भारतीय समाज में तीर्थयात्रा का माहात्म्य और पुण्य इतने विस्तारपूर्वक बताया गया है कि धर्मशास्त्रों का अधिकाँश भाग उसी से भरा पड़ा है। पुण्य अर्जन, पाप नाश, और मनोकामनाओं की पूर्ति, परलोक में सुख शान्ति यह प्रधान उपलब्धियाँ तीर्थयात्रा की बताई गई है।
पर साथ ही उसके साथ कुछ कर्तव्य, उत्तरदायित्व और विधान भी जुड़े हुए हैं। मात्र प्रतिमा दर्शन और जलाशय स्नान भर में इतने प्रयोजन पूर्ण नहीं हो सके। इन दिनों पर्यटकों की तीर्थों में काफी भीड़ रहने लगी है क्योंकि सैलानियों की सुविधा के- तथा पुरातन स्मारकों के दर्शन वहाँ जितनी मात्रा में हो जाते हैं उतने अन्यत्र मिलना कठिन है। जलाशयों का सान्निध्य और प्राकृतिक दृश्य भी अपेक्षाकृत वहाँ अधिक होते हैं। अन्य देशों में पर्यटन एक अच्छा-खासा मनोरंजन और उद्योग भी है। कश्मीर, श्रीनगर, गुलमर्ग आदि स्थान के लिए लोग विशुद्ध मनोरंजन की दृष्टि से ही जाते हैं पर सर्वसाधारण के लिए सस्तेपन के साथ पुण्यफल मिलने का प्रलोभन भी जुड़ा रहता है। महंगाई में किसान, कारीगर के पास पैसा भी बढ़ा है इसलिए उनकी सहज उमंग तीर्थयात्रा के लिए चल पड़ने की होती है। बसों और रेलगाड़ियों के डिब्बे भी तीर्थयात्रा की व्यवस्था बनाते हैं। उनमें लोगों को ठहरने सोने आदि की सुविधा भी रहती है। फलतः तीर्थयात्रा के लिए जाने वालों की संख्या निरन्तर बढ़ रही है। इतने पर भी इस धर्म प्रयोजन के मूलभूत उद्देश्य को लोक एक प्रकार से भूलते ही जाते हैं।
प्राचीन काल में तीर्थ एक प्रकार से आरण्यक थे जिसमें गुरुकुल, वानप्रस्थाश्रम की व्यवस्था के साथ-साथ गृहस्थों को पवित्र वातावरण में रहने, साधना करने, सत्संग का लाभ उठाने एवं वहाँ के संचालकों से वर्तमान समस्याओं के समाधान और भविष्य को उज्ज्वल बनाने की योजना निश्चित करने की सुविधा मिलती थी। ऐसे आश्रमों में नदी, पर्वतों की प्राकृतिक दृश्यावली के साथ-साथ ऐतिहासिक किन्हीं प्रेरणाप्रद घटनाओं की स्मृतियाँ भी जुड़ी रहती थीं। तीर्थयात्रा पैदल करने का विधान है। वाहनों का उपयोग आवश्यक सामान लादने भर के लिए किया जा सकता है। आजकल जिस प्रकार लोग रेल मोटरों में दौड़ते हैं वैसा तीर्थ विधान शास्त्रों में कहीं नहीं है। वरन् ऐसी यात्राओं को निष्फल कहा और उनका उपहास उड़ाया गया है।
तीर्थयात्रा का एक रूप शिवरात्रि पर एवं सावन के महीने में काँवर कन्धे पर लादकर चलने वालों के रूप में उत्तर प्रदेश में देखा जाता है। गोवर्धन परिक्रमा, व्रज चौरासी कोश परिक्रमा, प्रयाग की पंचकोशी परिक्रमा, नर्मदा परिक्रमा आदि के रूप में अभी भी देखा जाता है। उसमें पैदल चलने का ही विधान अपनाना पड़ता है। विनोबा की भूदान यात्रा भी पदयात्रा के रूप में ही सम्पन्न हुई थी। गाँधी जी का स्वतन्त्रता संग्राम डांडी यात्रा के रूप में पैदल ही आरम्भ हुआ था।
पदयात्राओं के कितने ही भौतिक ओर कितने ही आध्यात्मिक लाभ हैं। भौतिक लाभ यह है कि पैदल चलने का नियम स्वास्थ्य सुधार का एक महत्वपूर्ण उपाय है। देश दर्शन करने, समाज की परिस्थितियाँ समझने और अनेकों के साथ परिचय बढ़ाने, संपर्क साधने का अवसर मिलता है। विद्यालयों में पढ़ने के समान ही लम्बी यात्राओं में निकलने पर अनेक प्रकृति के लोगों से सम्बन्ध के कारण व्यावहारिक अनुभव में कहीं अधिक वृद्धि होती है।
आध्यात्मिक लाभ यह है कि सुयोग्य विज्ञजनों नेतृत्व में जो जत्थे तीर्थयात्रा के लिए निकलते थे वे अपनी ज्ञान गरिमा और उत्कृष्ट भावना का लाभ लोगों तक घर बैठे पहुंचाते थे जो पेट प्रजनन तक ही सीमित रहते हैं और व्यवहार में आदर्शों को उतारने में कितना स्वार्थ एवं परमार्थ साधन है, इस तथ्य से अपरिचित हैं।
