अहन्ता के नागपाश से जीवन मुक्ति

August 1985

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आत्मा की आकांक्षाओं, मान्यताओं और भावनाओं को क्रियान्वित करने का भार मन को वहन करना पड़ता है। वह कार्यान्वयन की योजना बनाकर शरीर को देता है। ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों के सहारे वह उन्हें चरितार्थ करता रहता है। यही है जीवनचर्या का सामान्य क्रिया-कलाप और विधि-विधान। प्रत्यक्ष कृत्य शरीर करता है इसलिए दोष अथवा श्रेय उसी को मिलता है पर यह भुला दिया जाता है कि शरीर जड़ पंच तत्वों का बना हुआ है। उसमें न सोचने की क्षमता है करने की। रेल, मोटर, साइकिल आदि यन्त्र वाहन अपनी मर्जी से भला बुरा कुछ भी करने में असमर्थ रहते हैं। ड्राइवर ही उन्हें जहाँ-तहाँ घसीटे फिरते हैं। यही विद्या जीवन क्रम में चरितार्थ होती है।

आत्मा का परिधान अन्तःकरण है। उससे चेतना प्रभावित है। समर्थ एवं परिष्कृत आत्माएं साधना द्वारा मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार को उत्कृष्टता के ढाँचे में ढाल लेती है फलतः व्यक्तित्व परिष्कृत स्तर का बनता है और मनुष्य कलेवर में देवत्व की आभा झलकती है। इसके विपरीत यदि तमोगुणी असुरता अन्तराल की गहराई तक चली जाय तो प्रवृत्ति एवं आकाँक्षा अनुपयुक्त कामों में रस लेती है और फिर तद्नुकूल प्रवृत्तियों का प्रवाह बहने लगता है।

आन्तरिक दुष्प्रवृत्तियों में वासना, तृष्णा और अहन्ता का असामान्य, उद्धत हो उठता, अनेकानेक दोष-दुर्गुणों का सृजन करता है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद-मत्सर यह छः षड् रिपु माने गये हैं। यही प्रमुख मनोविकार हैं। क्रियाओं में वही उभरते दिखते हैं, किन्तु वस्तुतः उनका स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है उपरोक्त तीन दुष्प्रवृत्तियों का फलितार्थ ही उन्हें समझा जाना चाहिए।

वासना और तृष्णाजन्य विकृतियों का विवरण पिछले अंकों में प्रस्तुत किया जा चुका है। अब अहन्ता पर विचार किया जाना चाहिए। यह अहंकार का दूसरा नाम है। व्यक्ति अपने आप को दूसरों की आँखों में वरिष्ठ प्रदर्शित करना चाहता है और उसके लिए अनेक तरह के सरंजाम जुटाता है। यों इसका सीधा सरल और सौम्य मार्ग है कि साधारण लोग गुण, कर्म, स्वभाव की दृष्टि से हेय जीवन जीते हैं। षड् रिपुओं के चंगुल में बुरी तरह फंसे होते हैं। फलतः चिंतन और चरित्र की दृष्टि से उनकी स्थिति नर पशु, नर पामर या नर पिशाच जैसी होती है। इन दुष्प्रवृत्तियों के क्षेत्र में कौन अग्रणी रहा इसी की प्रतिस्पर्धा उनमें चलती रहती है। इसी हेय स्तर की सफलताओं को अपनी चतुरता, कुशलता एवं सफलता के नाम से दिखाते बखानते रहते हैं। औसत आदमी की अहन्ता इसी रूप में प्रकट होती है। दुष्ट दुराचारी अपने अनीति कृत्यों को गौरव गरिमा में सम्मिलित करते हैं और छल प्रपंच की अनीति और आक्रमण की घटनाओं को अपनी विशिष्टता के रूप में देखते और दिखाते हैं।

यदि इस कुपन्थ को उलटकर सज्जनोचित शालीनता अपनाई जा सके तो वास्तविक प्रशंसा और प्रतिष्ठा का आधार बन जाती है। उतने भर से आत्म प्रतिष्ठा, आत्म गौरव एवं आत्मोत्कर्ष की स्थिति बन जाती है। लोगों का यह मिथ्या भ्रम है कि ओछे हथकंडे अपनाकर येन-केन प्रकारेण अपनी महिमा का विज्ञापन किया जा सकता है और उससे लोगों की आँखों में चकाचौंध उत्पन्न करके अपने को वरिष्ठ सिद्ध किया जाता है। इस आधार पर प्रशंसा करने वाले दूसरे ही क्षण मुँह फेरते ही निन्दा करने में भी नहीं चूकते। सामने की चापलूसी और परदा हटते ही यथार्थता बखनाने लगती है।

