अपनों से अपनी बात- हीरक जयंती इस प्रकार मने

August 1985

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

सन् 85 को हीरक जयन्ती वर्ष के रूप में मनाया जा रहा है। प्रज्ञा मिशन का वर्ष बसन्त पर्व से आरम्भ होता है। उसी दिन पिछले की समाप्ति भी। इस बार जानकारी प्राप्त करते ही परिजनों में एक नई स्फुरणा कौंधी और उसके प्रकाश में उनने उस उत्सव वर्ष को बहुत ही शानदार ढंग से मनाया और उसकी तैयारी के लिये उमंग भरी हिम्मत जुटाई।

आमतौर से हर्षोत्सवों के अवसर पर धूमधाम का माहौल रहता है। त्यौहार, विवाह, शादी आदि के अवसर पर प्रदर्शन, प्रीतिभोज, गायन, वादन आदि का समारोह रहता है। संस्थाएं अपने वार्षिकोत्सव अधिवेशन मनाने में साज समूह एकत्रित करने, जुलूस निकालने, प्रवचन आयोजन, प्रदर्शनी आदि का ढाँचा खड़ा करते हैं और उसमें धन भी सामर्थ्य भर खर्च करते हैं। समारोह कितना बड़ा हुआ, इसकी स्थिति कैसी रही, जोश कैसा था, आदि बातों से ही उनकी सफलता का अनुमान लगाया जा सकता है।

इस दृष्टि से सन् 58 में गायत्री तपोभूमि में सम्पन्न हुआ सहस्र कुण्डीय गायत्री यज्ञ हर दृष्टि से शानदार समारोह रहा। उसे अद्भुत और अनुपम की संज्ञा मिली। अब दुबारा वैसा कुछ करने का न अपन मन था, न ऊपर का आदेश और व्यवस्था आयोजन। इस बार उसे व्यक्तिगत परिष्कार और लोक मंगल के लिये बढ़-चढ़कर प्रयास करने के रूप में मनाया गया। गाँधी जी ने एक बार “व्यक्तिगत सत्याग्रह” की योजना बनाई थी और कहा था सत्याग्रही काँग्रेस उद्देश्यों के अनुरूप अन्तरात्मा की पुकार पर योजना बनायें और राष्ट्र जागरण करते हुये जेल जांय। इस बार जेल जाने के काम को “व्यक्तित्व के परिष्कार के लिये कष्ट सहने’’ के रूप में कार्यान्वित कराया गया और राष्ट्र सेवियों को मिशन की प्रसार प्रक्रिया के लिए अधिक प्रयास करने के लिये कहा गया।

प्रज्ञा परिजनों का स्तर जन साधारण की दृष्टि से कहीं ऊंचा है। दूसरे लोग पेट-प्रजनन के अतिरिक्त जहाँ दूसरी बात सोचते ही नहीं वहाँ प्रज्ञा पुत्रों ने लोभ, मोह और अहंकार के त्रिविध भव-बंधन तोड़े नहीं तो ढीले अवश्य किये हैं। निजी आवश्यक कार्यों के साथ-साथ उन्होंने जन-जागृति के, युग परिवर्तन के कार्य को भी महत्व दिया है। यह साधारण बात नहीं, असाधारण बात है। अन्यान्य संस्था संगठनों की तुलना में प्रज्ञा परिवार का स्तर ऊंचा नहीं तो नीचा भी नहीं कहा जा सकता। इतने पर भी हमें शिकायत रही कि साधु, ब्राह्मण परम्परा का निर्वाह करने वाले देव मानव स्तर के लोगों की संख्या विस्तार, आत्मबल, त्याग, बलिदान और पवित्रता, प्रखरता एक दृष्टि से उतनी ऊंची नहीं उठ पायी जितनी कि हम उनसे चाहते थे। जो युग परिवर्तन के हनुमान, अर्जुन जैसे अग्रदूत बनते, उनसे उतना पुरुषार्थ बन नहीं पड़ा।

