“योगा” और “मेडीटेशन” का कौतुक

August 1985

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

योग का वास्तविक अर्थ और स्वरूप है आत्मा और परमात्मा का एकीकरण। इससे आत्मा की ही अपनी क्षमता, पवित्रता और पात्रता बढ़ानी पड़ती है ताकि वह परमात्मा में घुल सकने योग्य बन सके।

योग अर्थात् मिलन। मिलन में सहधर्मी होना आवश्यक है। अन्यथा स्तर में असाधारण अन्तर रहने पर यह प्रयोजन पूरा नहीं हो सकता। पानी में नमक, चीनी, दूध जैसे पदार्थ ही घुल सकते हैं क्योंकि उनके परमाणुओं का भार जल के अणुओं जितना ही होता है। लोहे का, पत्थर का चूरा यदि पानी में मिलाया जाय तो वह तलहटी में बैठ जायेगा और कभी भी आत्मसात न होगा। योग में परमात्मा से मिलने की प्रक्रिया पूरी करने के लिए जीव को ही अपना स्तर ईश्वर के समतुल्य विकसित करना होता है। ईश्वर को जीव की मनमर्जी पर चलने के लिए प्रयत्न करना उपहासास्पद है। इस अवैज्ञानिक विद्या से कभी किसी को सफलता नहीं मिली और न मिल सकती है।

गिड़गिड़ाने, नाक रगड़ने, प्रशंसा भरी मनुहार करने, भेंट पूजा का लालच दिखाने, कर्मकाण्डों में रिझाने या किसी स्थान विशेष पर विराजमान समझकर उसके दर्शन करने के लिए तीर्थयात्रा पर निकल पड़ने जैसे क्रिया-कृत्य उसे लुभाने, फुसलाने और वरगलाने में सफल नहीं हो सकते। इतनी चालाकी को सामान्य बुद्धि वाले भी समझ लेते हैं कि अनधिकारी रहते हुए भी बड़ी-बड़ी उपलब्धियाँ प्राप्त करने की आशाऐं लगाये बैठे रहने की बात सर्वथा सिद्धांत हीन और बेतुकी है।

इसमें भक्त या साधक को अपना समूचा व्यक्तित्व विकसित और परिष्कृत करना होता है। शरीर मन और अन्तःकरण को तद्नुरूप ढाँचे में ढालना पड़ता है। इसी निमित्त विभिन्न कर्मकाण्डों की-योग साधनाओं की संरचना हुई है। क्रिया के सहारे व्यक्तित्व को समुन्नत करने की पद्धति ही दिव्य मिलन का-योग का प्रयोजन पूरा करती है।

योग के कितने ही मार्ग हैं। साधन विधान अनेकानेक हैं। यह भिन्न निर्धारण व्यक्ति की सामयिक स्थिति को ध्यान में रखते हुए करने होते हैं। उनमें अन्तर हो सकता है। यह रुचि और परम्परा का विषय है। किन्तु इस तथ्य में कभी कहीं अन्तर नहीं आ सकता कि योग मार्ग पर चलने वाले को अपने समग्र व्यक्तित्व को ऊंचा उठाना पड़ता है। चिन्तन, चरित्र और व्यवहार में उन आदर्शों का समावेश करना होता है जो मानवी गरिमा के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़े हुए हैं। तथ्य एक ही है। उसके निमित्त अपनाये गये उपचारों में प्रकृति भिन्नता के कारण अन्तर हो सकता है। पर जिसमें क्रिया काण्ड ही सब कुछ समझा गया हो और व्यक्तित्व को सामान्य जनों की अपेक्षा अधिकाधिक उत्कृष्ट बनाने की उपेक्षा की जा रही हो, समझना चाहिए कि बाल कौतूहल जैसी विडम्बना मात्र है। भले ही उसका नाम साधना रख लिया जाय। इन कौतूहलों में नवधा भक्ति के नाम पर प्रतिमा पूजन भी हो सकता है और कथा कीर्तन भी।

कर्मकाण्डों से कुछ आशा तभी रखी जा सकती है जब वह मानवी चरित्र की ऊंचाई की ओर उछालने का प्रयोजन पूरा कर सकें। हेय जीवन जीते हुए नाम जाप, देव दर्शन, जलाशयों का स्नान मात्र मार्गदर्शन में सहायक हो सकता है लक्ष्य पूर्ति में सहायता नहीं कर सकता।

योग एक चेतना परक विज्ञान है। उसमें स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों को जागृत, सशक्त और प्रखर बनाने के लिए उसी प्रकार सोपान निर्धारित हैं जैसे छत्त पर चढ़ने के लिए जीने की सीढ़ियों में सन्निहित होता है।

राजयोग, हठयोग, लययोग, प्राण योग, कुण्डलिनी योग, चक्रवेधन, ज्ञान योग, भक्तियोग, कर्मयोग, ध्यानयोग आदि अनेकानेक राजमार्ग निर्धारित हैं। उनमें से प्रत्येक में आरम्भ से चलकर अन्त तक क्रमबद्ध रूप में निर्धारण अपनाने पड़ते हैं यथा राजयोग में, यम, नियम, आसन प्राणायाम, प्रत्याहार, धारण ध्यान, समाधि की एक क्रमबद्ध योजना है। हठयोग में नाड़ी शोधन, नेति, धोति, वस्ति, वज्राली, कपाल आदि का प्रयोग होता है। यही बात अन्यान्य योगों के सम्बन्ध में भी है। उस समूचे विज्ञान को स्कूली कक्षाओं की तरह एक के बाद एक को अपनाया जाना चाहिए। कृषि कर्म जुताई, बुवाई, खाद, पानी, रखवाली आदि की एक क्रमबद्ध प्रक्रिया पर आधारित है।

