अन्तः का परिमार्जन-परिष्कार

September 1985

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अन्धकार का निराकरण अथवा प्रकाश का प्रज्वलन दोनों एक ही बात हैं। कहने का ढंग भर अलग है। अस्वस्थता का निवारण अथवा आरोग्य का संवर्धन यह कहने की शैली भिन्नता भर है। दरिद्रता का समापन एवं सम्पन्नता का आगमन यह देखने सुनने में ही दो बातें प्रतीत होती हैं पर वस्तुतः हैं एक ही।

आत्मा स्वयं पवित्र है। ईश्वर का अविनाशी अंश होने के कारण उनमें तत्त्वतः अपवित्रता जैसी कोई वस्तु है नहीं। इस संसार के वातावरण में आच्छादित अवांछनीयता ही जब उसके ऊपर आवरण डाल लेती है तभी उसमें कुरूपता दृष्टिगोचर होने लगती है। सूर्य चन्द्र के ऊपर ग्रहण लगने या बदली कुहरा छा जाले से उनकी छवि धूमिल हो जाती है। पर मूलतः सूर्य चन्द्र वैसे हैं नहीं आवरण हटते ही वे अपने मूल रूप में प्रकाशवान दिखने लगते हैं।

मनुष्य में अनेकों अभाव एवं विकार दिखते हैं। यह उसके ऊपर किसी ने थोपे नहीं हैं। यह अनाचरण एवं भटकाव की प्रतिक्रिया मात्र है। यदि इस संकट एवं झंझट से उबरा जा सके तो उस आनन्द की प्राप्ति के लिए कुछ अलग से अतिरिक्त प्रयास करना नहीं पड़ता।

असंयम न बरता जाय तो दुर्बलता, रुग्णता के कुचक्र में फँसने जैसी कोई बात है नहीं। सृष्टि के समस्त प्राणी जन्मते मरते तो हैं पर बीच में रुग्णता के जाल में नहीं फँसते। यदि रोग स्वाभाविक रहे होते तो समुद्र के जल चर-वन्य पशु एवं घोंसलों में रहने वाले पक्षियों को आधि-व्याधियों से घिरा देखा जाता और उन सबके लिए डाक्टरों की, अस्पतालों की भी सृष्टा को व्यवस्था करनी पड़ती। मनुष्य जैसे बुद्धिमान प्राणी को अस्वस्थता घेरती नहीं। वह उन्हें असंयम की कुकर्म पत्री भेजकर आग्रह पूर्वक न्यौत बुलाता है। यदि बिगाड़ को सुधार लिया जाय तो मनुष्य पूर्णायुष्य प्राप्त करे और रुग्णता से कराहते दुर्दिनों में समय न गुजारे।

हँसने की कला केवल मनुष्य के हिस्से में आई है। सौंदर्य बोध केवल उसी को हो सकता है। सहकारिता का कौशल हर किसी को आता है। मनःक्षेत्र का सन्तुलन बनाये रखकर वह हर परिस्थिति के साथ तालमेल बिठा सकता है और हर घड़ी हँसती-हँसाती जिन्दगी जी सकता है। यह सारे उपहार उसे जन्मजात रूप में मिले हैं। इतने पर भी यदि किसी को कुढ़ता-कुढ़ाता, रोता-रुलाता, डरता-डराता देखा जाय तो समझना चाहिए कि अत्यन्त मूल्यवान मानस तन्त्र प्राप्त करने का सुयोग होते हुए भी, उसे उसका प्रयोग करना नहीं आया। अनाड़ी ड्राइवर कीमती मोटर को भी किसी पेड़ से टकराते और खड्ड में धकेलने की दुर्घटना करते देखे गये हैं। इन वाहनों की बनावट को दोष देना व्यर्थ है। सड़क को कोसने से भी लाभ नहीं। गलती ड्राइवर की ही दुर्घटनाओं में होती है।

परिवार हर मनुष्य को मिला हुआ एक छोटे नन्दन वन जैसा सुरम्य उद्यान है। उसके बीच रहकर आनन्दित, उल्लसित, गदगद और प्रगतिशील परिस्थितियों में रहा जाता है। इस स्थिति में व्यवधान क्या पड़ता है- बचपन की सौम्य सात्विकता और भोलेपन का प्रकृति प्रदत्त सुषमा गँवा देने से। चिड़ियां अपने अण्डे बच्चों वाले घोंसले में कलोल करती है तो हम परिवार की मधुरता, मृदुलता क्यों गँवा देते हैं? माता वात्सल्य, पत्नी का समर्पण, भाई-बहिनों का साहचर्य, बच्चों की खिलौनों जैसी शोभा यदि हमें उल्लसित नहीं कर पाती, तो समझना चाहिए कि अपने अन्तराल के स्नेह स्रोत सूख गये।