इसी प्रकार यही कमी हमें खटकती रही कि जिस आन्दोलन के द्वारा 500 करोड़ मनुष्यों का भाग्य, भविष्य और स्वरूप ऊंचा उठाने के लिये प्रज्ञा आलोक का प्रकाश जितना व्यापक होना चाहिये था, उतना नहीं हो सका। मिशन की जानकारी भले ही करोड़ों को हो। पर उसके समर्थक सहयोगी 20 लाख से अधिक नहीं बढ़ पाये। यह संख्या जलते तवे पर पानी की कुछ बूंदें छिड़कने की तरह है। 500 करोड़ का 2500 वां भाग ही 20 लाख होता है। सभी परिजन यदि मिशन का सन्देश और अधिक जन-जन तक पहुँचाना चाहें तो वर्तमान प्रज्ञा परिजनों में से प्रत्येक को 25 हजार व्यक्तियों के साथ घनिष्ठ संपर्क साधना होगा। यह मुनादी पीटने की दृष्टि से तो शायद किसी कदर सफल भी हो जाय, पर जहाँ तक चिन्तन, चरित्र, व्यवहार, दृष्टिकोण और क्रिया-कलाप से काया-कल्प जैसा परिवर्तन लाने की आवश्यकता है, वहाँ यह संख्या नगण्य न सही अपर्याप्त अवश्य है। हमारा मन था कि जीवन का अंतिम अध्याय पूरा करते-करते हम एक करोड़ हनुमान, अंगद न सही पर रीछ वानर तो मोर्चे पर खड़े कर सकेंगे पर वैसा बना नहीं। अन्य संगठनों की दृष्टि से तुलनात्मक रूप से 20 लाख समर्थक सदस्य होना बड़ी बात हो सकती है। पर काम जितना करने को पड़ा है और समय जितना विषम है, उसे देखते हुये साथियों की संख्या निश्चित रूप से अपर्याप्त है।

समय की विषमता दिन-दिन गम्भीर होती जाती है। सर्वनाश के बादल सभी दिशाओं से घुमड़ते आ रहे हैं। तूफानी विग्रहों की गणना नहीं। प्रदूषण, विकिरण जन संख्या उत्पादन जैसी समस्याएं सामने हैं। जन-जन के मन-मन में पाशविक और पैशाचिक प्रवृत्तियाँ बढ़ रही हैं। दुष्टों को आक्रमण करने का जितना दुस्साहस है उससे अनेक गुना छद्म श्वेत वस्त्रधारी और भले मानुष बनने वाले लोग करते हैं। प्रपंचों, संकीर्णताओं और अवाँछनीयताओं की दृष्टि से सभ्य दिखते हुये भी आदमी आदिम युग के जंगलियों जैसा असभ्य बनता जाता है। महायुद्ध की विभीषिका उन सबसे ऊपर है। किसी भी दिन बारूद के पहाड़ में कहीं से कोई चिनगारी उड़ कर पहुँच सकती है और उसका अन्त, इस सुन्दर धरती के रूप में परमात्मा की जो कलाकृति उभरी है। उस सृजन के देखते-देखते भस्मसात हो सकती है। अब की बार का युद्ध इस धरती को सम्भवतः प्राणियों के रहने योग्य भी न रहने दे।

इस विनाश बेला में सुरक्षा शक्ति की- शान्ति सेना की जितनी बड़ी संख्या चाहिये, उसका हौसला जितना बढ़ा-चढ़ा होना चाहिये। वह प्रयत्न करने पर भी बन नहीं पड़ा। एक अच्छा संगठन खड़ा करने भर से हमें किसी भी प्रकार का सन्तोष नहीं होता। जितना बड़ा संकट है, उसके अनुरूप ही अनर्थ को रोक सकने वाली चतुरंगिणी चाहिये। वह न बन पड़े तो छुटपुट प्रयत्नों का, निर्माणों का महत्व ही क्या रह जाता है।