मेले में जिसे जो अच्छा लगे वह उसे खरीद सकता है। किन्तु स्कूल में वर्णमाला, गणित आदि की उपेक्षा करके सीधे एम. ए. में दाखिला लेने का मनोरथ पूरा नहीं हो सकता। विद्यार्थी को एक एक कक्षा उत्तीर्ण करती होती है। स्कूल और मेले में यही अन्तर है। योग में स्कूली विधान लागू होने की बात हृदयंगम करनी होती है। इस क्षेत्र में मेले की तरह चाहे जहाँ से आरम्भ करने और चाहे जो खरीदने की सुविधा नहीं है। कोई साधक समाधि या ईश्वर दर्शन का प्रथम चरण मान बैठे तो यह उसकी ऐसी भूल है जिसमें निराशा के अतिरिक्त और कुछ हाथ लगने वाला नहीं है।

इन दिनों आसन व्यायामों को ही ‘योग’ कहा जाने लगा है। शरीर शुद्धि के लिए वे भी एक अंग हो सकते हैं। पर उन्हें योग शब्द से सम्बोधित नहीं किया जा सकता। अधिक से अधिक उन्हें ‘योगासन’ कह सकते हैं। व्यायाम का अंग संचालन का प्रयोजन दूसरे तरीकों से भी हो सकता है। उसके लिए निर्धारित आसनों के लिए हठ करना व्यर्थ है। हो सकता है कि कभी आसन पद्धति को ही सर्वोत्तम व्यायाम पद्धति माना गया हो पर अब तो हम उससे भी सरल तथा लाभप्रद दूसरे प्रकार के व्यायाम भी अपना सकते हैं।

रुपये का एक अंश पैसा भी है। सौ पैसे मिलकर एक रुपया बनता है। यह सब ठीक है। पर यह भी गलत नहीं कि पैसे का नाम रुपया नहीं दिया जाना चाहिए। इसमें अकारण भ्रम पैदा होता है। विदेशों में प्रचलित “योगा” मात्र आसन व्यायामों तक सीमित होता दिखता है।

यही बात ‘मेडीटेशन’ के सम्बन्ध में भी है। ध्यान की अनेक विधियाँ प्रचलित हैं उनसे एकाग्रता सधती है। जो हर काम में सफलता की बात जोड़ती है। बन्दूक का सही निशाना साधने वाले शिकारियों की सफलता का श्रेय उनकी एकाग्रता है। सरकस में दिखाये जाने वाले अधिकांश खेल ‘एकाग्रता’ के आधार पर ही चमत्कार दिखाते हैं। बही खाते का सही हिसाब रखने वाले एवं परीक्षा में अच्छे नम्बरों से पास होने वाले छात्रों की सफलता भी उनकी मानसिक बुद्धि पर निर्भर करती है। पर इन सबको योगी तो नहीं कह सकते। एकाग्रता एक सामान्य कौशल है जो मनुष्य को इच्छित दिशा में सफलता प्रदान करने में अच्छी भूमिका निभाता है। मस्तिष्क से काम लेने वाले हर व्यक्ति को ध्यान पूर्वक काम करना चाहिए। और उस विशिष्टता का सम्पादन करने के लिए किसी न किसी मानसिक व्यायाम का अवलम्बन करना चाहिए। इन सभी माध्यमों को ध्यान या ‘मेडीटेशन’ कहा जा सकता है। इन्हें करने वालों को उसकी उतनी ही प्रतिक्रिया का अनुमान लगाना चाहिए जितनी कि वह है। उसे योग सिद्धि की आशा से नहीं करना चाहिए।

योग की ध्यान धारणा में अन्तर्मुखी होकर अनेकानेक रहस्यमय केन्द्रों पर चित्त एकाग्र करना होता है। चित्त अर्थात् अचेतन मन। यौगिक ध्यान को विचार नियन्त्रण तक सीमित रहकर अचेतन मन की क्रिया प्रक्रिया पर अधिकार प्राप्त करना होता है। निष्ठा, प्रज्ञा और श्रद्धा को प्रदीप्त करना। यह उस ‘मेडीटेशन’ से बहुत आगे का चरण है जिसे कौतुकी लोग ध्यान शिक्षा के माध्यम से कराते हैं। किन्तु आत्मा और परमात्मा के मिलन में इस क्षमता का प्रयोग किये जाने की ओर संकेत भी नहीं करते और इसके लिए चरित्र निर्माण तथा भावनात्मक परिष्कार की आवश्यकता नहीं समझते।

प्रचलित ‘योगा’ और मेडीटेशन योग विज्ञान का एक कौतूहल परक पक्ष है। वैसा ही जैसा कि सिद्ध पुरुषों की नकल पर मदारी लोग अनोखे करतब दिखाते हुए बच्चों का मन बहलाते रहते हैं।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118