आत्मदेव परामर्श नहीं मानता

August 1985

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भागवत् माहात्म्य में एक कथा है, आत्मदेव नामक ब्राह्मण की। कथा लौकिक और आध्यात्मिक दोनों अर्थों में प्रेरक है।

ब्राह्मण ‘आत्मदेव’ तुँगभद्रा नदी के किनारे रहता था। साथ रहती थी पत्नी नाम था ‘धुँधली’। आत्मदेव निर्मल स्वभाव के थे, घर में खाने-पीने की ठीक व्यवस्था थी। परन्तु पत्नी क्रूर झगड़ालू स्वभाव की थी। उनकी सन्तान भी नहीं थी। इसलिए दुःखी रहते थे।

एक बार जंगल में नदी के किनारे एक सन्त मिले। आत्मदेव ने अपना दुःख प्रकट किया। कहा पुत्र हीन, कर्कश पत्नी, इन कारणों से दुःखी आत्महत्या करने का मन होता है। आप कृपा करें तो ही जीवन में रस आ सकता है।

सन्त ने कहा- अनेक सत्पुरुषों की पत्नियाँ कर्कश हुईं हैं। उससे उन्होंने घर से मोहमुक्ति पायी और ईश कार्य में लगे। तुम भी ऐसा ही करो। पुत्र न होता तो ईश कार्य करने वाले के लिए वरदान होता है। पुत्र तो दुःख रूप भी सिद्ध होते हैं, ईश कार्य तो सदैव कल्याणकारी है। तुम उसी ओर ध्यान लगाओ।

आत्मदेव की समझ में बात नहीं आयी। वह अपने पक्ष में तर्क देते हुए बोले “अपुत्रस्य गतिर्नास्ति” अपुत्री की सद्गति नहीं होती। मुझे सद्गति के लिए पुत्र चाहिए।

सन्त ने समझाया भागवत् शास्त्र में यह भी लिखा हैं कि पुत्र से सद्गति नहीं मिलती। पुत्र तो लगभग सभी के होते हैं। पुत्र से सद्गति मिलती होती तो सभी को सद्गति मिल जाती। परन्तु ऐसा होता नहीं है। पुत्र द्वारा श्राद्ध पिण्डदान से सद्गति की कामना करने वाला पिता हीन माना गया है। सद्गति तो केवल सत्कर्मों से मिलती है। असली श्राद्ध श्रद्धापूर्वक किया गया कर्म है। पिण्ड शरीर को कहा गया है। अपना शरीर ईश्वरार्पण कर देना, उसी के काम में पूरी तरह लगा देना वास्तविक पिण्डदान है। इसलिए तुम सद्गति के लिए पुत्र की कामना छोड़कर सत्कर्मों की कामना करो।

परन्तु ब्राह्मण आत्मदेव नहीं माना, किसी भी तरह पुत्र पाने के लिए अड़ गया। सन्त ने उसे एक फल दिया कहा अपनी पत्नी को यह श्रद्धापूर्वक सेवन करा देना। उसके समय पर सन्तान उत्पन्न होगी। ब्राह्मण फल लेकर घर गया, पत्नी को दिया। दुष्टा पत्नी श्रद्धा के स्थान पर कुतर्क गढ़ने लगी। गर्भधारण के कष्ट से भयभीत होने लगी। उसकी छोटी बहिन गर्भवती थी। उसने सुझाया “दीदी तुम गर्भधारण का नाटक करो, मेरा बच्चा अपना बच्चा बतलाकर छुट्टी पा लेना।”

धुँधली को यह सलाह जंच गयी। फल गऊ को खिला दिया। बहन के घर प्रसव के लिए गयी। उसका बच्चा अपना बच्चा कहकर लौट आयी। आत्मदेव प्रसन्न हुआ। धुँधली ने अपने पुत्र का नाम रखा धुँधकारी। बालक पहले तो प्यारा लगा पर ज्यों-ज्यों बढ़ा उसके कुसंस्कारों से सब तंग होने लगे। वह मनमानी करने लगा रोकने पर माता को पीटने लगा। अब आत्मदेव को लगा कि इससे तो निपुत्री ही भले थे।

उधर सन्त के फल के प्रभाव से गऊ के गर्भ से गौकर्ण हुए। वे विद्वान सुसंस्कारी निकले। उन्होंने पिता आत्मदेव को घर का मोह छोड़कर तपस्वी जीवन जीने की सलाह दी। उससे उन्हें शान्ति मिली। धुँधकारी अपने कुकृत्यों से जल्दी मरा और प्रेत योनि में जा पड़ा। गौ कर्ण ने उसे भगवत् चरित्र सुनाकर उसके कुसंस्कार छुड़ाये तब वह मुक्त हुआ।

यह लौकिक अर्थ हुआ। आध्यात्मिक अर्थ हर व्यक्ति पर लागू होता है। आत्मदेव मनुष्य के अन्दर आत्म चेतना जीव है। उसकी पत्नी है धुँधली, अर्थात् अविकसित बुद्धि जिसे धुँधला दिखता है। वह लौकिक कामना करता है, सन्त का परामर्श नहीं मानता। इसलिए दुःख को न्योता देता है। धुँधली बुद्धि सन्त का सत्परामर्श कैसे स्वीकार करती। उसे तो छोटी बहन ‘स्वार्थ बुद्धि’ का प्रस्ताव अच्छा लगा। तप से बचो, पर पुत्र का लाभ लो।

कुसंस्कारी पुत्र धुंधकारी ‘स्वार्थ बुद्धि द्वारा पैदा स्वार्थी स्वभाव है। अहंकार उसका मुख्य गुण है। वह मनमानी करता है, बुद्धि और जीव को भी सताता और पीटता है। सब नर्क का कष्ट पाते हैं। पर सन्त के प्रसाद के प्रभाव से गो ‘इन्द्रियों के सुसंस्कार जो सत्कर्मरत हैं वे सहायता करते हैं। आत्मदेव को वैराग्य और धुंधकारी को निरहंकारिता सरलता का संस्कार देकर उन्हें कष्ट से छुड़ाता है।

आत्मदेव स्वयं निर्मल हैं, पर सन्त का परामर्श नहीं मानता। धुँधली को अपने प्रभाव से निर्मल नहीं बनाता स्वयं उसके चक्कर में फंस जाता है। जो अन्त में दुःख से त्रस्त होकर किया, वह पहले सन्त के सद्-परामर्श से करता व धुँधली को सुसंस्कार दे पाता तो दुःख के चक्र में लम्बे समय तक क्यों पिसता?


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