संगीत का विज्ञान क्षेत्र में उपयोग

August 1985

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अगोचर, इन्द्रियातीत, परब्रह्म परमात्मा का जब सृष्टि के आदि काल में प्रकटीकरण हुआ तो वह शब्द ब्रह्म के रूप में अविज्ञात से विज्ञात हुआ।

भारतीय तत्व ज्ञान के अनुसार प्रकृति और पुरुष का जब समागम हुआ तो उससे एक ध्वनि उत्पन्न हुई। जिसे शब्द ब्रह्म कहा गया। शब्द ब्रह्म अर्थात् ओंकार, प्रणव, अनहत नाद।

घड़ियाल पर जब हथौड़ी की चोट लगती है और वह ‘टन्’ के उपरान्त बहुत देर तक थरथराहट के रूप में बनी रहती है। यही क्रम निरन्तर चलता रहता है और जिस प्रकार पेण्डुलम के हिलने से घड़ी के पुर्जे चलते रहते हैं। उसी प्रकार एक आघात पुरुष प्रकृति पुरुष के साथ अपनी प्रसन्नता भरी अभिव्यक्ति करती है। इसी चुम्बन आलिंगन की क्रमबद्धता के अनुरूप एक पेण्डुलम गति बन जाती है और उसके आधार पर सृष्टि क्रम के अनेकानेक कल पुर्जे चल पड़ते हैं। पंचतत्व, पंच प्राण आदि के माध्यम से जड़ चेतन जगत में असंख्यों हलचलें अनवरत गति से चलती रहती हैं उन्हें आधार पर गतिशील रहते माना गया है।

प्रकृति पुरुष के मिलन समागम की इस गति को ‘‘ॐ” कार की थरथराहट भरी ध्वनि के रूप में मानवी भाषा में अधिक समीपवर्ती पाया गया है। यों उस स्वर की सूक्ष्मता का यथावत् अनुकरण योगीजनों के लिए शब्द ब्रह्म की साधना करते हुए ही सम्भव है। फिर भी बाल-बोध की दृष्टि से उस मनुष्य द्वारा उच्चारित शब्दों में ‘ॐ’ कार ही कह सकते हैं। ‘ॐ’ कार का अधिक सरल उच्चारण ‘ऊ+उ+म्’ के संयोग से बनता है। पर यह पृथक कारण भी समग्र स्थिति का परिचय नहीं देता इसलिए उसे शब्द के साथ ही रूप में भी चित्रित किया गया है। यही है- ‘‘ॐ”। भाषा विकास के आरम्भिक दिनों में इस “ॐ” का स्वरूप (") जैसा था। पीछे इसमें और भी अधिक कलाकारिता का समावेश किया गया तो वह गणेश की गजानन प्रतिमा के रूप में विकसित हुआ। एक दन्त हाथी जैसी सूँड आदि की संगति इसी ‘ॐ’ कार या गणेश आकृति के साथ मिला दी गई।

अनादि ‘ॐ’ कार की थरथराहट के ऊंचे-नीचे आरोहन अवरोहों का ध्यान रखते हुए तत्वज्ञानियों ने उसे सप्त स्वरों में विभाजित किया। स, रे, ग, म, प, ध, नि, उसी ओंकार ध्वनि का वर्गीकरण है। इन्हीं स्वरों में समग्र स्वर शास्त्र का आविर्भाव हुआ और उसके उदाहरण प्रस्तुत करने के हेतु अनेकों राग रागनियों का प्रादुर्भाव हुआ। इन्हीं स्वरों की क्षेत्रीय ध्वनि प्रियता के आधार पर अनेकों वाद्य यन्त्रों का निर्माण हुआ। गले का क्रमबद्ध गुँजन-गायन और वाद्य यन्त्रों की सहमति को वादन कहा गया। गायन और वादन दोनों को मिलाकर समग्र संगीत बनता है पर यह अनिवार्य नहीं कि दोनों की संगति साथ-साथ ही होनी चाहिए। अकेला गायन भी हो सकता है और अकेला वादन भी। जहाँ जैसी सुविधा एवं आवश्यकता होती है वहाँ वैसा तालमेल बिठा लिया जाता है।

