महाविनाश रुक सकता है।

August 1985

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चन्द्र यात्राओं से पता चला है कि उसमें सीमित गुरुत्वाकर्षण तो है पर कोई सशक्त कवच आच्छादन नहीं है। इस अभाव ने उसे इस योग्य नहीं रहने दिया है कि वनस्पतियों या प्राणियों का उस पर निर्वाह होता रहे। सूर्य का प्रकाश पहुँचते ही वह अत्यधिक गरम हो जाता है। उसके हटते ही चरम सीमा की ठण्डक उत्पन्न हो जाती है आये दिन होने वाले उल्का पातों ने उसमें मीलों गहरे खाई खड्ड बना दिये हैं। यह सारी विभीषिकाएं वैसे आच्छादन के अभाव में ही वहाँ खड़ी हुई हैं, जैसा कि पृथ्वी की सुरक्षा के लिए तना हुआ है। यदि अन्य ग्रह उपग्रहों की भी यही स्थिति होगी तो वहाँ भी चन्द्रमा जैसा ही संकट खड़ा रहता होगा।

पृथ्वी के ऊपर चढ़े हुए एक के बाद दूसरे आच्छादन ऐसे हैं जिसने उसे आश्चर्यजनक सुविधा एवं परिस्थिति प्रदान की है। इसलिए बुद्धिमता इसी में है कि इन कवचों के साथ छेड़खानी न की जाय।

अन्तरिक्ष में जो प्रक्षेपणास्त्र भेजे जा रहे हैं वे भले ही आच्छादनों को पूरी तरह निरस्त न कर सकें पर उनमें छेद तो अवश्य ही कर सकते हैं। यह छेद छोटे से भी हों तो असाधारण संकट खड़ा कर सकते हैं। कभी उल्कापात होते हैं तो चना-मटर जैसे टुकड़े भी अजीब प्रकाश उत्पन्न करते हुए आकाश में दौड़ते चले जाते हैं। कुछ बड़े उल्कापात हों तो अनेकों अणु बम एक साथ फूटने जैसे विग्रह खड़े कर सकते हैं। इसी सदी में कुछ दर्शक पूर्व साइबेरिया में कुछ उल्कापात हुआ था। उसने संसार भर में तहलका मचा दिया। समुद्र में गिरने वाली उल्काएं समुद्री तूफान या पृथ्वी पर वात चक्रवात उत्पन्न करती है। उनकी शक्ति आश्चर्यजनक होती है।

इन दिनों विज्ञान की अभिरुचि अन्तरिक्ष की ओर मुड़ी है। उसने धरती और समुद्र पर आधिपत्य प्राप्त करने के उपरान्त अपना कार्यक्षेत्र अन्तरिक्ष बनाया है। न केवल खोजी उपग्रह भेजे जा रहे हैं वरन् भावी महायुद्ध के लिए कुरुक्षेत्र आकाश को ही बनाने की तैयारी की जा रही है। आकाश मार्ग से ऐसे प्रक्षेपणास्त्र दौड़ते रहे हैं जो कुछ ही क्षणों में धरती के एक सिरे से दूसरे सिरे तक पहुँच सकें और विघातक अस्त्र बरसाकर उस क्षेत्र को मटियामेट कर सकें। लेसर किरणों- मृत्यु किरणों का कार्यक्षेत्र भी आकाश ही है। अभी यह परीक्षण की बेला है। जो मारक अस्त्र बन पड़े हैं वे भी सीमित शक्ति के हैं। पर जब युद्ध अथवा खोज का कार्यक्षेत्र आकाश ही होता है तो यह असम्भव नहीं कि पृथ्वी की छतरी को पूरी तरह नष्ट करना सम्भव न हो तो भी उसमें दरार डाली जा सके, कोई खिड़की खोली या सेंध लगाई जा सके। ऐसा होने पर पृथ्वी की अत्यन्त बहुमूल्य सम्पदा गुरुत्वाकर्षण शक्ति एवं समुद्रीय जलराशि उस द्वार में होकर ऊपर उड़ सकती है अथवा ऐसी विपत्ति नीचे उतर सकती है जो पृथ्वी की विशिष्टता को नष्ट-भ्रष्ट करके उसे चन्द्रमा की तरह जीवधारियों के लिए रहने योग्य न रहने दे।

