प्रज्ञा पुराण के चार खण्ड प्रकाशित

September 1985

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प्रज्ञा पुराण के प्रथम खण्ड को प्रकाशित हुए अभी पूरे पाँच वर्ष नहीं हुए कि उसके हिन्दी और गुजराती के सात संस्करण प्रकाशित हो गये। उसकी लोकप्रियता इसी से सिद्ध है कि सभी सम्प्रदायों व धर्मक्षेत्र के प्रवक्ताओं में से अधिकाँश ने इस पुराण में वर्णित कथाओं का अपने प्रवचनों में समावेश करना आरम्भ कर दिया है।

प्रज्ञोपनिषद के प्रथम खण्ड से गुँथी कथाओं में से बहुत कम ऐसी थीं कि जिनकी जानकारी पहले से ही उपलब्ध थी। उसका अधिकाँश भाग ऐसा है जिसे अविदित ही नहीं उद्देश्यपूर्ण एवं प्रेरणाप्रद कहा जा सकता है। इसलिए प्रवंचना को सुबोध और सरस बनाने के लिए इनका उपयोग करना हर वर्ग के लोगों को भाया और उनका भरपूर उपयोग किया। इन दृष्टान्तों का उपयोग जितना गायत्री परिवार में हुआ है उससे कहीं अधिक उन लोगों में हुआ है जो कि किसी भी धर्म सम्प्रदाय से सम्बन्ध रखते हैं और धर्मोपदेशकों की भूमिका निभाते हैं।

अपनी प्रतिज्ञानुसार हम हर वर्ष प्रज्ञा पुराण का एक खण्ड लिखते और प्रकाशित करने के लिए बाधित थे। उसे कहां तक और कब तक निभाया जा सकेगा। कुछ कहा नहीं जा सकता है। क्योंकि हमारे कार्यकाल पर आगे विराम लगने की सम्भावना है।

प्रज्ञापुराण का एक खण्ड प्रकाशित करने के उपरान्त अभी इतना ही बन पड़ा है कि नये तीन खंडों का और नया सृजन कर सकें। सो दैवी सत्ता के अनुग्रह से पूरा हो गया। अब द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ प्रज्ञापुराण के खण्ड एक साथ प्रकाशित किये जा रहे हैं। लिखे तो वे पिछले वर्षों में धीरे-धीरे जाते रहे हैं।

इन खण्डों में जो-जो कथाएँ हैं वे भी प्रथम खण्ड से कम रोचक सुबोध, सिद्धांत युक्त नहीं हैं। वे सभी ऐसी हैं जो आज की समस्याओं को पुरातन काल के समाधानों के साथ उपयुक्त तालमेल बिठाती हैं। विज्ञ पाठक सहज ही यह अनुमान लगा सकते हैं कि अठारहों पुराणों के पुरातन प्रयास में से सभी कथाओं का स्मरण रखना कठिन था। इसलिए उनका नये सिरे से अवगाहन करना पड़ा। इतना ही नहीं उसके लिए अन्य धर्मों की जितनी जानकारी मिल सकी उसमें से भी उपयोगी प्रसंग इसी प्रकार ढूँढ़े गये जिस प्रकार कि हिन्दू धर्म के विशाल कथा साहित्य को समुद्र मानकर उसमें से उपयोगी मणिमुक्तक निकाले गये। चयन करते समय इस बात का पूरा ध्यान रखा गया है कि वे प्रतिगामिता का समर्थन न करें। प्रगतिशीलता का मार्गदर्शन करें। पुरातन कथानकों में तत्कालीन परिस्थितियों के अनुरूप ऐसा कथनोपकथन भी कम नहीं है जो आज की परिस्थितियों से तनिक भी तालमेल नहीं खाता। परिष्कृत बुद्धिवाद मान्यता प्राप्त, नीति शास्त्र के अनुरूप नहीं बैठता। उस सबको भी बटोर लिया जाता तो हर महीने एक पुराण बन सकता था, पर समय की स्थिति ओर आवश्यकता को देखते हुए, अनेक कसौटियों पर कसने के उपरान्त जो कथानक खरे बैठे हैं उनका ही इनमें संकलन किया गया है।

इस ग्रंथ की एक और विशेषता है कि श्लोकों में मात्र सिद्धान्तों का प्रतिपादन है और उनकी पुष्टि में कथानक जोड़े गये हैं। श्लोकों में कथानकों का वर्णन नहीं है। इस दृष्टि से यदि प्रस्तुत श्लोकों और उनके अर्थों को ही पढ़ा जाय तो वह युगगीता या प्रज्ञा उपनिषद् बन जाती है। आज की परिस्थितियों में शालीनता भरा जीवन जीने के लिए जिस उत्कृष्ट चिन्तन, आदर्श चरित्र एवं सज्जनोचित व्यवहार की आवश्यकता है उन्हीं को श्लोकों में समाविष्ट किया गया है। इस दृष्टि से उस भाग की प्रगतिशीलता का समर्थक एक शास्त्र सोचा जा सकता है। कथानकों में तो उन सिद्धान्तों का सरस समर्थन है ही।

