विजय-गीत (kavita)

August 1985

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तुम न घबराओ, न आंसू ही बहाओ अब, और कोई हो न हो पर मैं तुम्हारा हूं। मैं खुशी के गीत गा-गा कर सुनाऊंगा॥

मानता हूं, ठोकरें तुमने सदा खाईं, जिन्दगी के दांव में हारें सदा पाईं, बिजलियां दुख की, निराशा की, सदा टूटीं, मन गगन पर वेदना की बदलियां छाईं,

पोंछ दूंगा मैं तुम्हारे अश्रु गीतों से, तुम सरीखे बेसहारों का सहारा हूं। मैं तुम्हारे घाव धो मरहम लगाऊंगा। मैं विजय के गीत गा-गा कर सुनाऊंगा॥

खा गई इंसानियत को भूख यह भूखी, स्नेह ममता को गई पी प्यास यह सूखी, जानवर भी पेट का साधन जुटाते हैं, ‘जिन्दगी का हक’ नहीं है रोटियां रूखी,

और कुछ मांगो, हंसी मांगो, खुशी मांगो, खो गये हो, दे रहा तुमको इशारा हूं। आज जीने की कला तुमको सिखाऊंगा। जिन्दगी के गीत गा-गा कर सुनाऊंगा ॥ -अज्ञात

*समाप्त*


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