आइन्स्टीन जा समय से पहले ही चले गये

September 1985

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विज्ञान की कोई महत्वपूर्ण शाखा ऐसी नहीं थी जिसे अलबर्ट आइन्स्टीन ने प्रभावित न किया हो और उसमें ऐसे परिशिष्ट न जोड़े हों जिनके कारण पूर्व मान्यताओं की अपूर्णता दूर हो सके।

सापेक्षवाद उनकी विशेष देन है। अणु विज्ञान को अणु आयुध बनाने तक की स्थिति तक पहुँचाने का श्रेय उन्हीं को है। उसी जानकारी के आधार पर अमेरिका वह अणुबम बना सका जो जापान के नागाशाकी और हिरोशिमा नगरों पर गिराये गये और भारी पर संहार का कारण बने।

आइन्स्टीन नहीं चाहते थे कि विज्ञान को रचनात्मक कार्यों से हटाकर ऐसे विनाशकारी कामों में प्रयोग हो। प्रेसीडेन्ट रूजवेल्ट के इस आश्वासन पर ही अमेरिका की अणु प्रयोगशाला आइन्स्टीन के तत्वावधान में बन सकी।

जब जापान पर अप्रत्याशित रूप से अणु बम गिराये गये तो समाचार पाते ही वे दिन भर बच्चों की तरह फूट-फूट कर रोते रहे और हत्याकाण्ड का अपराधी अपने को कहते रहे। विज्ञान के आविष्कार करने वालों का उसके प्रयोग में कोई हस्तक्षेप न हो यह बात उन्हें बहुत ही बुरी लगी। राष्ट्र नेताओं के इस कृत्य के लिए जापान के मूर्धन्य विज्ञानी हिदेकी यूकावा से उन्होंने अश्रुपूर्ण नेत्रों और रूंधे गले से क्षमा माँगी।

इसके बाद उनका रुख ही बदल गया। वे इस प्रकार के आक्रमणों का आजीवन विरोध करते रहे। मैकार्थीवाद की उनने कटु आलोचना की। दार्शनिक और विज्ञान क्षेत्र के मूर्धन्य वर्ट्रेण्डरसेल के स्वर में स्वर मिलाकर उनके ऐसे हथियारों पर कड़े प्रतिबन्ध लगाने के लिए आवाज ऊँची की।

इसके बाद आइन्स्टीन का वैज्ञानिक इस प्रकार मर गया जैसे जापान वाले बम उन्हीं पर गिरे हों। जीवन के अन्तिम दिनों में वे छोटे बच्चों के गणित का हल सरल करते में अपनी बुद्धि का उपयोग करने लगे थे। अपने ढीले ढाले कपड़े पहन कर समय काटने के लिए नौका विहार पर निकल जाते थे। कभी-कभी वायलिन पर मौजार्ट की ध्वनि बजाकर अपने भारी मन को हलका कर लिया करते थे।

आइन्स्टीन जिन दिनों परमाणु शक्ति के अन्वेषण में व्यस्त थे। उन दिनों कई मित्र अपना परिचय नोट कराने के लिए आग्रह किया करते थे।

इस पर एक दिन उनने चुटकी लेते हुए कहा- ‘‘यदि मेरे प्रतिपादन और अन्वेषण सही सिद्ध हुआ तो जर्मनी मुझे महान जर्मनवासी कहकर अभिनन्दन करेगा और फ्राँस वाले मुझे महान फ्राँसीसी कहेंगे। लेकिन यदि मेरी खोज गलत निकली तो मुझे दोनों में से एक भी अपना न कहकर एक पागल यहूदी ठहरायेंगे।”

सन् 1952 में इसराइल के अध्यक्ष वेजमेन की मृत्यु पर इसराइल सरकार उन्हें अध्यक्ष बनाना चाहती थी। इस पर अस्वीकृति का उत्तर लिखते हुए आइन्स्टीन ने कहा-जन सेवा एवं राजनीति के क्षेत्र में मैं सर्वथा अनुभवहीन हूँ। अतएव इतनी बड़ी जिम्मेदारी उठाने में मैं अपने को सर्वथा अयोग्य मानता हूँ।

उनके सम्बन्ध में संसार के मूर्धन्य व्यक्तियों ने असाधारण अभिमत व्यक्त किये हैं। एडिंगटन यही कहते रहे-उनकी शानी का दूसरा व्यक्ति मैं नहीं जानता। रिचर्ड कामन्श ने कहा- ‘मैं समझा नहीं पाया कि ऐसी अद्भुत और इतनी सही कल्पनाएँ उनके मस्तिष्क में कैसे उठती रहीं।’ आस्तिक विज्ञानियों ने भी उनके विचारों से अपनी मान्यताओं को बहुत कुछ सुधारा और बढ़ाया।

मौत उनकी समय से पूर्व आ गई। शरीर और मन की स्थिति ऐसी नहीं थी जिसमें वे जीने से और विज्ञान की अधिक सेवा करने से इन्कार कर रहे हों। पर परिस्थितियों ने उन्हें भीतर से तोड़कर रख दिया था। अन्तिम दिनों में बच्चों की तरह किसी प्रकार मन बहलाने में दिन बिताने लगे थे।


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