ज्योतिर्विद्या की समुचित जानकारी जन जन तक पहुंचे

September 1985

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

ज्योतिष का अर्थ है- अन्तरिक्षीय बोधगम्य प्रकाश। यह वेदज्ञान के छः अंगों में से एक महत्वपूर्ण अंग है। सौर मण्डल के नवग्रहों और ब्रह्मांडव्यापी सत्ताईस नक्षत्रों का अपनी इस पृथ्वी पर असाधारण प्रभाव पड़ता है, अन्यथा यह लाभ न मिलने पर उसकी स्थिति भी सौर मण्डल के अन्य ग्रहों, उपग्रहों की तरह निर्जीव पिण्ड जैसी रही होती।

पृथ्वी पर कब किस ग्रह नक्षत्र का कितना प्रभाव एवं दबाव पड़ेगा? कब कौन ग्रह नक्षत्र, कितनी दूरी पर किस स्थिति में रह रहा होगा और उसका प्रभाव अन्न, जल, वायु, वनस्पति, प्राणि जगत पर क्या पड़ रहा होगा, इस विज्ञान की जानकारी हम ज्योतिष शास्त्र के आधार पर ही जान सकते हैं। ऋतु परिवर्तन, वर्षा, दुर्भिक्ष, भूकम्प, तूफान, महामारी जैसे मनुष्य जाति पर पड़ने वाले अतिशय महत्वपूर्ण प्रभावों की जानकारी हम इस आधार पर पा सकते हैं और प्रतिकूलताओं से बचने तथा अनुकूलताओं से लाभ उठाने की स्थिति में हो सकते हैं।

जन्मकाल में बालक अत्यन्त कोमल स्थिति में होता है। उस पर सौरमंडलीय परिस्थितियों का संग्राहक प्रभाव पड़ता है। उस आधार पर व्यक्ति की अभिरुचि, प्रतिभा, व्यक्तित्व सम्भावना आदि का बहुत कुछ पता चलता है और भी ऐसी रहस्यमयी बातें है, जिनका मनुष्य जीवन के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है। ऐसी विद्या की सही जानकारी होने पर व्यक्ति अपने क्रिया-कलापों का अदृश्य अंतरिक्ष के साथ तालमेल बिठा सकता है। इसीलिए इस विज्ञान को वेदांग के छः विभागों में से एक माना गया है।

किन्तु कठिनाई यह है कि ग्रहों का सूक्ष्म गणित करने में समयानुसार जो अन्तर पड़ता रहता है उसको समय-समय पर सही करते रहने की व्यवस्था इन दिनों नहीं रही। पृथ्वी पूरे चौबीस घण्टे में अपनी धुरी पर नहीं घूमती, उसमें कुछ सेकेंडों का अन्तर रहता है। इस प्रकार वह 365 दिन में नहीं 366.20 में अपना वर्ष चक्र पूरा करती है। पृथ्वी की एक और विशेषता है कि वह अपनी सीधी चाल नहीं दौड़ती, वरन् कुदकती-फुदकती, लहराती हुई, थरथराती, नाचती कूदती हुई परिक्रमा पथ पर चलती है। इसलिए उसकी कक्षा में भी अन्तर पड़ जाता है। सूर्य और चन्द्रमा की गति के बारे में भी यही बात है। सूर्य क्रमशः ठण्डा पड़ता जाता है। बीच-बीच में भयंकर सौर ज्वालायें उठती रहती हैं। चन्द्रमा पृथ्वी से दूर हटता रहता है। इसलिए न केवल उसका आकार घटता रहता है। वरन् उसके प्रभाव से समुद्र में आने वाले ज्वार-भाटे भी हल्के पड़ते जाते हैं। सौर मण्डल के अन्य ग्रहों की चाल और कक्षा का जो हिसाब लगाया गया है वह पूर्ण शुद्ध नहीं है। उसमें पंचाँग निर्माण की विधि के अनुसार सब कुछ पूर्णतया सही नहीं बैठता। कुछ समय उपरांत उसमें अन्तर पड़ता जाता है जिसे दृश्य गणित के आधार पर आंखों या उपकरणों की सहायता से सही करते रहने की आवश्यकता पड़ती है। इस विधि को दृश्य गणित कहते हैं।