गायन के आधार पर मन्त्र विज्ञान विकसित हुआ है। उसमें शब्दों का ऐसा गुँथन ही प्रधान है, जिसकी बार बार पुनरावृत्ति करने जप करने पर एक विशिष्ट प्रकार के कंपन होते और साधन कर्ता को प्रभावित करें। इन मन्त्र तरंगों का किसी विशेष प्रयोजन के लिए भी। यह एक समूचा एवं सुविस्तृत विज्ञान है। इसे जानने के लिए मन्त्र महाविज्ञान और तन्त्र महाविज्ञान का साँगोपाँग अध्ययन आवश्यक है और उन मन्त्रों को सिद्ध करने के लिए जिन अनुष्ठानों की आवश्यकता पड़ती है उनका सही प्रकार अभ्यास कराने के लिए व्यवहार में अनुभवी और व्यक्तित्व में अतीव पवित्र परिष्कृत मार्ग-दर्शक की आवश्यकता पड़ती है। ऐसे सिद्ध मन्त्र ही अपना चमत्कार दिखाते हैं अन्यथा पुस्तकों में से किसी मन्त्र शब्द गुंथन का ही अनपढ़ प्रयोग करने पर निराशा की हाथ लगती है।

यहाँ चर्चा गायन परक उच्चस्तरीय ‘मन्त्र विद्या’ की नहीं हो रही है। इन पंक्तियों का प्रयोजन उस संगीत की चर्चा से है जो वादन प्रधान है, जिसमें ध्वनि तरंगें उत्पन्न की जाती हैं और उन्हें विभिन्न प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त किया जाता है। साधारणतया ‘संगीत’ शब्द का प्रयोग इसी अर्थ में होता है। मन्त्र विज्ञान को “शब्द ब्रह्म” और स्वर लहरी एवं ताल वाद्यों के समुच्चय को ‘‘नाद ब्रह्म’’ कहते हैं। संगीत का सामान्य अभिप्राय इस वाद्य विद्या से ही समझा जाना चाहिए। उसमें गायन का समावेश आवश्यक नहीं। किन्तु यदि यह संयोग किसी प्रकार बैठ सके तो अच्छा ही है।

सामवेद में वेद मन्त्रों को संगीत प्रवाह के साथ जोड़ा जाता है। वेद तो वस्तुतः तीन ही हैं ऋग्, यजु, अथर्व। प्रायः इन्हीं में वर्णित मन्त्रों की अनेकानेक विधाओं के अनुरूप गाया जाता है तब उसे सामवेद कहते हैं। वह छंद विद्या अपने आप में अनोखी है। पर अब उस विद्या का प्रायः एक प्रकार से लोप ही हो गया है। कहते हैं कि कभी सामगान की सहस्र शाखाएं थीं। पर अब उनमें से थोड़ी ही उपलब्ध हैं-जटा पाठ, घन पाठ आदि उसी प्रकरण में प्रयुक्त होते हैं। आवश्यकता इस बात की है कि उस लुप्त कड़ियों को नये सिरे से जोड़कर प्रस्तुत अस्त-व्यस्तता को साँगोपाँग किया जाय और उस आधार पर अगणित प्रकार के लाभ उठाने का सुयोग प्राप्त किया जाय।

विज्ञान का ऊहापोह इन दिनों पाश्चात्य मनीषियों द्वारा ही हो रहा है। उनने संगीत पर प्रयोग वादन तक ही हाथ में लिया है और उसी पर कतिपय प्रकार के प्रयोग किये हैं। पाश्चात्य भौतिकवादी दृष्टिकोण यह है कि उन्हीं कार्यों में उसी हद तक हाथ डाला जाय, जिस हद तक के मनुष्य के प्रत्यक्ष लाभ में सहायक होते हों। वहाँ संगीत विद्या का अतिरिक्त अन्वेषण भी इसी आधार पर हुआ है। जल-जन्तुओं में वे कृषि, शाक, फल की तरह ही खाद्य मानते हैं इसलिए मछलियों को सरलता पूर्वक पकड़ने और उनका प्रजनन बढ़ाने के लिए प्रयोग हुए हैं। मुर्गी, बत्तख आदि के अण्डे तथा माँस भी उनके लिए गाय के दूध की तरह ही आहार में सम्मिलित होते हैं इसलिए उनके लिए भी प्रयत्न हुए हैं। हिरन, खरगोश, बकरी, भेड़ आदि का भी इसी वर्ग में सम्मिलित करके उन्हें संगीत सुनाकर प्रभावित करने और उनसे स्वयं लाभान्वित होने की चेष्टा भी इसी आधार पर हुई है। उस प्रयत्न में उनने समुचित लाभ उठाया है।