माना कि अन्तरिक्ष की छेड़खानी करके उसकी सामान्य प्राण वायु नष्ट करने से लेकर अनेक प्रकार की खिलवाड़ें सर्वसाधारण द्वारा नहीं की जा रही हैं। यह उद्दण्ड खेल तथाकथित विशिष्ट वैज्ञानिकों तथा राज-नेताओं द्वारा ही खेला जा रहा है पर विचारणीय यह है कि यह समूची पृथ्वी उन्हीं की संपदा तो नहीं है। जन-साधारण से भी उसका संबंध है। यह भूमण्डल किसी व्यक्ति विशेष अथवा समुदाय विशेष का बनाया हुआ नहीं है न ही यह किसी की बपौती है। फिर यदि बनाया हुआ भी हो तो उसे नष्ट करने की छूट नहीं है। आत्म-हत्या करना अपराध है। फिर समूचे घर या गांव में आग लगाकर उसमें रहने वालों को समाप्त कर देना तो और भी बड़ा अपराध है चाहे वह घर या गाँव उसी का अपना बनाया हुआ है। अन्तरिक्ष को विषाक्त करके उसकी प्राण वायु को विषैली कर देना अथवा पृथ्वी के आवरण कवच से खिलवाड़ करना किसी देश विशेष से शत्रुता निभाना नहीं है। वरन् समूची चर-अचर सृष्टि व्यवस्था को नष्ट-भ्रष्ट कर देना है। उसे करने वाले जो भी हों। उस क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा जो भी बनाते बढ़ाते हों उन्हें परमात्मा की इस सुन्दर कलाकृति का विनाश करने वाले अपराधी ही गिना जायेगा।

इस पृथ्वी पर जल, थल और वायु का एक सुन्दर समन्वय है। इस पर प्राणि मात्र का अधिकार है। इस सन्तुलन को स्थिर रखने में ही विश्व नागरिकता का निर्वाह है। यदि उसे नष्ट किया जाना है तो उत्पत्तियों और उन्मादियों को कुछ भी करते रहने की छूट नहीं दी जा सकती है। शेष लोग मूक दर्शक बनकर नहीं बैठे रह सकते। उनका अपरिहार्य कर्तव्य हो जाता है कि ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न करें जिसमें किसी बड़े से बड़े को ही प्रकृति के साथ अनुपयुक्त छेड़छाड़ करने वाले अपने हाथ रोकने के लिए विवश होना पड़े।

इस सृष्टि संरचना के पीछे एक पूरक या प्रतिद्वंद्वी सन्तुलन काम कर रहा है इस तथ्य को सिद्धान्ततः बहुत पहले ही स्वीकार किया जा चुका है। अणु का प्रतिद्वंद्वी प्रति अणु-विश्व का प्रतिद्वंद्वी प्रति विश्व की सत्ता रहने से जो है वह सन्तुलित रीति से अपनी सत्ता एवं गतिविधि ठीक तरह बनाये हुए है। बैलेन्स बनाये रहने के लिए यह आवश्यक भी था अन्यथा एक ओर समूचा वजन बढ़ जाने से असन्तुलन जन्य संकट ही खड़ा होता।

जन्म के पीछे मृत्यु, सम्पदा के पीछे दरिद्रता, आक्रमण के पीछे प्रतिशोध काम करता है। अन्यथा एक ही दिशा में सफलता मिलते जाने पर जो स्थिति बनेगी उससे क्रम निर्वाह सम्भव न होगा। विश्व का प्रतिद्वंद्वी प्रति विश्व और अणु का विपक्षी प्रति अणु का अस्तित्व संरचना की स्थिरता एवं गतिशीलता का आधारभूत कारण है। पृथ्वी का वजन एक ओर अधिक दूसरी ओर कम हो तो उसकी धुरी न बनेगी और घूमने का प्रचलित क्रम अस्त व्यस्त हो जायेगा।

प्रति विश्व के सम्बन्ध में जो जानकारियाँ अब तक प्राप्त की जा सकी हैं, वे उसके अस्तित्व को तो सिद्ध करती हैं पर इस स्थिति में वह ज्ञान अभी नहीं पहुँच पाया है कि जो दृश्य है उसी की भाँति अदृश्य का भी प्रयोग उपयोग सम्भव हो सके। ब्रह्माण्डीय दैत्यों के बारे में भी यही बात है। इन्हें ‘‘ब्लैक होल” कहते हैं। इनके अस्तित्व का आकलन हो चुका है उनकी क्षमता एवं विस्तृति इतनी बड़ी है कि वे अपनी चपेट में आने वाले ग्रह नक्षत्र को भी देखते-देखते उदरस्थ कर सकते हैं और यह बता पाना सम्भव नहीं रहता कि जो निगल गया है वह उदर दरी के किस कोने में समा गया।

इसी “अद्भुत” की अनेकानेक सत्ताओं में- ‘‘ब्लैक होल” से मिलती-जुलती कुछ छोटी-छोटी इकाइयाँ भी हैं जिन्हें पूर्ण शून्य कहते हैं। वह स्थिति जहाँ भी होती है वहाँ की अमुक इकाइयों को काम करने से वंचित कर देती है। वे ठप्प हो जाती हैं। विस्तार के लिए पोल की आवश्यकता है। जहाँ ठोस हो वहाँ फटने फैलने एवं क्रियाशील रहने की गुंजाइश नहीं रहती।