भारतीय ज्योतिर्विज्ञान के आधार पर जो वेधशालायें अति पुरातन काल में बनी थीं, वह कालचक्र में अन्तर आने पर नये सिरे से विनिर्मित करनी पड़ीं। जयपुर के महाराज ने दिल्ली, जयपुर, उज्जैन, मथुरा, वाराणसी में पाँच वेधशालायें बनवाई थीं। देश में अनेकों सूर्य मन्दिर थे, उनके निर्माण में भी वेधशालाओं की विशेषता थी। कोणार्क का सूर्य मन्दिर इसी प्रयोजन के लिए काम आता था। शाम्बपुरी एवं उदयगिरि की वेधशालायें भी प्रसिद्ध थीं। कुतुब मीनार का दिल्ली में निर्माण विशुद्ध वेधशाला के रूप में हुआ था। उसकी सात मंजिल सात ग्रहों का और 27 खिड़कियां 27 नक्षत्रों का वेध देखने के लिए हैं। पृथ्वी कुछ झुकी हुई है, इसी हिसाब से कुतुब मीनार का ऊपरी भाग भी 5 अंश झुका हुआ बताया गया है। निर्माण की गलती समझकर अँग्रेजों ने ऊपर का भाग तुड़वा दिया और अब अधूरी मीनार ही अवशेष रूप में है। 21 जून की मध्याह्न में उसकी छाया जमीन पर नहीं पड़ती।

मिश्र के पिरामिडों की संरचना भी इसी निमित्त हुई है। उनकी लम्बाई, चौड़ाई, ऊँचाई इस क्रम से रखी गई है कि पृथ्वी और सूर्य की दूरी नापी जा सके। पृथ्वी का केन्द्र जहाँ पड़ता है, उस स्थान पर उनकी रचना हुई है। स्काटलैण्ड से वारमूडा क्षेत्र तक विशालकाय पत्थरों की संरचना भी ऐसी है, जो सूर्य और पृथ्वी के बीच पड़ने वाले अन्तर का बोध कराती है। मैक्सिको में, चीन तथा अरब देखो में भी ऐसे अवशेष पाये गये हैं जो विश्वभर में ज्योतिष का ज्ञान होने तथा सामयिक अन्तरों की जाँच-पड़ताल आवश्यक समझकर समय-समय पर वहाँ बनाये गये हैं। इसके माध्यम से दृश्य गणित के आधार पर पृथ्वी और ग्रहों के बीच पड़ते रहने वाले अन्तरों को जाना जाता था और पिछले निर्धारणों को शुद्ध किया जाता था।

अपनी पृथ्वी का व्यास 13 हजार किलोमीटर है। उसका 71 प्रतिशत भाग समुद्र में डूबा हुआ है और 29 प्रतिशत भूमि है। समुद्र की गहराई भी आश्चर्यजनक है। उसमें प्रशांत महासागर 14050 फुट गहरा है। सबसे उथला आर्कटिक सागर है, जिसकी गहराई 4200 फुट है समुद्रों में बड़े-बड़े पर्वत भी हैं।

अपनी पृथ्वी का वजन 66,00,000,000,000 खरब टन है। वह 30 किलोमीटर प्रति सेकेंड की उड़ान भरती हुई 3650,20 दिन में सूर्य की एक परिक्रमा करती है। पृथ्वी का उत्तरी ध्रुव 14 हजार फुट गहरा और दक्षिणी ध्रुव 19 हजार फुट ऊँचा है। उत्तरी ध्रुव पर पौधों, मनुष्य तथा पशुओं का अस्तित्व है, दक्षिणी ध्रुव पर मात्र पेन्गुइन पक्षी तथा एक प्रकार का मच्छर पाया जाता है। दोनों उड़ नहीं सकते।

अंतर्ग्रही तरंगें पृथ्वी के उत्तरी ध्रुव पर आती है। जो उनमें से उपयोगी होती हैं, उन्हें पृथ्वी रोक लेती है और जो बेकार होती हैं उन्हें दक्षिणी ध्रुव के रास्ते निकाल बाहर करती हैं। पृथ्वी की ठण्डी परत प्रायः 15 मील है, इसके बाद गरम द्रव भरा पड़ा है। इस गर्मी तक कभी समुद्री पानी रिस कर चला जाता है, तो भाप बनती है और ज्वालामुखी फूटते तथा भूकम्प आते हैं, जिनके कारण धरती निवासियों को भयंकर क्षति एवं अस्त-व्यस्तता का सामना करना पड़ता है।

