आत्मबोध का प्रथम सोपान “सोहम्” साधना

September 1985

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मनुष्य अपने वास्तविक स्वरूप को भूल जाता है और वातावरण में इतना अधिक रम जाता है कि उसे अपने पराये का कुछ बोध नहीं रहता। छोटा बालक जहाँ भी आकर्षण देखता है वहीं का हो रहता है यहाँ तक कि अपने माता-पिता तक की याद नहीं करता और खेल-खिलौनों में ही पूरी तरह तन्मय हो जाता है। बड़ी आयु के लोग भी प्रायः यही गलती करते रहते हैं। अपने आपे के स्वरूप को समझने की भूल करते रहते हैं और शरीर आवरण उसकी साज-सज्जा, व्यवसाय तथा स्वजन सम्बन्धियों में इतने अधिक तल्लीन हो जाते हैं कि वे ही सर्वस्व प्रतीत होने लगते हैं फलतः जो कुछ भी सोचना करना होता है, वह इस आवरण क्षेत्र से ही सम्बन्धित रहता है। बहुमूल्य जीवन सम्पदा इसी खेल-खिलवाड़ में खप जाती है।

होना यह चाहिए कि अपने उस वास्तविक स्वरूप को समझने, उसकी अनुभूति करने की चेष्टा की जाती है जो शरीर आवरण के भीतर प्राण तत्व के रूप में गतिशील रहता है। उनके निकल जाते ही यह सुन्दर शरीर देखते-देखते कुरूप, मलीन और अस्पर्श्य हो जाता है। सम्बन्धियों को उसे जल्दी ठिकाने लगाने के लिए दौड़−धूप करनी पड़ती है। विलम्ब किया जाय तो वह स्वयमेव सड़ने लगता है। अपने भीतर से कृमि उत्पन्न कर लेता है जो उसे खाकर समाप्त कर दें। अथवा गिद्ध, चील, श्रृंगाल, कूकर गंध पाते ही उसका अस्तित्व मिटा देने के लिए आतुरता पूर्वक दौड़ पड़ते हैं।

इस आवरण के भीतर विद्यमान आत्मा ही मनुष्य का वास्तविक रूप है। हित साधन की दृष्टि से उसी को प्रमुखता दी जानी चाहिए। जीवन लक्ष्य की पूर्ति इसी आधार पर बन पड़ती है। काया तो एक छाया की तरह है। इसे तो इन्द्रिय लिप्साओं और मानसिक तृष्णाओं की पूर्ति का ही जुनून सवार रहता है। आमतौर से यह तथ्य विस्मृत ही हो जाता है कि अपना वास्तविक हित किसमें है? यों इस संदर्भ में धर्म शास्त्रों और आप्त वचनों में सर्वाधिक जोर इसी एक बात पर दिया जाता रहता है कि “अपने को जानो”। “मैं कौन हूँ यह समझो।”

धर्मोपदेशकों की तरह अध्यात्म क्षेत्र में रुचि रखने वाले भी मोटेतौर से यह जानते रहते हैं कि वे “आत्मा” हैं। पर इस मोटी जानकारी से कुछ काम नहीं चलता यह तोता रटन सर्वथा अपर्याप्त है। इसकी गहन अनुभूति होनी चाहिए और इस मान्यता को परिपक्व होना चाहिए कि शरीर और आत्मा सर्वथा भिन्न है। दोनों के बीच सवार-सवारी जैसा, मिस्त्री उपकरण जैसा सम्बन्ध है। दोनों के स्वार्थ भी पृथक्-पृथक हैं। शरीर स्वार्थ का समर्थक है। उसे विलास, वैभव और सम्मान चाहिए। पर आत्मा के ऊपर इन तीनों सम्पदाओं का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इन्हें तो शरीर ही भोगता है। और आश्चर्य यह भी है कि उसकी तृप्ति भी क्षणिक होती है। विलास वैभव हस्तगत हुआ नहीं कि उसके प्रति उत्साह समाप्त हुआ नहीं। फिर नई वस्तु की नये स्वाद की तलाश आरम्भ हो जाती है इसी प्रकार अतृप्त अशांत स्थिति में ही सर्व समर्थ समझे जाने वाले लोगों का जीवन काल भी व्यतीत हो जाता है।

