने पर लोग दूर रहने और बचने की कोशिश करते हैं। इस स्थिति में मनुष्य अपने को अकेला और जीवन को नीरस अनुभव करता है।

गम्भीरता के दबाव को हल्का करने के लिए हँसने-हँसाने की आदत डालनी चाहिए। पर वह होनी बाल सुलभ चाहिए उसमें व्यंग, उपहास, तिरस्कार जैसी भावनाएँ मिल जाने से वह हँसी भी विषाक्त हो जाती है। उसमें तो दूसरों को चोट पहुँचाने, किसी अनुपस्थित व्यक्ति की या अपनी अटपटी बातों की चर्चा करते हुए परिहास का अवसर ढूंढ़ा जाता है।

गाँधी जी हँस मुख थे। उनके सामने देश की अत्यन्त गम्भीर समस्यायें रहती थीं तो भी वह थोड़ी-थोड़ी देर में हँसते रहने के अवसर ढूंढ़ते रहते थे। कहते थे कि गम्भीरता को सुरक्षित रखने के लिए और अपने को बोझिल न होने देने के लिए हँसना भी एक मानसिक टॉनिक है।

परिहास प्राणियों के मध्य एकता, समता और समस्वरता लाता है। यदि ऐसा न होता तो विषमता की आग में चेतना की दुनिया कभी की जल-भुनकर नष्ट हो गई होती।

यह मान्यता सही नहीं है कि बुद्धिमत्ता यथार्थवादी और कठोर होती है इसलिए उसे भावुकता वश परिहास की आवश्यकता नहीं होती और न उसके लिए अवसर मिलता है। यदि ऐसा रहा होता तो बुद्धिमत्ता बड़ी कर्कश, कुरूप, बोझिल और संकट उत्पन्न करने वाली हो गई होती। मानवी परिहास की प्रवृत्ति संसार की सबसे बड़ी जीवन्त सुन्दरता है। यों प्रकृति की संरचना, ऋतुओं का परिवर्तन, चित्र-विचित्र वनस्पतियाँ और प्राणियों की विशेषताएँ स्वयमेव में ऐसी हैं कि मनुष्य उन्हें अपनी सौंदर्य दृष्टि से देखने पर मुग्ध होकर रह जाय।

यह कथन सही नहीं है कि उच्चस्तरीय व्यक्ति गम्भीर रहते हैं। इस गम्भीरता के पीछे भी उनके लक्ष्य विशेष का उत्साहवर्धक और आशाजनक सौंदर्य समाहित रहता है।


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