“भवानी शंकरौ वन्दे, श्रद्धा विश्वास रूपिणौ”

September 1985

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श्रद्धा मनुष्य जीवन के उन आधार-भूत सिद्धान्तों में से एक है जिससे वह पूर्ण विकास की ओर गमन करता है। श्रद्धा न हो तो मनुष्य साँसारिक सफलतायें प्राप्त करके भी आत्मिक सुख प्राप्त न कर सकेगा क्योंकि जिन गुणों से आध्यात्मिक सुख मिलता है उनकी पृष्ठभूमि श्रद्धा पर ही निर्भर है।

इसलिए मानसकार ने बताया है- ‘‘भवानी शंकरौ वन्दे श्रद्धा विश्वास रूपिणौ। याभ्यां बिना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तःस्थमीश्वरम्॥” (बालकाण्ड 2)

अर्थात्- शंकर विश्वास है तो भवानी श्रद्धा। दोनों की उपासना से ही सिद्धि या अंतःकरण में स्थित परमात्म देव के दर्शन सम्भव होते हैं।

शिवत्व अर्थात् जीवन के बुरे तत्वों का संहार-ईश्वर प्राप्ति का प्रमुख कारण है किन्तु शिव अकेला अपूर्ण है उसे उमा भी चाहिए। उमा अर्थात् गुणों का अभिवर्द्धन। शिव का अर्थ है असुरता का संहार और भवानी का अर्थ है भावनाओं का परिष्कार। शिव के रूप में विश्वास दृढ़ होता है, कठिन होता है पर भवानी के रूप में श्रद्धा सरल और सुखदायक होती है। अतः विश्वास जगाना हो तो श्रद्धा की शरण लेनी चाहिए। श्रद्धा साधना को सरल बना देती है, सुख रूप कर देती है।

श्रद्धा का समावेश मनुष्य के पारलौकिक जीवन को भी आनन्दमय बनाता है। मनुष्य मृत्यु से दुःखी इसलिए रहता है कि वह जानता है उस ओर अकेला जाना पड़ेगा। भय की, भूल की, अज्ञान की जड़ अकेलापन है। उससे सभी को दुःख मिलता है पर हृदय की श्रद्धा जीवित रहे तो अकेलापन भी नहीं अखरता। श्रद्धा स्वयं अन्तःकरण में आनन्द का उद्रेक करती है तो ऐसा आभास होता है कि हमारी प्रिय वस्तु हमारे बहुत समीप, अपनी कल्पना में ही ओत-प्रोत है। अपना अन्तर्देवता श्रद्धा के वश में है, वह आपकी इच्छाओं की पूर्ति अन्तःकरण में ही किया करता है। उससे मनुष्य को असीम तृप्ति मिलती है।

निर्जन का निवासी श्रद्धा भावना के द्वारा अनन्त से प्यार करता है, उसे जगाता है, चूमता है और उसके साथ घुल-घुल कर बातें करता है। अनन्त भी उसके सम्पूर्ण अपराध क्षमा कर अपनी गोदी में समेट लेता है। यह सुख श्रद्धा का सुख है यह सुख भावनाओं के परिष्कार का सुख है, इस सुख से आत्मज्ञान का सुख फलित होता है।

समाज में रहकर भोग की सारी परिस्थितियाँ मौजूद हों तो भी लोगों का सन्तुष्ट रह पाना सन्दिग्ध है। सुख किसी पदार्थ ने नहीं है वह तो आत्मा की किसी वस्तु में आरोपित कर देने का भाव मात्र है। मन में श्रद्धा हो तो हर उदासीन वस्तु भी अपने प्रेम का आनन्द का पात्र बन सकती है। दूर गये परिजनों के चित्र देखकर सुख अनुभव करते हैं, भगवान की मूर्ति का स्तवन कर पुलकित होते हैं इसमें अपनी श्रद्धा ही आधार है। श्रद्धा से पाषाण भी भगवान बन जाता है।

एक मनुष्य अपने घर से बहुत दूर देवी के दर्शन को गया। बहुत दिनों से दर्शनों की अभिलाषा थी। मन्दिर के द्वार पर पहुँचा तो प्रवासी का हृदय भर आया। साष्टाँग प्रणाम किया उसने और फूल-पत्र जो कुछ लाया था अर्पित कर दिये मूर्ति के सामने। मूर्ति को इस पर अभिमान हो गया। बोली मैं कितनी ऐश्वर्यवान हूं जो लोग दूर-दूर से आते और मुझे शीश झुकाते हैं।

आकाश यह सब देख रहा था। उसने कहा देवी! तुम्हारा वैभव धन्य है किन्तु इतना और जान लो कि मनुष्य पूजने नहीं आया। इनकी तो आदत है कि दूर जाकर ये अपनी श्रद्धा को पूजते हैं। इनकी श्रद्धा के कारण ही तू देवी है अन्यथा तेरा कलेवर तो पत्थर से बनी प्रतिमा मात्र है।