वह मिल ही नहीं पाता, जिसके लिए मानव जीवन के रूप में भगवान की यह सर्वश्रेष्ठ कलाकृति हस्तगत हुई थी। आत्म-कल्याण के प्रयत्न या तो हो ही नहीं पाते या बहुत ही उथले स्तर के होते हैं। कुछ शब्दों की पुनरावृत्ति करते रहने या पूजा-पत्री का बाल क्रीड़ा जैसी उठक-पटक कर लेने पर से चिन्ह पूजा भले ही निभ जाती हो। पर वह आत्मबोध नहीं हो पाता जो शरीर आत्मा की पृथकता अनुभव करने पर होता है। यह स्पष्ट हो जाता है कि सारा चिन्तन और क्रिया-कलाप शरीर सुख के लिए ही नियोजित न रहे उसमें आत्म-कल्याण के लिए भी समुचित स्थान रहे। ऐसी उमंगें उठने लगें तो समझना चाहिए कि ‘आत्मबोध’ हुआ और आत्म-कल्याण का द्वार खुला। जब तक कानों से सुनने, जीभ से कहने और हाथों से वस्तुओं की उलट-पुलट को ही अध्यात्म साधना समझा और उतने भर से ही सन्तोष किया जाता हो, तब तक यही समझना चाहिए कि अभी मन बाल-क्रीड़ाओं में रम भर रहा है।

आत्मा और शरीर के स्वार्थ पृथक-पृथक हैं। आत्मा के स्वार्थ को परमार्थ कहते हैं। इसे करने के लिए शरीरगत लिप्साओं को मर्यादा में रखना पड़ता है ताकि उसके निर्वाह के लिए वस्तुतः जो नितान्त आवश्यक है, उतना ही उपलब्ध कराया जाय। वितृष्णाओं से बचा जाय। इतना बन पड़ने के उपरान्त ही यह बन पड़ता है कि आत्मा की पृथकता और महत्ता अनुभव की जाय और उसके उत्कर्ष के लिए ऐसा कुछ किया जाय जो परमार्थ प्रयोजनों की पूर्ति के लिए उत्साह उमगता है। यही सघन अनुभूति आत्म-कल्याण के लिए जो आवश्यक और महत्वपूर्ण है उसे करने के लिए दबाव भरी अन्तःप्रेरणा उभारती है।

इन्हीं तत्वों को ध्यान में रखते हुए “आत्म-बोध” को आत्मिक प्रगति का प्रथम सोपान कहा गया है। इसके निमित्त प्रत्यक्ष क्रिया-कृत्यों में ‘सोहम्’ साधना को उच्चस्तरीय महत्व दिया गया है। इसके अतिरिक्त भी अन्य साधनाएँ चलती रहें पर प्रमुखता इसी आत्म बोध की साधना को दी जानी चाहिए।

साँस खींचते समय “सो” की, रोकते समय “अ” की और निकालते समय “हम्” की सूक्ष्म ध्वनि को सुनने का प्रयास करना ही सोऽहम् साधना है। इसे किसी भी स्थिति में-किसी भी समय किया जा सकता है। जब भी अवकाश हो, जितना भी हो, उतनी ही देर उस अभ्यास क्रम को चलाया जा सकता है। यों शुद्ध शरीर, शान्त मन और एकान्त स्थान और कोलाहल रहित वातावरण में कोई भी साधना करने पर उसका प्रतिफल अधिक श्रेयस्कर होता है, अधिक सफल रहता है।

साँस निरन्तर चलती रहती है। उसमें वायु के साथ-साथ प्राण तत्व का आवागमन भी चलता रहता है “सोहम्” ध्वनि इस प्राण तत्व के वायु के साथ घर्षण होने के साथ उत्पन्न होती है। इसलिए इस साधना में शरीर और आत्मा दोनों की सत्ता अनुभव करते हुए उनके स्तर के अनुरूप महत्व देने, तद्नुसार जीवनक्रम का निर्धारण करने वाला विवेक जागृत होता है।

“सोऽहम्” साधना जितनी सरल है, बन्धन रहित है, उतनी ही महत्वपूर्ण भी है। “सोऽहम्” का अर्थ है- ‘‘मैं वह हूं” “ॐ” अर्थात् ‘आत्मा’। ‘वह’ अर्थात् परमात्मा। यह आत्मा और परमात्मा का समन्वय है। शरीर और प्राण का भी। द्विधा का बोध होने पर आपकी हैसियत के अनुरूप प्रमुखता देने और आवश्यकता के अनुरूप साधन जुटाने का सन्तुलन बिठाने के लिए योजनाबद्ध कार्य पद्धति अपनाना आवश्यक हो जाता है। यह स्थिति अन्तःक्षेत्र में विनिर्मित हो रही हो तो समझना चाहिए कि, साधना मात्र कर्मकाण्ड नहीं रही वरन् उसका प्रभाव अन्तराल की गहराई तक पहुँचने और ज्योतिर्मय होने लगा।

इस स्थिति में आत्म-कल्याण के उभयपक्षीय कार्यक्रम अपनाने पड़ते हैं। शरीर कल्याण के लिए संयम और पुरुषार्थ। आत्म-कल्याण के लिए अपनी सीमा को संकीर्ण परिधि से आगे बढ़ाकर विश्वव्यापी बनाना और सृष्टि को अधिक सुन्दर समुन्नत बनाने के प्रयास में जुट जाना। इन्हीं प्रयासों के चल पड़ने पर जाना जा सकता है “सोऽहम्” साधना परिपक्व और फलवती हो चली।


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