दधीचि पुत्र पिप्पलाद (kahani)

August 1985

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दधीचि पुत्र पिप्पलाद ने जब माता से अपने पिता की देवताओं द्वारा अस्थियाँ माँगे जाने और उनके बने वज्र से अपने प्राण बचाने का विवरण सुना, तो उन्हें देवताओं के प्रति बड़ी घृणा उपजी। अपना स्वार्थ साधने के लिए दूसरों के प्राण हरण करने का छल करने वाले यह कितने नीच हैं। इनसे पिता को सताने का बदला लूँगा।

पिप्पलाद तप करने लगे। लम्बी अवधि तक कठोर तपश्चर्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव प्रकट हुए और बोले- ‘वर माँग।’

पिप्पलाद ने नमन किया और बोले- ‘देव प्रसन्न है, तो अपना रुद्र रूप प्रकट कीजिए और इन देवताओं को जलाकर भस्म कर दीजिए।’

शिव स्तब्ध रह गये, पर वचन तो पूरा करना था। देवताओं को जलाने के लिए तीसरा नेत्र खोलने का उपक्रम करने लगे। इस आरम्भ की प्रथम परिणति यह हुई कि पिप्पलाद का रोम-रोम जलने लगा। वे चिल्लाये- ‘बोले भगवन्! यह क्या हो रहा है? ‘देवता नहीं, उल्टा मैं जल रहा हूँ।’

शिव ने कहा- ‘देवता तुम्हारी देह में ही समाये हुये हैं। अवयवों की शक्ति उन्हीं की सामर्थ्य है। देव जलें और तुम अछूते बच रहो यह नहीं हो सकेगा। कपड़ों में आग लगाने वाला स्वयं ही जल मरता है।

पिप्पलाद ने अपनी याचना लौटा ली। शिव ने कहा- ‘देवताओं ने त्याग का अवसर देकर तुम्हारे पिता को कृत-कृत और तुम्हें गौरवान्वित किया है। मरण तो होता ही, न तुम्हारे पिता बचते न काल के ग्रास से वृत्रासुर बचा रहता। यश गौरव प्राप्त करने का लाभ प्रदान करने के लिए देवताओं के प्रति कृतज्ञ होना ही उचित है।

पिप्पलाद का भ्रम दूर हो गया। उनकी तपस्या आत्म-कल्याण की दिशा में मुड़ गयी।


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