तर्क पर भावना का अंकुश अनिवार्य

September 1985

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छोटा बच्चा जब चलना सीखता है तब उसके लिए तीन पहिये के उस ढकोसले की आवश्यकता पड़ती है और तब उसे ‘गाड़ी’ शब्द से भी सम्बोधन करते हैं। पर बड़े होने पर, उसे गाड़ी मानना कठिन है, क्योंकि तब परिभाषा बदल गई होती है और गाड़ी का अर्थ उस वाहन से लिया जाता है जो अपने ढाँचे में सवारियों को बिठाकर उसे सही दिशा में आराम के साथ ले जा सके, मनुष्य को उसे खींचने का कष्ट न सहना पड़े।

तर्क बुद्धि बच्चों की तिपहिया गाड़ी की तरह है जो तथ्यों का पता लगाने में सहायक होते हैं। जब तक बच्चा दौड़ने योग्य न हो जाय तभी तक उसकी उपयोगिता रहती है। किन्तु उस पर निर्भर रहकर सत्य तक पहुँच सकना अत्यन्त कठिन है।

तर्क की शक्ति संसार के बुरे से बुरे काम को अच्छा सिद्ध करने में ऐड़ी से चोटी तक का पसीना लगा सकती है और अपनी जादूगरी इस प्रकार दिखा सकती है जिससे सामान्य बुद्धि वयस्क बालक उसका लोहा मानने लगे और वैसा ही अनुभव करने लगे जैसे कि तार्किक ने बाजीगर की सफाई की तरह कुछ के स्थान पर कुछ दिखा दिया हो।

कोई उच्चस्तरीय सिद्धान्त ऐसा नहीं है जिसे झुठलाने के लिए अपने तर्क और अनेक उदाहरण प्रस्तुत न किये जा सकें। संसार में इतने मत, वाद, सम्प्रदाय इसी कारण उगे और प्रतियोगिता में अपने को श्रेष्ठ सिद्ध करने में लगे रहे हैं। पर यह कहना कठिन है कि उस घुड़-दौड़ में दर्शकों का क्या हित साधन हुआ? कई बार उस प्रतिस्पर्धा में कइयों को घातक चोट भी लगती देखी गई है।

तर्क बुद्धि की उपयोगिता और आवश्यकता समझते हुए भी उसे खिलाड़ियों की गेंद कहा जा सकता है जो कभी इस मैदान में चली जाती है कभी उसमें। ठोकर मारकर उसे समर्थ खिलाड़ी बहुत दूर तक फेंक सकता है और बहुत ऊँची उछाल सकता है।

तर्क बुद्धि अपने पक्ष के सबूत ढूंढ़ने और प्रस्तुत करने में भी चतुर वकीलों की तरह अपनी कलाबाजी दिखाती है। झूठे को सच्चा और सच्चे को झूठा सिद्ध करने में पक्ष विपक्ष के वकील कैसी कुशलता दिखाते और कैसे सबूत जुटाते हैं कि चकित रह जाना पड़ता है। वे कानूनों में दिये हुए शब्दों को भी इस प्रकार खींच-तान करते हैं ताकि उनका वह मुवक्किल जीते जिसने भरपूर फीस देकर कुतर्क बुद्धि को अपना पक्ष समर्थन देने के लिए खरीदा है।

तर्क सुन्दर, सुडौल और आकर्षक लगते हुए भी उस नर्तकी की भाँति है जो किसी भी भरी जेब वाले की गोदी में बैठ सकती है और प्रेमालाप से मुग्ध कर सकती है। ऐसे तर्क के सहारे साँसारिक प्रयोजनों में कदाचित कुछ काम भी चले। पर आदर्शों के समर्थन में उनकी सहायता नहीं के बराबर ही मिलती है। यदि ऐसा न होता तो सभी बुद्धिवादी उच्चस्तरीय आध्यात्मिक जीवन जी रहे होते।

मानवी गरिमा के क्षेत्र में केवल भावनाएँ ही काम देती हैं। बुद्धि मस्तिष्क की उपज है और भावना अन्तराल की अनुभूति जिसे आत्म-प्रेरणा अथवा दैवी संदेश कहते हैं।

आदर्शवादिता और व्यवहार कुशलता में प्रत्यक्ष ही भारी अन्तर है। आदर्शों के पक्ष में तर्क बुद्धि नगण्य ही सहयोग देती है। उसे प्रत्यक्ष लाभ की कसौटी पर अनुपयुक्त सिद्ध करती है। देश भक्ति, समाज सेवा, चरित्र गठन, सादगी, संयम, त्याग, परमार्थ, दया, सेवा आदि की उपयोगिता तर्क बुद्धि से सिद्ध नहीं होती। इनमें तात्कालिक घाटा पड़ने की बात भली प्रकार कही जा सकती है। यदि उपरोक्त आदर्शों को अपनाना और उनका पक्ष समर्थन कराना हो ता दूरदर्शी विवेकशीलता की आवश्यकता पड़ेगी और महामानवों के उदाहरण इतिहास के पृष्ठों पर जहाँ-तहां ही अंकित पाये जा सकते हैं।