ऋषियों के गुरुकुल भी इसी प्रकार चलते-फिरते रहते और जगह-जगह डेरा डालकर उस क्षेत्र के वातावरण में धर्मधारणा की प्रतिस्थापना करते थे। एक स्थान पर जमे रहने की अपेक्षा उन्हें तीर्थयात्रा की असुविधा रहते हुए भी उसी प्रक्रिया को अपनाना पड़ता था। अभी भी अनेकानेक पुरातन ऋषियों में से कदाचित् ही किसी के निजी निवासी के ध्वंसावशेष मिलते हैं। क्योंकि उनकी कार्य प्रणाली ही चल प्रक्रिया पर अवलंबित थी। एक मार्ग में निर्धारित लक्ष्य पर पहुंचकर वे दूसरे मार्ग से लौटते थे और अपनी मंडली की ज्ञान संपदा में असाधारण बढ़ोत्तरी करते थे। इस पुण्य का फल निश्चय ही स्वर्ग मुक्ति जैसा होना चाहिए क्योंकि उसके साथ सद्व्यवहार ज्ञान संवर्धन की साधना जो जुड़ी रहती थी।
प्रज्ञा अभियान के अंतर्गत उस पुरातन तीर्थ परंपरा को पुनर्जीवित करने का प्रयत्न किया गया है। 25 हजार मंडलियां जीप गाड़ियों से देश व्यापी सद्ज्ञान प्रसार के लिए भेजी जाती हैं। सूचनाओं के अनुसार इस निश्चित दिशाधारा की तीर्थयात्रा ने जन-मानस में दूरदर्शी विवेकशीलता की जड़ें गहरी जमाई हैं और नैतिक, बौद्धिक, सामाजिक क्षेत्रों में सत्प्रवृत्तियों के जागरण का अलख जगाया है। इस प्रयास का परिणाम उत्साहवर्धक भी हुआ है और संतोषजनक भी।
केंद्र ने अपनी सूझ-बूझ और साधनों के अनुरूप लंबे डग उठाये हैं। अब प्रज्ञा परिजनों की बारी है कि वे तीर्थयात्रा के महान उद्देश्यों को पुनर्जीवित करने के लिए कुछ करें। इस दिशा में यह हो सकता है कि कम से कम दो और अधिक से अधिक पांच साइकिल सवारों की मंडलियां अपने यहां से चलें और एक मार्ग से हरिद्वार पहुंचें और दूसरे मार्ग से वापस लौटें। रास्ते में जहां ठहरना हों जहां भी लोगों से भेंट परामर्श का अवसर मिले वहां मिशन की विचार धारा से जन-जन को अवगत कराने का प्रयास करें। ढपली बजाना कुछ ही दिनों में अपने क्षेत्र के किसी वादक से सीखा जा सकता है और जहां भी ठहरना हो वहां दो व्यक्ति मिलकर मिशन के गीतों को थोड़ी-थोड़ी व्याख्या के साथ कहते रहकर एक उत्कृष्ट प्रचारक की भूमिका निभा सकते हैं। भले ही पूर्व तैयारी के अभाव में जनता की उपस्थिति थोड़ी ही क्यों न हो।
साइकिलें सबसे सस्ती और भार वहन तथा सवारी की कई आवश्यकताएं एक साथ पूरी कर सकती हैं। उन्हें रखने के लिए भी जरा-सी जगह चाहिए। मरम्मत भी बीच-बीच में अपने हाथों की जा सकती है। या हर जगह मिलने वाले मिस्त्रियों से कराई जा सकती है।
इस साइकिल पर गेरू और गोंद मिला कर ढक्कनदार डिब्बा लेकर चला जा सकता है और रास्ते में जो भी गांव कस्बे मिलें, उनकी दीवारों पर आदर्श वाक्य लिखे जा सकते हैं। इसी संदर्भ में शांतिकुंज की ओर से एक अत्यंत सस्ता गायत्री चालीसा और मिशन का परिचय छापा गया है। इसकी कीमत लागत से कही कम है। इसे सस्ते में मिलने वाले उन लोगों को दिया जा सकता है जो उसका पाठ करने का वायदा करें। इस रास्ते हरिद्वार पहुंचना। चार दिन विश्राम तथा साधन सत्संग करने, तीर्थ दर्शन का पुण्य लेने का प्रयत्न किया जाय और बाद में दूसरे रास्ते इसी क्रिया पद्धति को क्रियान्वित करते हुए वापस लौट जाया जाय। यह प्रयास उन भावनाओं के अनुरूप है जिसे ध्यान में रखते हुए शास्त्रकारों ने तीर्थों का महात्म्य बताया और उसका पुण्यफल बताया था। नारे अधिक प्रकार के न लिखकर ‘‘हम बदलेंगे, युग बदलेगा’’ और ‘‘एक बनेंगे, नेक बनेंगे’’ इन दो नारों से ही गांव-गांव की दीवारें रंग देने वाली तीर्थयात्रा की हम में से प्रत्येक को तैयारी करनी चाहिए।