सचमुच श्रद्धा न होती तो मनुष्य, बड़ा शून्य, शुष्क, नीरस और उदास होता। तब उसकी स्वार्थ वृत्तियों पर कौन अंकुश लगाता, उसकी संकीर्णता को कौन रोकता। कामान्ध हो गया होता मनुष्य यदि वह भावनाशील न रहा होता। निचेष्ट हो जाता मानव, यदि उसके हृदय में श्रद्धा न होती। परमात्मा तो दूर वह अपने कुटुंबियों से, माता-पिता, बालकों से, भाइयों से, पत्नी आदि किसी से भी सहृदयता का व्यवहार न करता। श्रद्धा है इसलिए मनुष्य जीवित है, समाज जीवित है, परमात्मा जीवित है। वह लुप्त हो जाय तो क्या व्यक्ति और क्या समाज, मनुष्य सबको दबोच कर खा गया होता। पर बेचारा श्रद्धा का दास है उसी के सहारे जीवन की कठिनाइयों को झेलता रहता है। खुद भूखा, नंगा रहकर औरों का पालन करता है। कष्ट आप झेलता है, कमाता खुद है बाँट देता है सब को। समाज के प्रति उत्सर्ग की भावना न रही होती तो मनुष्य जीवन में आनन्द भी क्या शेष बचता? श्रद्धा है जो मनुष्य को बलिदान करना सिखाती है।

श्रद्धा का अर्थ है- आत्म-विश्वास। इस विश्वास के सहारे मनुष्य अभाव में, तंगी में, निर्धनता में कष्ट में, एकान्त में भी घबराता नहीं। जीवन के अन्धकार में श्रद्धा प्रकाश बनकर मार्गदर्शन करती है और मनुष्य को उस शाश्वत लक्ष्य से विलग नहीं होने देती। आत्मदेव के प्रति, ईश्वर के प्रति, जीवन लक्ष्य के प्रति हृदय में कितनी प्रबल जिज्ञासा है, जीवन की इस विशालता को जानना हो तो मनुष्य के अन्तःकरण की श्रद्धा को नापिये। यह वह दैवी मार्गदर्शन है जिसे प्राप्त कर साँसारिक बाधाओं का विरोध कर लेना सहज हो जाता है।

प्राचीन काल के गुरु, आचार्य धर्म तत्त्ववेत्ता सब शिष्य की श्रद्धा की गहराई की परख कर लेने के उपरान्त उन्हें ब्रह्म विधा का अधिकारी घोषित करते थे। जब तक शिष्य की श्रद्धा का आकार न समझ लिया जाता था तब तक उन पर गोपनीय साधनाओं और सिद्धान्तों को प्रकट न किया जाता था। श्रद्धावान् विद्यार्थी ही ज्ञान का, आत्म-दर्शन का महान लाभ प्राप्त करते थे।

ऐसे असंख्य वर्णन शास्त्रों में धर्म पुराणों में मिलते हैं। शिष्य सत्यकाम जाबालि, आरुणी, उपमन्यु, नचिकेता आदि ने अपनी उत्कट श्रद्धा के द्वारा अपने गुरुओं को द्रवीभूत किया और अल्प आयु में ही वह ज्ञान अर्जित कर सके जो कठिन साधनों से भी सम्भव न था। भक्त ध्रुव की अचल श्रद्धा के परिणाम स्वरूप देवर्षि को पृथ्वी पर आना पड़ा और कुमार का मार्ग-दर्शन करना पड़ा। अपनी उत्कृष्ट श्रद्धा से उसने परमात्मा को जीत लिया। ध्रुव ने नहीं उसकी श्रद्धा ने उसे पाँच वर्ष की आयु में ही पूर्णता की स्थिति को पहुँचा दिया।

अपनी श्रद्धा के कारण ही राजा दिलीप गुरु वशिष्ठ के विशेष कृपा पात्र बने थे। गुरु ने उन्हें एक ही कार्य सौंपा था कि वे उनकी गायें चराया करें। ऐश्वर्य और भोगों में पले हुये दिलीप और उनकी धर्म-पत्नी के लिये गौओं के पीछे जंगल-जंगल घूमना कम कठिन बात न थी। धूप उन्हें देखने को न मिली थी, काँटों से खेलना वे न जानते थे, बिना पदत्राण भला वे ऊँची-नीची विजन श्रृंखलाओं में कैसे घूम पाते? हिंसक पशुओं का सामना करना तो क्या महारानी उन्हें देख भी न सकती थीं किन्तु राज दम्पत्ति की श्रद्धा ने उनमें वह शक्ति भर दी कि दिलीप वन-वन घूमें, गायें चराईं शेरों से लड़े और शूलों से जूझे। गुरु शिष्य की श्रद्धा के समक्ष परास्त हो गये और उन्हें राजा का अभीष्ट पूरा करना ही पड़ा।

यह श्रद्धा ईश्वर प्राप्ति या पूर्णता के लिये ही आवश्यक नहीं वरन् वह अपने लोगों पर आत्म-भाव, धर्म और संस्कृति के प्रति प्रेम, राष्ट्र और जाति के प्रति कर्तव्यनिष्ठा का भी पाठ सिखाती है। मनुष्य जिस सामूहिकता में बंधा हुआ है उसका जीवन और प्राण भी श्रद्धा ही है।

श्रद्धा मनुष्य के सर्वतोन्मुखी विकास का आधार है अतः मनुष्य जीवन में श्रद्धा उद्देश्य बनकर रहनी चाहिये। श्रद्धा ही मनुष्य जीवन का आदर्श होना चाहिये। श्रद्धा का अर्थ है आत्मविश्वास और आत्म विश्वास का अर्थ है ईश्वर विश्वास। श्रद्धा आस्तिकता की धुरी है।


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