पृथ्वी पर जो सूर्य किरणें छनकर आती हैं उसी के आधार पर यहाँ न केवल गर्मी रोशनी का अस्तित्व रहता है, वरन् प्राणियों की उत्पत्ति भी होती है। पृथ्वी के ऊपर वायुमण्डल का एक जीवनप्रद घेरा है। जिसमें साँस लेते हैं- उसकी ऊँचाई 100 मील से अधिक नहीं है। इसके उपरान्त पृथ्वी के ऊपर मोटी परतें चढ़ी हैं, जिनसे छनकर ग्रहों का प्रभाव उपयोगी मात्रा में पृथ्वी पर आता है। पहली परत को आयनोस्फियर, दूसरी को ट्रोमोस्फीयर, तीसरी को स्ट्रेटोस्फीयर, चौथी को ओजोनोस्फियर, पांचवीं को एवजोस्फीयर कहते हैं। यह परतें 65 हजार फुट तक ऊँची गई हैं।

ध्रुवों की स्थिति बड़ी विचित्र होती है। वहाँ प्रायः छः महीने का दिन और छः महीने को रात होती है। दृश्यों के बीच आँख मिचौनी चलती रहती है। जमीन पर चलते हुए आदमी अधर में लटके दिखते हैं और आवाजों का गूँजना, तरह-तरह की सीटियों का बजना यह बताता है कि ध्रुवों की स्थिति में अनेक असामान्यतायें होने के कारण ग्रह क्षेत्र, शक्तियों के पृथ्वी पर आवागमन का विशेष क्षेत्र है। इनकी समुचित जानकारी प्राप्त करके हम उस अदृश्य को जान सकते हैं, उसके ऊपर हमारा वर्तमान और भविष्य बहुत कुछ अवलम्बित है।

सूर्य की ऊर्जा पृथ्वी पर जिस अनुपात में आती है। वह इतनी अधिक है कि उसका यदि सही उपयोग सम्भव हो सके तो मनुष्य की आवश्यकता के लिए अभीप्सित गर्मी उसी से मिल सकती है। इतना ही नहीं, समुद्र के खारे पानी को भाप बनाकर मीठे जल की समस्या भी हल हो सकती है।

भूकम्पों, ज्वालामुखियों, हिमयुग और समुद्री बाढ़ आदि का सम्बन्ध जिन तथ्यों के साथ जुड़ा हुआ है वे ज्योतिर्विज्ञान की जानकारी से ही हस्तगत हो सकते हैं। उल्कापात और धूमकेतुओं का आवागमन भी कम संकट नहीं है। उपयुक्त समय पर उनके आगमन और दिशा प्रवाह की सही गणना हो सके तो उन विपत्तियों को आधुनिक अणु आयुध प्रहार से दूर भी धकेला जा सकता है।

मुद्दतों तक सूर्य ग्रहण और चन्द्र ग्रहण देवताओं पर विपत्ति आने या कुपित होने का कारण माने जाते रहे हैं। पर अब वह भय वैज्ञानिक जानकारी ने दूर कर दिया है कि यह सूर्य, चन्द्र और पृथ्वी की छाया का खेल है। आकाश के तारे टूटने को किसी देवपुरुष की मृत्यु आदि माना जाता था। अब समझा जाता है कि मंगल और बृहस्पति के बीच से किसी टूटे ग्रह का जो मलबा उल्काओं के रूप में घूमता रहता है, उसमें से कुछ टुकड़े उछलकर वातावरण में आ जाते हैं और जलकर राख हो जाते हैं, इसी का प्रकाश उल्कापात के रूप में दिखता है। भूकम्प, ज्वालामुखी आदि के सम्बन्ध में जो डरावने अन्ध-विश्वास फैले थे, वे ज्योतिर्विज्ञान की जानकारी से सहज ही दूर हो गये।