मनुष्य प्रत्यक्षवादी है। छोटे बालकों की तरह उसे तात्कालिक लाभ से रुचि होती है। भावी परिणाम सोचकर कदम उठाने की क्षमता तो अनुभवी प्रौढ़ावस्था में विकसित होती है। अपराधी प्रवृत्ति के लोग मनोवैज्ञानिक दृष्टि से बाल बुद्धि वालों में ही गिने जा सकते हैं। वे तात्कालिक लाभ के लिए नशेबाजों और अन्य दुर्व्यसनियों की तरह भविष्य को अन्धकार पूर्ण बना लेते हैं।

तर्क अर्थात् प्रत्यक्ष लाभ का समर्थन। यदि इस मानसिक कौशल को अवसर मिले तो वह उन कुकर्मों का ही समर्थन करेगा जिनसे अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए असंख्य निर्दोषों का हनन या शोषण किया जाता है। संसार के आततायियों में से अधिकाँश को प्रत्यक्षवाद की दृष्टि में चतुर ही कहा जा सकता है। जेलों में लम्बी अवधि की सजा पाने वालों और मृत्युदण्ड सहने वालों में अधिकतर इतने चतुर व्यक्ति ही होते हैं जिनके कौशल पर दांतों तले उँगली दबाई जा सके। राजनैतिक प्रतिशोध में बन्दी बने लोगों को छोड़कर अपराधों में सजा पाने वाले प्रायः ऐसे ही चतुर तर्क वादी होते हैं। जो न जाने कितनों का घात कर चुके होते हैं।

तर्क बुद्धि एक प्रकार की सम्पदा है। उसके बदले बाजार में जाकर हम भला-बुरा कुछ भी खरीद सकते हैं। किन्तु भावनाओं के सम्बन्ध में यह बात नहीं कही जा सकती। वे माता की तरह अपने आँचल में बैठने वाले शिशुओं का मात्र कल्याण ही सोच सकती हैं। उन्हें वही परामर्श दे सकती हैं जिन्हें अपनाने पर सुखी और समुन्नत कहा जा सके।

हाथी तभी तक उपयोगी है जब तक कि उसकी गरदन पर महावत बैठा और अंकुश का प्रयोग करता है। यदि यह नियन्त्रण हट जाय तो वह मनचाहे मार्ग पर चलकर मनमाने कृत्य करेगा और सुविधा बढ़ाने के स्थान पर बर्बादी के भयंकर सरंजाम रचेगा। इसलिए जिनके पास विलक्षण बुद्धि है, उन्हें विशेष रूप से आदर्शों का अनुबन्ध पालन करने के लिए कहा जाता है। अन्यथा वह अपना ही नहीं प्रभावित होने वाले असंख्य व्यक्तियों का विनाश कर सकती है।

प्रेत पिशाचों में एक बहुत ही डरावनी किस्म है- “ब्रह्म राक्षस”। अपनी बिरादरी वालों में वे सबसे अधिक विनाशकारी माने जाते हैं। आवश्यक नहीं कि मरने के पश्चात ही इस योनि में जाना पड़े। असंख्य व्यक्ति जीवित होते हुए भी इसी स्तर के ताने-बाने बुनते हैं जो बाहर से अच्छे-भले दिखते हुए भी अपनी पृष्ठभूमि में छल, दम्भ, पाखण्ड, शोषण, उत्पीड़न के अनेकानेक जाल बिछाये हुए हैं। मछुआरों की कमी नहीं, चिड़ी मार भी बहुत हैं, शिकारियों और कसाइयों को अपने समुदाय को बड़प्पन की डींग हाँकने का अवसर मिलता है। बाजीगर भी दर्शकों को मूर्ख बनाकर अपनी चतुरता पर गर्व करते हैं। इसी प्रकार तर्क बुद्धि का-उच्च शिक्षा एवं कुशलता का उपयोग आदर्शों के विपरीत प्रयोग करने वाले ही होते हैं। पुराने जमाने में उन्हें ‘ब्रह्म राक्षस’ कहा जाता था पर अब कोई ऐसा नाम ढूंढ़ना पड़ेगा जिससे उनकी तर्क बुद्धि और सम्पदा को समयोचित सम्मान दिया जा सके। कारण कि इसी समुदाय का आज बाहुल्य सर्वत्र बढ़ता दिखता है।


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