मनुष्य दरिद्र क्यों होता है? हाथी और गैंडे जैसे बहुत खाने वालो के लिए भरपेट भोजन सदा उपलब्ध होता रहता है फिर दो मुट्ठी अनाज खाने वाले और दस गज कपड़ा लपेटने वाले के दस अंगुलियां वाले दो अतिरिक्त हाथ क्यों उसका पेट नहीं भर पाते? क्यों वह अभाव ग्रस्त, दरिद्र रहता है? इसमें आवश्यकता से असंख्य गुनी चाहना पीठ पर लादे फिरना ही एकमात्र कारण है। तृष्णा एक आग है जो निरन्तर ईंधन डालते रहने पर भी बुझती नहीं, वरन अधिकाधिक प्रदीप्त होती जाती है। ऐसे ही निरर्थक जाल जंजाल है, जिन में मनुष्य निरन्तर मकड़ी के जाले की तरह स्वयं ही बुनता और स्वयं ही फँसता रहता है। रेशम के कीड़े को कोटों में कौन बन्द करता है? मेंढक को कुएं में कौन पकड़कर लाता और धकेलता है। मनुष्य अभागा स्वयं ही अपनी हथकड़ी बेड़ी कसता और बन्दी गृह में ताला डालकर चाबी जेब में डाले फिरता है। कहता है कोई इसमें से छुड़ाये तो बड़ा अनुग्रह हो।

कमरा रोज झाड़ना पड़ता है। पहनने वाले कपड़े रोज धोने पड़ते हैं। दाँत माँजने की नित्य आवश्यकता पड़ती है। स्नान भी दैनिक कृत्य है। इस वातावरण में गन्दगी चारों ओर उड़ती रहती है। वह बिना प्रयत्न के ही सर्वत्र जमती रहती है। यदि इसे नित्य न धोया बुहारा जाय तो कुछ ही समय में गन्दगी के ढेर लग जायेंगे। यह सफाई ही साधना है। वातावरण में सत् कम है और असत् बहुत। अर्थ कम है अनर्थ बहुत। इसलिए यह सतर्कता बरतनी पड़ती है कि अशुभ का अनावश्यक आच्छादन अपने शुभ को आच्छादित न करले। इस सतर्कता का नाम ही साधना है।

ईश्वर को किसी की प्रशंसा, स्तुति, मनुहार नहीं चाहिए। उसकी समग्र प्रशंसा कोई कर भी नहीं सकता। समुद्र में एक चुल्लू डाल देने से उसकी क्या तो अभिवृद्धि होगी और क्या प्रसन्नता। इसी प्रकार भेंट उपकार का कोई कुछ अनुदान प्रस्तुत करे। पंचोपचार, षोडशोपचार के अनुरूप धूप, दीप, पुष्प, चन्दन, अक्षत आदि समर्पित करें तो उसे पाकर भगवान कैसे समझें कि यह बड़ी अनुकम्पा कर रहा है और भक्ति-भाव का परिचय दे रहा है। प्रत्याहार, ध्यान, धारणा और समाधि को मानसिक व्यायाम कहा जा सकता है। उसके सहारे मन की एकाग्रता एवं इच्छा शक्ति की अभिवृद्धि हो सकती है। इसलिए इन्हें भी दण्ड-बैठक, कुश्ती, कबड्डी जैसे शारीरिक व्यायाम समतुल्य माना जा सकता है। इन्हें कैसे माना जाय कि आत्मबल बढ़ाने में वे सहायक हो सकते हैं और पवित्रता एवं प्रखरता बढ़ा सकते हैं।