उपयुक्त जानकारियों के आधार पर आकाश में परिभ्रमण और यानों को ऊपर भेजकर सृष्टि के रहस्यों का पता लगाना सरल हो गया है। काम करने और लाभ उठाने के लिए आकाश एक नया क्षेत्र मिला है। मनुष्यों पर ग्रहों के पड़ने वाले प्रभाव की जानकारी प्राप्त होने से पूर्व सतर्कता सम्भव हो गई है। मानसून, तूफान आदि की पूर्व सूचना मिल जाने से बचाव के कितने ही उपाय सोचे जाने लगे हैं।

समझा जाता था कि नक्षत्र आकाश में झाड़-फानूसों की तरह टँगे हैं, पर अब पता चला है, कि वे भी एक प्रकार के सूर्य हैं और एक-दूसरे से लाखों हजारों प्रकाश मील दूर हैं। प्रकाश गणितों में प्रकाश की एक लाख छियासी हजार वर्ष प्रति सेकेंड की चाल मानी जाती है। इस आधार पर प्रकाश वर्ष बनते हैं। इतनी दूर होने के कारण नक्षत्र पृथ्वी वासियों पर कोई महत्वपूर्ण प्रभाव नहीं छोड़ सकते। यह भी एक अन्ध-विश्वास विज्ञान ने हमारा दूर किया है।

ज्योतिष का क्षेत्र बहुत बड़ा है। उससे जहाँ पृथ्वी का धरातल और अन्तरिक्ष में घटित होने वाले घटनाक्रमों का पता चलता है, वहाँ मनुष्यों के व्यक्तिगत प्रकृति के गुण दोषों सम्बन्धी जानकारी प्राप्त करने के उपरान्त उसके उत्कर्ष का पथ-प्रशस्त किया जा सकता है और अनर्थ की दुःखद सम्भावनाओं को टाला जा सकता है। किन्तु यह सब सम्भव तभी है, जब ज्योतिष का ज्ञान-विज्ञान समग्र रूप से जाना, सीखा और सिखाया जा सके। कठिनाई एक ही है कि स्वल्प श्रम में काम चलाने वाले और बाजारू पंचाँगों के सहारे ग्रह दोष की आशंका बताकर भोले लोगों की जेब काटने का व्यवसाय अनेक लोगों ने अपना रखा है। जब बाजारू पंचांग खरीदने भर से ज्योतिषी बना जा सकता है, तो कोई ग्रह गणित की कष्ट साध्य परिपाटी जानने का प्रयत्न क्यों करे?

जिस प्रकार पृथ्वी के विभिन्न भागों का दिन-रात, प्रभात, मध्याह्न, सन्ध्या काल, अलग-अलग समय पर होता है, उसी प्रकार स्थान विशेष पर ग्रह नक्षत्रों की पड़ने वाली प्रभाव क्षमता भी भिन्न-भिन्न होती है। इसलिए सही गणित के लिए आवश्यक यह है कि स्थानीय पलभा के अनुरूप पंचांग बने और सब लोग अपने स्थानीय पंचाँगों से काम लें। बम्बई के गणित से बने हुए पंचाँग से दिल्ली की स्थिति का सदा पता लगाना सम्भव नहीं। अपने या समीपवर्ती क्षेत्र के पंचांगों के सहारे ही यह प्रयोजन सही-रीति से सिद्ध हो सकता है।

ज्योतिर्विज्ञान का क्षेत्र अत्यन्त विशाल है। हमारी उपलब्ध जानकारी को ज्योतिभौतिकी के क्षेत्र में हुई शोध ने और भी बड़ा आकार दिया है। फलित ज्योतिष के अन्ध-विश्वास से उभर कर ग्रह-नक्षत्रों एवं हमारे चारों ओर फैले वातावरण के जीवधारियों पर प्रभाव को अब हम खुलकर कह सकने की स्थिति में हैं। एस्टॉलाजी एवं एस्ट्रानामी में अभी जो विग्रह संव्याप्त दृष्टिगोचर होता है, उसे मिटाया जा सकता है, यदि इसी वैज्ञानिक दृष्टि से प्राप्त शोध निष्कर्षों को जन-जन तक सुगम भाषा में पहुँचाया जा सके। इससे अनावश्यक भय तो मिटेगा ही, उस पुरातन ज्योतिर्विद्या की लंगड़ी बैसाखी को भी सहारा मिलेगा, जिसकी मान्यताएँ आज भी गणितीय आधार पर सही है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118