प्रज्ञा परिवार की प्रमुख गतिविधि लोकमानस का परिष्कार है। इसी को विचार क्रान्ति भी कह सकते हैं। इसके अंतर्गत सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन और दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन के दोनों पक्ष आते हैं। इन दिशाधाराओं के लिए आवश्यक सामग्री युग शिल्पियों को मिल सके इस दृष्टि का यथासम्भव पूरा ध्यान रखा गया है।

प्रज्ञा परिवार में आये दिन प्रवचनों की आवश्यकता पड़ती है। बच्चों के, बड़ों के षोड्श संस्कार, पर्व समारोह, जन्मदिन, विवाह दिन, युग निर्माण सम्मेलन तथा अन्य शुभारंभों समारोहों के अवसर पर वक्तृता की क्षमता रखने वाले युग सृजेताओं को कुछ न कुछ बोलना ही पड़ता है। ऐसे प्रसंगों में उन प्रसंगों से तालमेल खाते हुए कथानक चुन लिये जांय और उनमें सामयिक स्थिति की टिप्पणी अपनी ओर से मिला दी जाय तो वे अनेकानेक आयोजनों में-येन नये व्याख्यान देते रह सकते हैं। उनकी संचित ज्ञान सम्पदा सीमित कहे जाने का कटु प्रसंग कभी नहीं आवेगा। ऐसे वक्ता सैकड़ों हजारों आयोजनों में प्रवचन करते रह कर भी अपनी नवीनता बनाये रह सकते हैं।

प्रज्ञा पुराण की प्रमुख आवश्यकता इसलिए भी समझी गई कि प्रज्ञा पीठों और प्रज्ञा संस्थानों में नियमित कथा कीर्तनों का क्रम चलता रहे। उनमें नवीनता बनी रहे। पुनरावृत्ति से उत्पन्न होने वाली ऊब न आने पाये।

कथा कीर्तन की परिपाटी न केवल प्रज्ञा संस्थानों में चलनी चाहिए वरन् प्रत्येक सद्गृहस्थ के यहाँ भी एक धार्मिक परिपाटी चलनी चाहिए कि सायंकाल घर का कोई शिक्षित सदस्य प्रज्ञा पुराण कथा कहा करे। उसमें बालकों को तो विशेष रस आता ही है बड़ों को भी कम प्रेरणा नहीं मिलती। वृद्धजनों को परलोक की तैयारी चलते देखकर इस प्रकार का कथा श्रवण एक प्रकार का धर्मकृत्य बन जाता है और वे उसमें पूरा रस लेते हैं।

स्वाध्याय शिक्षितों तक ही सीमित है। यदि उसका लाभ अशिक्षितों को भी देना हो तो उसका सत्संग रूप में परिणत करने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं। सत्संग के निमित्त व्यक्तिगत परामर्श देने की अपेक्षा यह कहीं अधिक उत्तम है कि प्राचीन कथा-पुराणों, इतिहासों के संदर्भ देकर उन विचारों की पुष्टि की जाय तो रूखे प्रतिपादनों द्वारा प्रस्तुत किये जाते हैं। दृष्टान्त उदाहरण अधिक प्रभावशाली होते हैं और स्मरण बहुत समय तक बने रहते हैं इसमें सन्देह नहीं।

प्रज्ञापुराण के अब तक चार खण्ड छप चुके अवसर मिल सका तो यह क्रम प्रवाह जीवन भर चलता रहे। अभी यह प्रधानतः हिन्दू धर्म से सम्बन्धित खण्ड है। आवश्यकता इस बात की भी है कि संसार में प्रचलित अन्यान्य धर्मों के अच्छे प्रसंगों को अधिक संख्या में प्रगतिशीलता एवं आदर्शवादिता के पक्ष में एकत्रित करना सम्भव हुआ तो अगले खण्डों में इस प्रकार के प्रसंग भी पाठकों को उपलब्ध होंगे जिनसे अन्याय धर्मों के मानने वाले भी अपनी परम्परा के अनुरूप इन्हीं प्रतिपादनों को सुनकर अधिक रस ले सकें और उसी लक्ष्य की ओर चलने की मनोभूमि बना सकें, जिस तक कि समूची मानव जीवन को अगले दिनों पहुँचना है।

प्रज्ञापुराण के द्वितीय खण्ड का मूल्य 22 रुपये, तृतीय का 20 रुपये तथा चतुर्थ का 18 रुपये है। जो पहले खरीद चुके हैं वे शेष को 60) भेजकर मँगा लें। प्रज्ञापुराण मँगाने के लिए ‘युग निर्माण योजना’ गायत्री तपोभूमि, मथुरा के पते पर आर्डर भेजना चाहिए। इस सम्बन्ध में विलम्ब न करें।


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