मनोरंजन पक्ष में दूसरे लोग बहुत हैं जो गोष्ठियों में, उत्सवों में, नाटकों में, फिल्मों में बजने वाले तरह-तरह के गायनों और वादनों का उपयोग करते रहते हैं। इस विषय में विज्ञान ने इतना ही किया है कि इलेक्ट्रानिक मल्टीट्यून, हाई-फी-वाद्य यन्त्र बनाये हैं जो मनुष्य के अभ्यास श्रम को बचाते हैं और हारमोनियम की तरह उंगलियाँ बदलने भर से स्वासन यन्त्रों, तार यन्त्रों, ताल वाद्यों की बाल सुलभ सरलता से बढ़ा देते हैं। यह श्रम की बचत हुई। इसके अतिरिक्त संगीत का उपयोग वैज्ञानिकों ने इस निमित्त भी किया है कि उसके आधार पर शारीरिक और मानसिक रोगों का निदान भी किया जा सके एवं छुटकारा भी पाया जाय। उपरोक्त सभी प्रयोजनों की तुलना में यह अधिक महत्वपूर्ण प्रयोग है। अब संगीत उपचार भी एक चिकित्सा पद्धति बन गई है और उसका उपयोग सफलतापूर्वक सम्पन्न हो रहा है।

चिकित्सा की अनेकानेक पद्धतियाँ हैं और उनके अपने-अपने आधार हैं। आयुर्वेद शरीर में वात, पित्त, कफ का असन्तुलन मानता है। यूनानी में आवी, वादी, खादी प्रकृति की अस्त-व्यस्तता को रोगों का कारण मानता है। ऐलोपैथी में जीवाणु विषाणुओं के आक्रमण, जीवनी शक्ति के शिथिल होने तथा रासायनिक पदार्थों की न्यूनाधिकता को निमित्त कारण बताया गया है। होम्योपैथी में उत्पन्न हुए विषों को लक्षणों के आधार पर विष उपचार में मानने का विधान है। बायोकैमिक में बारह प्रमुख लवणों की घट-बढ़ को निमित्त माना गया है और उन्हें औषधि रूप में देकर क्षति पूर्ति करने की परम्परा है। क्रोमोपैथी में सूर्य किरणों के सात रंगों में से किसी रंग की कमीवेशी को रंगीन काँचों द्वारा उन किरणों का शरीर में प्रवेश कराकर पूरा कराया जाता है। यूनानी तिब्बी प्रायः आयुर्वेद की तरह जड़ी-बूटी खनिज, उद्भिज उपचार पर अवलम्बित हैं।

संगीत चिकित्सा से यह मानकर चला जाता है कि स्नायु संस्थान में विद्युत प्रवाह की न्यूनता या शिथिलता उत्पन्न होने से कतिपय शारीरिक और मानसिक रोग उत्पन्न होते हैं। अस्तु नाड़ी संस्थान को तरंगित, उत्तेजित करना सम्भव हो तो शिथिलता जन्य विकृतियों से छुटकारा पाया जा सकता है और अस्त-व्यस्तताओं को दूर किया जा सकता है। नाड़ी संस्थान को उत्तेजित करने की क्षमता संगीत में है अतएव उसे मनीषी रोगों से छुटकारा पाने में लाभ उठाया जा सकता है। विशेषतया मानसिक रोगों में। क्योंकि संगीत का मनःसंस्थान को शिथिल कर लहराने में अधिक जल्दी एवं अधिक आसानी से प्रभाव पड़ता है।

अब अस्पतालों में चिकित्सा का एक माध्यम संगीत मान लिया गया है। अमेरिका, कनाडा, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड, जापान, फ्राँस, जर्मनी, ब्रिटेन, इटली आदि देशों में अस्पतालों में एक विधा के अनुरूप संगीत के- विभिन्न स्तर के रिकार्ड बनाकर उपचार में सहायता ली जाती है। मानसिक अस्पतालों में तो इस प्रयोग को अब एक प्रकार से अनिवार्य ही माना जाने लगा है। सरकारी अस्पतालों के अतिरिक्त कितने ही चिकित्सकों ने अपनी उपचार पद्धति पूरी तरह संगीत चिकित्सा पर केन्द्रित की है। वे रोगियों को अमुक ध्वनि के संगीत, उतने समय सुनाये और उन ध्वनि तंरगों के शरीर में प्रवेश करके आवश्यक हरे-फेर करने का सिद्धान्त लैसर किरणों की प्रक्रिया के समतुल्य बताकर समझाते हैं। इसका प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों ही प्रकार का लाभ रोगी को मिलता है और वे इस सहज सुलभ सस्ती और मनोरंजन पद्धति के सहारे अपेक्षाकृत अधिक जल्दी अच्छे होते हैं। अतएव उसका लोकप्रिय होना स्वाभाविक है। वह लोकप्रिय ही नहीं उत्साहवर्धक गति से सफल भी हो रही है। (क्रमशः)


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