फैशन सजधज, अमीरों जैसे ठाठ-बाट किसी दुर्बल पर आक्रमण किसी सज्जन को ठगना, घर में विपुल सम्पदा जमा करना, चाटुकारों का मुंह मीठा करके अपनी प्रशंसा सुनना आदि करतूतें उद्धत अहन्ता वाले लोग करते रहते हैं और उसी में अपना ढेरों, समय, श्रम, धन तथा चिन्तन गंवाते रहते हैं। इस आधार पर जो प्रदर्शनात्मक प्रपंच खड़ा किया गया था। वह क्षणिक और अवास्तविक विडम्बना खड़ा करने के अतिरिक्त और किसी काम नहीं आता।

शृंगारिक वेश विन्यास बनाने वाले, कीमती वस्त्र आभूषणों से लदने और तेल-फुलेल से महकने वाले लड़की लड़के सोचते हैं कि वह जिस राह भी निकलेंगे उधर ही दर्शक उनकी कलाकारिता, सुन्दरता एवं सम्पन्नता को सराहेंगे। पर होता उससे ठीक उलटा है। उनके चरित्र पर उंगली उठती है। दुराचार का आमन्त्रण देते फिरने वाला माना जाता है। शृंगारिकता हर किसी पर वही छाप छोड़ती है भले ही किसी अनुचित लाभ के लिए कोई मुँह सामने कुछ प्रशंसा के शब्द भले ही कह दे।

सादगी का सघन सम्बन्ध उच्च विचारों से है। गांधी, ईसा, बुद्ध जैसों के परिधान सस्ते और स्वल्प थे। ऋषि और महापुरुष भी अपनी सज्जा औसत देश वासियों से अधिक महंगी नहीं होने देते थे। यह शालीनता के परिधान हैं। इस प्रकार के आच्छादन से किसी की प्रतिष्ठा घटती नहीं वरन बढ़ती है। महंगे वस्त्र और महंगे आभूषण धारण किये फिरने वालों को स्वाँग नाटकों के प्रदर्शनकारी माना जाता है। अथवा यह कहा जाता है कि पैसे को उपयुक्त कार्य में लगाकर सत्प्रवृत्तियों के संवर्धन में लगाने की अपेक्षा मूर्खता द्वारा अपव्यय का कैसा कौतुक कौतूहल किया जा रहा है। अहन्ता का सबसे घटिया प्रदर्शन साज-सज्जा की शृंगारिकता के रूप में ही होता देखा जाता है।

समाज में फैली हुई बुराइयों में अपनी बुराई को बढ़-चढ़कर सिद्ध करने पर उस स्तर के लोग प्रशंसा करेंगे ही जेल में बन्द अपराधियों में से जो अपनी करतूतों का अधिक दिलचस्प या भयानक विवरण सुनाते हैं उनकी बात सुनकर दूसरे लोग अवाक् तो रह जाते हैं, पर कभी अवसर पड़ने पर उनका साथ देने के लिए भूलकर भी तैयार नहीं होते। सोचते हैं ऐसे लोग किसी की भी हजामत बना सकते हैं। इनका कोई सगा सम्बन्धी नहीं होता। वो जिसके साथ मित्रता जोड़ते हैं पहले उसी को हलाल करते हैं।

दुष्कर्मों में दिखाई गई धूर्तता या निष्ठुरता किसी के लिए गौरव या प्रतिष्ठा की बात नहीं हो सकती। ऐसे लोगों पर दसों दिशाओं से घृणा और भर्त्सना बरसती है। रंडी भंडुए आपस में मीठी बातें करते हैं और आदान प्रदान भी किन्तु दोनों में से कोई किसी का मित्र नहीं होता। मौका पड़ने पर उन्हें मुँह मोड़ने में ही नहीं, घात मारने में भी देर नहीं लगती है। दुर्जनों का संसार भर में न कोई प्रशंसक होता है और न सहयोगी। सज्जनता अपनाने वालों की मुंह आगे प्रशंसा भले ही न हो, भीतर से हर व्यक्ति उनके लिए श्रद्धा रखता है और साथ ही सहयोग की भावना भी। यह किसी प्रकार कम महत्व की उपलब्धियाँ नहीं हैं। महापुरुष सामान्य स्थिति से ऊंचा उठकर महान पद और प्रतिष्ठा प्राप्त करते हैं इसमें सज्जनता के आधार पर उपलब्ध हुआ सम्मान और सहयोग ही प्रधान कारण होता है।

अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनने, शेखी बघारने को आत्मश्लाघा ग्रस्त मनोरोगी माना जाता है। सज्जनों का सुनिश्चित गुण है नम्रता और विनयशीलता। उनकी सादगी देखते ही बनती है। महामना मालवीय जी को भारत सरकार ने “सर” की उपाधि दे रखी थी। कलकत्ता विश्वविद्यालय ने उन्हें मानद ‘डाक्टरेट’ स्वीकार करने के लिए आमन्त्रित किया। पण्डित महासभा ने उन्हें पण्डित शिरोमणि की उपाधि दी थी। इन तीनों पदवियों को उनने अस्वीकृत कर दिया और कहा मेरे पिताजी ‘पण्डित’ की परंपरागत उपाधि दे गये है उसका निर्वाह ही मुझे अत्यधिक भारी प्रतीत होता है फिर और उपाधियों से लद कर उन्हें वहन कर सकना मेरे लिए कैसे सम्भव होगा। यह नम्रता का एक उदाहरण है। इस कारण मालवीय जी की गरिमा घटी नहीं, बढ़ी ही। सूर, तुलसी,मीरा कबीर जैसे सन्त अपना परिचय सामान्य लोगों की पंक्ति में ही खड़ा होकर देते रहे हैं। यदि उनने बड़प्पन की प्रशंसात्मक डींगें हाँकी होती तो निश्चित रूप से वे विज्ञजनों की दृष्टि में गये गुजरे समझे गये होते।

मनुष्य के लिए यह क्या कम गौरव की बात है कि वह परमेश्वर का युवराज है। इस पदवी को सार्थक बनाने के लिए उसे अपना व्यक्तित्व और कर्तृत्व ऐसा बनाना चाहिए जो उस गरिमा के अनुरूप हो। इसके लिए उसे अपनी निजी पवित्रता और प्रखरता उच्च स्तर की विनिर्मित करनी चाहिए। निजी अभिलाषाओं को इतना कम करना चाहिए कि उसे अपरिग्रही ब्राह्मण कहा जा सके। ब्राह्मण को भगवान भी अपेक्षाकृत अधिक प्यार करते हैं और चारों वर्णों में उसकी श्रेष्ठता मानी गई है। इसका एक ही कारण है कि उसका निजी निर्वाह अति सामान्य होता है और अभिमान इतना गलित होता है कि भिक्षा माँगने में भी अवमानना अनुभव न करे यह नम्रता की चरम सीमा है। फलों से लदे हुए वृक्ष की हर डाली नीचे झुक जाती है।

आत्म गौरव की अनुभूति और लोक प्रतिष्ठा की प्राप्ति का एक ही मार्ग है- पुण्य परोपकार में रसानुभूति और लोक सेवा में निरन्तर प्रवृत्ति। जो इस मार्ग को अपनाते हैं वे हर घड़ी अपनी और दूसरों की दृष्टि में गौरव गरिमा से भरे-पूरे माने जाते हैं। इसके बिना अन्य पगडण्डियाँ ढूंढ़ने वाले काँटों में उलझते और भटकाव में फंसते हैं।

सूरज, चन्द्रमा निस्वार्थ भाव से प्रकाश वितरण के लिए निरन्तर भ्रमण करते हैं। बादलों के लिए एक ही काम है समुद्र से पानी लाना और सूखे भूखण्डों में शीतलता एवं हरीतिमा उगाना। वृक्ष दूसरों के लिए फलते हैं। पवन दूसरों के लिए चलता और अग्नि दूसरों के लिए जलता है। यह श्रेष्ठतम युक्त कर्तृत्व ही उन्हें भरपूर सम्मान प्रदान करता है। इससे बढ़कर अहन्ता की पूर्ति और क्या हो सकती है। मनुष्य को भगवान के विश्व उद्यान का माली बनाकर भेजा गया है और दायित्व सौंपा गया है कि वह सुन्दर, समुन्नत एवं सुसंस्कृत बनाने में तन्मयता और तत्परता के साथ लगा रहे। यह लगन जिनकी जितनी बढ़ी-चढ़ी होगी उसकी अहन्ता उतनी ही विगलित होती जायगी। इस आधार पर भार मुक्त हुई आत्मा इसी शरीर के रहते जीवन मुक्त का आनन्द उपलब्ध करेगी।


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