कबीर दास जी का रहस्यवाद

August 1985

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सन्त कबीर अपनी उलटवांसियों में साधारण सी किन्तु अलंकारिक भाषा के माध्यम से ऐसा तत्व दर्शन प्रस्तुत कर गए हैं जो जीवन के विभिन्न पक्षों को छूता एवं मार्गदर्शन प्रस्तुत करता है। यह शैली अध्यात्म क्षेत्र में और कहीं देखने में नहीं आती। कुछ की झलक यहाँ है।

एक अचम्भा देखा रे भाई, ठाड़ा सिंह चरावै गाई। पहले पूत पीछे भई माई, चेला के गुरु लगै पाई॥

जल की मछली तरूवर व्याई, पकड़ि बिलाई मुर्गा खाई॥ बैलहि डारि गूति घर लाई, कुत्ता कूलै गई विलाई॥

शब्दार्थ- कबीरदास कहते हैं- मैंने एक अचम्भा देखा। सिंह खड़ा-खड़ा गाय चरा था। पहले पुत्र जन्मा, बाद में माता ने जन्म लिया। गुरु चेला के पैर लग रहा था। जल में रहने वाली मछली ने पेड़ पर प्रसव किया। मुर्गा ने बिल्ली को पकड़कर खा लिया। बैल को पटककर मुनि घर लाया। कुत्ते के साथ बिल्ली प्रणय कर रही थी। माँस फैला हुआ था और उसकी रखवाली चील कर रही थी।

तात्पर्य- स्वभाव संस्कार एक प्रकार का सिंह है। बुरी आदतों का अभ्यस्त हो जाने पर सब कुछ चीर-फाड़ कर रख देता है, पर यदि उसे साध लिया जाय तो गाय चरा लेने जैसा भोलापन भी प्रदर्शित करता है। फिर हानि के स्थान पर लाभ ही लाभ करता है।

आत्मा माता है और मन पुत्र। पर आत्मबोध मन को सुसंस्कृत बनाने के बाद होता है। इस प्रकार पुत्र पहले जन्मा और माता पीछे। आत्म ज्ञान गुरु है और संसार ज्ञान चेला। संसार ज्ञान के उपरान्त आत्म ज्ञान होता है। इस प्रकार चेला का पैर गुरु नमन करता है। बुद्धि मछली है। यह जब ब्रह्मलोक में प्रवेश करती है तो उपयोगी अण्डे देती है। मुर्गा वैराग्य है और बिलाई माया। इस प्रकार मुर्गा बिलाई को खा जाता है। बैल आलसी मन है, इसे साधक कन्धे पर डालकर ले जाता है संस्कार कुत्ता है और तप तितीक्षा बिल्ली। साधना का प्रताप देखिये, दोनों शत्रुता छोड़कर मित्रता साधते हैं।

धरति उलटि आकासहि जाई। चिउटी के मुख हस्ति समाई॥

बिन पौने जहं परबत उड़ै। जीव जन्तु सब बिरछा बुड़ै॥

सुखे सरवर उठै हिलोर। बिन जल चकबा करै किलोल॥ -कबीरदास

शब्दार्थ- धरती उलटकर आकाश को चली, चींटी के मुँह में हाथी समा गया, हवा के बिना ही पर्वत उड़ने लगा, जीव जन्तु सब वृक्ष में बूड़ने लगे। सूखे सरोवर में हिलोरें उठने लगीं, चकवा बिना पानी के ही कलोल करने लगा।

तात्पर्य- माया मोह ग्रसित जीवन में जो कर्म व्यवहार होते हैं वे साधनारत जीवन में एकदम उलट जाते हैं। दृश्य जगत अदृश्य जगत में समा जाता है। यह संसार हाथी है, आत्मा जब जागृत होती है तो उसमें सारा संसार विलीन हो जाता है। पर्वत जैसा दिखने वाला माया मोह बिना प्रयास के ही, बिना हवा के ही गायब हो जाता है।

जमीन में छेद करके अधोगति को जाने वाले गुण कर्म स्वभाव आत्मा के आनन्द रूपी वृक्ष में डूबने लगते हैं। यह भौतिक जीवन मायाग्रस्त, नीरस और दुःख दरिद्र से भरा है तो उसी सूखे सरोवर में अन्तःकरण आनन्द की हिलोरें लेने लगता है। चित्त रूपी चकवा को जब आत्मज्ञान का अमृत मिल जाता है तो वह कलोल करने लगता है।


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