प्रसन्नता साधनों पर नहीं, संकल्पों पर निर्भर

September 1985

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मनोकामनाएँ पूरी होने से प्रसन्नता होती है? या प्रसन्न रहने से मनोकामनाओं की पूर्ति होती है? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि वस्तुओं या साधनों की उपलब्धि पर मन की प्रसन्नता निर्भर नहीं है। बहुमूल्य वस्तुओं के विक्रेता या उत्पादक अपने गोदामों में कितना माल भरे रहते हैं। उन्हें हाथों से इधर-उधर उठाते धरते हैं। तो भी न सन्तोष होता है न उपलब्धि। इसके विपरीत जन-जातियों की महिलाएँ कौड़ियों, सीपों, घुंघचियों के जेवर बनाकर पहनती और प्रसन्न होती सौभाग्यवान् मानती हैं।

बैंक के खजांची के पास लाखों रुपयों के नोट होते हैं। जौहरी का नौकर जेवरों को झाड़ बुहार कर सुसज्जित रूप से रखता है। तो भी उनके मन पर उस सम्पदा की छाप नहीं होती। इसके विपरीत छोटे बच्चे गुब्बारे, सीटी, झुनझुने जैसी कम मूल्य की वस्तुओं का उपहार पाकर प्रसन्नता से फूले नहीं समाते और जिस-तिस को अपनी प्रसन्नता भरा सम्मान दिखाते फिरते हैं और फूले नहीं समाते।

मन जो चाहता है उसमें स्थिरता नहीं होती। लड़का मैट्रिक पास फस्ट डिवीजन होना चाहता था। सो हो गया। एक दिन खुशी भी छाई रही पर दूसरे दिन से चिन्ता आरम्भ हो गई कि कालेज की कक्षा में भी प्रथम श्रेणी आनी चाहिए। यह इच्छा उत्कण्ठा दिन-दिन तीव्र होती गई जैसे-जैसे परीक्षा निकट आने लगी वैसे-वैसे चिन्ता एवं उत्कण्ठा भी बढ़ती गई। सफलता में कोई सन्देह होने लगा तो मन का असमंजस और बढ़ता गया।

व्यापार में इच्छित लाभ हो गया। इसकी खुशी समाप्त नहीं हो पाई कि अब अगले कदम से लाभ की उत्कण्ठा भी बढ़ने लगी और उसका सरंजाम जुटाने की लगन लगी इस प्रकार जब तक कोई वस्तु उपलब्ध नहीं है तब तक उसकी उत्सुकता, उत्कण्ठा और लगन लगी रहती है। मिलने पर जो प्रसन्नता होती है वह क्षण भर रहती है और अगली उससे भी बड़ी सफलता पाने की योजना बनने लगती है।

कोई ऊँचा पर प्राप्त करने के लिए कब से, कितने प्रकार के प्रयत्न किये जा रहे थे। अब वह पद मिलते ही उसके साथ जुड़ी हुई जिम्मेदारियाँ पूरी होते रहने की फिकर दिन-रात बनी रहती है। ऐसा न हो कि उत्तरदायित्व ठीक तरह न निभा पाने पर उपहास प्रताड़ना मिले और अवनति का आदेश मिल जाय।

सन्तान नहीं हुई तब तक उत्कण्ठा। हो गई तो उसकी हारी-बीमारी, शिक्षा, सुसंस्कारिता आदि की चिन्ताएँ छाई रहने लगीं। ऐसी दशा में मनोकामना पूर्ति का सुख किसे मिलता है? मिलता है तो कितनी देर ठहरता है। फिर वह बच्चा बड़ा होने पर आज्ञाकारी दुर्गुणी निकले, तो निन्दा का पात्र बनना पड़ता है और हर घड़ी जी जलता रहता। किसी समय सन्तान होने की व्यथा अब इस रूप में बदल गई कि वह न होती। बिना सन्तान के रहते तो ही अच्छा होता। वस्तुओं के ऊपर टिकी हुई कामनाएँ आदि और अन्त में दुःखदायी परिणाम ही साथ लिये फिरती हैं। प्रसन्नता की एक झलक तो बीच में बिजली की तरह कौंधती है और क्षण भर में काले बादलों की घटा में तिरोहित हो जाती है।

स्थायी प्रसन्नता का एक ही मजबूत आधार है कि अपने गुण, कर्म, स्वभाव को उच्चस्तरीय बनाया जाय। व्यक्तित्व को उत्कृष्टता में बदल लिया जाय। क्रिया-कलाप में आदर्शवादिता का समावेश रखा जाय। आत्म-गौरव को बढ़ाने वाली विधि-व्यवस्था को अपनाये रखा जाय। उस दिशा धारा को अपनाया जाय जिसमें अन्तरात्मा को सन्तोष बना रहे। ऐसी दिशाधारा अपनाना पूर्णतया अपने हाथ की बात है। यह निजी चिन्तन और चरित्र का प्रसंग है जिसे कोई भी ऊँचा रख सकता है और ऐसी प्रसन्नता में डुबा रहने का अवसर हाथ रहता है जो किसी के छीने से न छिन सके।


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