हमारा मन था कि यदि हीरक जयन्ती मनाना है तो या तो प्रयत्न की असफलता पर धूल डालने और असफलता घोषित करने के रूप में मनाया जाय। या फिर ऐसा हो कि जो भी साथी सहयोगी हैं वे तूफान की तरह चल पड़ें, ज्वालामुखी की तरह उबल पड़ें और बह कर गुजरें जिसके लिये महाकाल ने जीवन्तों को पुकारा है। अन्यथा अपंगों, अनाथों की तरह जो लंगड़ा-लूला ढर्रा चल रहा है उसे किसी प्रकार घसीटते हुये आत्म प्रवंचना करते रहें।

हीरक जयन्ती वर्ष की बात जब सामने आई तो उसका स्वरूप उत्सव आयोजन पूर्वक मनाने से हमने स्पष्ट इन्कार कर दिया। सात प्रान्तों में सहस्र कुण्डीय यज्ञ और मथुरा का युग समारोह मनाने के उपरान्त यह आशा धूमिल हो गई है कि बड़े जन सम्मेलनों से कोई बड़ी बात हो सकती है। राजनैतिक संस्थाओं के एक से बढ़कर दूसरा समारोह हर वर्ष होता है। उनमें प्रत्येक में भारी दौड़-धूप और प्रचुर पूँजी खर्च होती है। किन्तु एक सप्ताह बीतने नहीं पाता कि उस आयोजन की प्रशंसा निन्दा तक समाप्त हो जाती है और लोग मेले ठेले के माहौल जैसा मनोरंजन करके उस बात को विस्मृति के गर्त में धकेल देते हैं। उसकी चर्चा तक समाप्त हो जाती है। इन्हीं तमाशों में से एक तमाशा हम और खड़ा करें। ऐसी इच्छा स्वप्न में भी नहीं है। पूरे बीस साल ऐसा ही माहौल बनाते रहे पर उसके फलस्वरूप जो मिला है उसे निरर्थक तो नहीं कह सकते पर असन्तोषजनक अवश्य है।

क्रान्तियों में आँधी जैसा वेग चाहिये। अक्सर उखाड़ फेंकने वाले आन्दोलनों को ही क्रान्ति कहा जाता है। पर जिसका लक्ष्य सृजन हो, उत्पादन हो, अभिवर्धन हो, काया-कल्प जैसा परिवर्तन हो वह देवत्व की पक्षधर क्रान्ति तो और भी कठिन होती है। एक मशाल लेकर समूचे गाँव को एक घंटे में जलाया जा सकता है, फिर उस गाँव में लगे क्षेत्र में सिंचाई का प्रबन्ध करके हरीतिमा की मखमली चादर बिछाना कितना श्रम साध्य और समय साध्य होता है, इसे सभी जानते हैं। अग्निकाण्ड के लिये एक पागल का उद्धत आचरण भी पर्याप्त है, पर लह-लहाती फसल उगाने या भव्य भवन बनाने के लिये तो कुशल कारीगरों की सुविकसित योग्यता और अगाध श्रम निष्ठा चाहिये।

प्रज्ञा परिवार सृजन का संकल्प लेकर चला है। उसके सदस्यों सैनिकों का स्तर ऊंचा चाहिये। ऐसा ऊंचा इतना अनुशासित कि उसके कर्तृत्व को देखकर अनेकों की चेतना जाग पड़े और पीछे चलने वालों की कमी न रहे। बढ़िया साँचों में ही बढ़िया आभूषण पुर्जे या खिलौने ढलते हैं। यदि साँचे ही आड़े-तिरछे हों तो उनके संपर्क क्षेत्र में आने वाले भी वैसे ही घटिया- वैसे ही फूहड़ होंगे। इसी प्रयास को सम्पन्न करने के लिये कहा गया है। इसी को उच्चस्तरीय आत्म परिष्कार कहा गया है। यही महाभारत जीतना है। इसी की “मल्लयुद्ध की विजय’’ शीर्षक से अप्रैल के अंक में चर्चा की है और कहा है कि जन-नेतृत्व करने वालों को आग पर भी, कसौटी पर भी खरा उतरना चाहिये। लोभ, मोह और अहंकार पर जितना अंकुश लगाया जा सके लगाना चाहिये। तभी वर्तमान प्रज्ञा परिजनों से यह आशा की जा सकेगी कि वे अपनी प्रतिभा से अपने क्षेत्र को आलोकित कर सकेंगे और सृजन का वातावरण बना सकेंगे।