स्वाध्याय, सत्संग, चिन्तन, मनन, कथा-कीर्तन आदि के सहारे जीवनचर्या में सतोगुण बढ़ाने का मार्ग-दर्शन मिलता है। पर उसका कहना सुनना ही पर्याप्त नहीं। उस राह पर चलना भी तो चाहिए। इसके लिए आवश्यक है कि हमारे चिन्तन और चरित्र का प्रवाह निरन्तर उत्कृष्टता के मार्ग पर चले। आचरण में अधिकाधिक आदर्शवादिता और पुण्य परमार्थ की गतिविधियों का समावेश बढ़े। यह दिन भर में घंटे आध घंटे की चिन्ह पूजा नहीं है। उस मार्ग पर निरन्तर चला जाना चाहिए। भूल न होने पाये- कुसंस्कारों का आक्रमण चढ़ न दौड़े, इसका निरीक्षण परीक्षण हर घड़ी चलना चाहिए। साधना इसी का नाम है। इसमें अपने आपको साधा जाता है। ईश्वर को लुभाने या उसके सम्मुख चित्र-विचित्र क्रिया कृत्य करने की तनिक भी आवश्यकता नहीं। परब्रह्म इस निखिल ब्रह्मांड के सुचारु रूप से संचालन में निमग्न है। उसे किसी भक्त पर पुष्प वर्षा करने- दौलत के थैले भेजने या वरदान अनुदान देने की न तो आवश्यकता अनुभव होती है और न ही इच्छा उठती है। वह स्वयं जिस प्रकार नियमबद्ध होकर कार्यरत रहता है उसी प्रकार अपने अनुयायियों से भी आशा करता है कि वे निर्धारित अनुशासन का पालन करेंगे।

उच्च पद की उपलब्धि के लिए आवश्यक योग्यता अर्जित करने और परीक्षा प्रतियोगिता में खरा सिद्ध होने की आवश्यकता पड़ती है। इससे कम में काम चलने वाला नहीं है। परीक्षक अथवा नियुक्ति कर्ता की प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष पूजा-अर्चा करने से योग्यता सिद्ध करने की अनिवार्यता से बचा नहीं जा सकता। ईश्वर का कई बार नाम लेने भर से किसी की भी भक्ति प्रामाणिक नहीं मानी जा सकती। ईश्वर के दरबार में चापलूसी या भेंट पूजा की मनुहार करने मात्र से अपना उल्लू सिद्ध कर लेने में आज तक किसी को भी सफलता नहीं मिली है। फिर सस्ता रास्ता ढूंढ़ निकालने की प्रवंचना में हमीं क्या अपना समय बर्बाद करें।

मल-मूत्र में सना हुआ बच्चा माता की गोद में चढ़ने, दूध पीने के लिए चाहे कितना ही क्यों न मचल रहा हो पर वह असीम प्यार करने पर भी तब तक उसे दूर ही रखती है जब तक धो पोंछकर उसे भली प्रकार साफ सुथरा नहीं कर लेती। भगवान की भी रीति-नीति यही है। उनके भक्त को उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श चरित्र का परिचय देना चाहिए। इसमें अनाचार से हाथ खींचना पड़ता है। लोगों को यह कठिन प्रतीत होता है। सरल यह लगता है कि अनाचार से मिलने वाले लाभों को दोनों हाथों से समेटते रहें और पूजा-पाठ की चित्र−विचित्र चिन्ह पूजा करके भगवान को भी बहकाते फुसलाते रहें। दोनों हाथ लड्डू भरे रहने की यह विडम्बना मात्र मन को बहकाने भर के काम आती है। ईश्वर भक्तों को वाल्मीकि, विल्व मंगल, अंगुलिमाल, अम्बपाली की तरह अपनी जीवनधारा बदलनी पड़ती है। भागीरथ, हरिश्चन्द्र और दधीचि की तरह सत्प्रयोजनों के लिए बढ़-चढ़कर त्याग बलिदान की आवश्यकता अनुभव करने पड़ती है। सो भी ऐसा त्याग बलिदान नहीं, जिसकी परिधि का कष्ट और कर्मकाण्डों की सीमा तक अवरुद्ध होकर रह गयी हो।

वासना, तृष्णा और अहंता से हमारे तीनों शरीर मलीन होते हैं। वासना स्थूल शरीर को, तृष्णा सूक्ष्म शरीर को और अहंता कारण शरीर को हेय बनाती है। इन मलीनताओं का परिशोध करना ही साधना का उद्देश्य है। जो इस सही मार्ग पर चलते हैं वे अध्यात्म साधना के अनुरूप ऋद्धि-सिद्धियों से भरा-पूरा सत्परिणाम भी प्राप्त करते हैं।


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