तन्त्र प्रक्रिया के अंतर्गत मारण, मोहन, उच्चाटन वशीकरण की तरह एक स्थिति स्तम्भन भी है। स्तम्भन अर्थात् गतिहीनता जड़ता। चल बल प्रकृति प्रक्रिया है पर इसका विपरीत भाव यह भी है कि जीवन बना रहने पर भी उसका स्वरूप गतिहीन हो चले। पौराणिक गाथाओं में अहिल्या का शिला हो जाना प्रसिद्ध है। गौतम के शाप से ऐसा हुआ था। पर उसका निवारण भगवान राम के चरण स्पर्श से हो सका। यह एक उदाहरण है। जिसमें चल को अचल बना दिये जाने की प्रक्रिया है। पर्वतों की यही स्थिति होती है। उनके पाषाण परमाणु किसी गति विशेष में गतिशील रहते हैं। किन्तु वे सामान्यतया चट्टानों के रूप में स्थिर प्रतीत होते हैं। यों उस स्थिरता के अंतर्गत काम करने वाली गतिशीलता का आकलन किया जा सकता है। अमुक पर्वत अमुक क्षेत्र में इतना धंस रहा है, इतना उभर रहा है, इतना खिसक रहा है ऐसी अन्वेषण सूचनाएं प्रायः उपलब्ध होती रहती हैं। इन उदाहरणों से चल के साथ जुड़ने वाली अचल स्थिति को उदाहरण स्वरूप जाना जा सकता है। स्तम्भन यही है। यह कोई जादू नहीं वरन् प्रकृति की अनेकों चित्र-विचित्र गतिविधियों में से एक है। उत्तरी ध्रुव में छः महीने का दिन और छः महीने की रात होती है जबकि पृथ्वी का सामान्य भ्रमण प्रक्रिया के अनुसार वह प्रायः आधे-आधे समय की होनी चाहिए। किन्तु उत्तरी ध्रुव इसका अपवाद भी है। यदि तुलनात्मक दृष्टि से आश्चर्यवत् दिखता है किन्तु जिन्हें प्रकृति की बहुमुखी गतिविधियों का ज्ञान है। उनके लिए यह एक परिस्थिति विशेष पर आधारित हलचल मात्र है। स्तम्भन को ऐसे ही अनेक उदाहरणों के आधार पर समझा जा सकता है।

जिन्हें ‘प्रति विश्व’ की सम्भावनाओं का ज्ञान है उन्हें यह स्वीकार ने में कठिनाई नहीं होना चाहिए कि पूर्ण शून्य की स्थिति कहीं हो सकती है। कहीं पैदा की जा सकती है। ‘पूर्ण शून्य’ का एक अर्थ महाविनाश है। तब कोई जीवित नहीं बचेगा। शून्य के क्षेत्र में यह आवश्यक नहीं कि वहाँ की सभी वस्तुओं में स्थिरता या जड़ता उत्पन्न हो चले। यह हो सकता है कि अमुक प्रकार के अणु या पदार्थ ही उसके कारण स्थिर हों और अन्य वस्तुएं साधारण रीति से अपना काम करती रहें।

इन दिनों सर्वाधिक भयंकर अणु विस्फोट जन्य संकट इसी संदर्भ में पल सकता है। लेसर किरणों जैसी तंरगों को भी इस प्रकार दिग्भ्रान्त किया जा सकता है और वे अन्धे पक्षी की तरह बेतुकी उड़ानें भरती रह सकती हैं।

पुरातन अस्त्र अब इतने भयंकर नहीं रहे जिनसे बराबरी के आधार पर न लड़ा या निपटा जा सके। बारूद, डाइटनामाइट जैसी उपलब्धियाँ हाथ लगने पर पुराने युद्ध और महायुद्ध लड़े जाते रहे। सामयिक हार-जीत भी होती रही। अब यह अत्यधिक लालच का विषय नहीं रहा। जापान पर दो अणु अस्त्र गिराने और उसका परिणाम देखने के उपरान्त ही प्रमुख शक्तियों के मुँह में पानी भरा है और नये ढंग से सोचने का यह सिलसिला चला है कि विरोधी से निपटने के लिए इसी आधार को अपनाया जाय। अणु बम इसी आधार पर बनते चले गये हैं और प्रतिस्पर्धा ने बात को कहाँ से कहाँ पहुँचा दिया है इसी प्रकार प्रक्षेपणास्त्रों की सफलता ने अन्तरिक्ष को कुरुक्षेत्र बनाने की बात सोची है। किन्तु यदि समझा या समझाया जा सकें कि अन्तरिक्षीय युद्ध को- अणु आयुधों को रोकने की कोई विधा हस्तगत हो गई है या हो सकती है तो युद्ध के लिए आतुर मस्तिष्कों को अपनी योजनाएं बदलनी पड़ सकती हैं और शान्ति में अपना लाभ देख सकते हैं। विचार यदि गहराई तक बैठ सके तो उनके अनुरूप गतिविधियाँ भी उलट सकती हैं इसमें सन्देह नहीं।

विश्वास किया जाना चाहिए कि विभीषिकाओं की काली घटाएं हटेंगी और प्रकाश की उदीयमान किरणों का अगले ही क्षणों दर्शन होगा।


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