दूसरा कार्य यह है कि नवयुग के सन्देश को और भी व्यापक बनाया जाय। इसके लिये जन-जन से संपर्क साधा जाय। घर-घर अलख जगाया जाय। मिशन की पृष्ठभूमि से अपने समूचे संपर्क क्षेत्र को अवगत कराया जाय। पढ़ाकर भी और सुनाकर भी। इन अवगत होने वालों में से जो भी उत्साहित होते दिखाई पड़े उन्हें कुछ छोटे-छोटे काम सौंपे जांय। भले ही वे जन्म मनाने जैसे अति सुगम और अति साधारण ही क्यों न हों। पर उनमें कुछ श्रम करना पड़ता, कुछ सोचना और कुछ कहना पड़ता है। तभी वह व्यवस्था जुटती है। ऐसे छोटे आयोजन सम्पन्न कर लेने पर मनुष्य की झिझक छूटती है, हिम्मत बढ़ती और वह क्षमता उदय होती है, जिसके माध्यम से नव सृजन प्रयोजन के लिये जिन बड़े-बड़े कार्यों की आवश्यकता है, उन्हें पूरा किया जा सके। जो कार्य अगले दिनों करने हैं, वे पुल खड़े करने, बाँध बाँधने, बिजली घर तैयार करने जैसे विशालकाय होंगे। इसके लिये इंजीनियर नहीं होंगे, और न ऊंचे वेतन पर उनकी क्षमता को खरीदा जा सकेगा। वे अपने ही रीछ वानरों में से होंगे। समुद्र पर पुल बाँधने जैसे कार्य में नल-नील जैसे प्रतिभावान भावनाशील ही चाहिये। इसके लिए बुद्ध, गाँधी, विनोबा जैसा चरित्र भी चाहिये और प्रयास भी।

हीरक जयन्ती वर्ष में क्या किया जाय? उस समारोह को कैसे मनाया जाय इसके संदर्भ में मई एवं जून के अंकों में हमारे संक्षिप्त अनुरोध मोटे अक्षरों में छापे जा चुके हैं पिछले माह के अंक में भी विस्तार से बताया जा चुका है। क्या किया जाय? इसका संकेत उनमें भी है और निरन्तर पूर्व के प्रज्ञा अभियान के मंच से अनेकों बार मौखिक और लिखित रूप से बताया जाता रहा है। उसे बार-बार कहने दुहराने की आवश्यकता नहीं है। उससे भी परिजन प्रायः अवगत भी हैं।

हीरक जयन्ती मनाने के लिये कुछ करने का जिनका सचमुच ही मन हो वे दो काम करें। वे दोनों ही उनके निजी रूप से करने के हैं। उनका प्रयोग अपने ऊपर करना है और अपने संपर्क क्षेत्र के ऊपर। वे दो हैं आत्म परिष्कार और जन-जागरण। इन दोनों कार्यों के लिए इन दिनों जितना उत्साह जिनने अधिक परिश्रम से किया होगा, उसे हम आंखें उठाकर टकटकी लगाये देखते रहेंगे वे थोड़ी और प्रतीक्षा करेंगे कि क्या वस्तुतः परिजनों में तत्परता उभरी?


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118