काश हम दिशा बदल सकें

August 1985

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क्या मनुष्य ने नीचता और नृशंसता ही सीखी है। क्या उसका पराक्रम स्वार्थपरता और विनाश विग्रह के लिए ही है? यह बातें तभी सच मालूम पड़ती है जब भूतकाल में हुए इस प्रकार के उदाहरणों की खोज करते हैं। खोजने में क्या नहीं मिल जाता? यहाँ जमीन में साँप, बिच्छू, काँतर और कानखजूरे ही भरे पड़े हैं? इस प्रश्न का उत्तर सकारात्मक ही नहीं नकारात्मक भी मिलता है यदि ऐसे ही घिनौने जन्तुओं से धरती भरी पड़ी होती तो यहाँ कृषि उद्यान किस प्रकार उगा पाते? और बहुमूल्य खनिजों की सम्पदा कहाँ से उपलब्ध होती? यदि दुष्ट दुराचारी ही इस संसार में भरे होते तो ऋषि तपस्वियों और वीर बलिदानियों की कथा गाथाऐं हमें सुनने को कहाँ से मिलतीं। यह सही है कि कभी कंस, रावण, जरासंध जैसे भी यहाँ उत्पन्न हुए और अनाचारों की भरमार करते रहे हैं। पर जनक, हरिश्चन्द्र, अश्वपति, भागीरथ जैसे राजवंशी भी इसी वसुधा को गौरवान्वित करते रहे हैं।

भविष्य को अन्धकारमय देखने के लिए विज्ञान के सिर पर अनेक दोष मढ़े जा सकते हैं पर शल्य चिकित्सा जैसे अनुसन्धानों में मृत प्राणों को जीवन भी उसी आधार पर मिला है। संचार और परिवहन के- सिंचाई और मुद्रण की अनेक उपयोगी धाराएं भी उसी के माध्यम से हस्तगत हुई हैं। भविष्य को अन्धकारमय देखने के लिए अनेकों कारण और प्रमाण दृष्टिगोचर होते हैं किन्तु सृजन और सहयोग के सभी आधार नष्ट हो गये हों सो बात भी नहीं है।

मनुष्य जाति ज्वार भाटों की अभ्यस्त है। उसे ढेरों समय अन्धकार में गंवाना पड़ता है, पर सदा रात्रि ही नहीं होती। सूरज, चन्द्रमा का प्रकाश हमारी कार्य पद्धति को समुन्नत बनाने के लिए कारगर भी होता है। इतिहास में विनाश के दुर्दिनों की ही भरमार नहीं दिखती, वरन् ऐसा भी होता रहा है कि उपयोगी कठिन कार्य भी मनुष्य ने ही कर दिखाये हैं। स्वयं से धरती पर गंगा उतरने, समुद्र छलाँगने, गोवर्धन उठाने जैसे मिशन दूसरी घटनाओं के रूप में इस प्रकार भी प्रस्तुत हुए हैं कि मनुष्य की अपार सामर्थ्य और सूझ-बूझ का परिचय भी प्राप्त किया जा सकता है।

स्वेज और पनामा की नहरें मनुष्य की अनोखी पुरुषार्थ परायणता है। थल में जल भर देने के प्रयासों में कितनी जन शक्ति, कितनी धन शक्ति एवं कितनी कार्य कुशलता का नियोजन हुआ है और उनके कारण संसार को कितनी सुविधाओं का लाभ मिला है, इसे हम सहज ही देख सकते हैं। चीन की दीवार और मिश्र के पिरामिड, मनुष्य की बुद्धिमता और असाधारण सूझ-बूझ को कार्यान्वित कर दिखाने के प्रमाण हैं। मनुष्य जब सृजन की दिशा में सोचता है तो उसे इतना अद्भुत सोचने और विकट पराक्रम प्रदर्शित करते हुए देखा जाता है जिसके कारण कि आश्चर्यचकित रह जाना पड़े। जलचरों की तरह समुद्र में किलोल करने और पक्षियों की तरह आकाश में स्वच्छन्द विचरते मनुष्य को देखते हैं तो यह विश्वास करते नहीं बनता कि उसे मात्र विनाश ही विनाश आता है वह इस धरित्री को नरक बनाने के लिए ही उत्पन्न हुआ है उसने हत्या की कला में प्रवीणता प्राप्त करने के लिए युद्ध कौशल भर सीखा है। वह अनादि काल से सृजन भी सोचता रहा है और विश्वास करना चाहिए कि उसकी इस सृजन क्षमता का सर्वथा समापन ही नहीं होने जा रहा। उसने श्रम और सहयोग की विशिष्टता को सर्वथा भुला दिया है।

बहुत लम्बा समय नहीं हुआ। नीदरलैण्ड ने समुद्र को पीछे धकेलते-धकेलते उससे 2,05,000 हैक्टर जमीन हथिया ली और अपने देश का क्षेत्रफल 8 प्रतिशत बढ़ा लिया। इस भूमि पर प्रायः ढाई लाख लोग न केवल रहते वरन् खेती-बाड़ी, व्यवसाय, उद्यान, निवास आदि के साधन खड़े कर लिये हैं।

यह कार्य अनायास ही नहीं हो गया। उसके लिए उन्हें उस समुद्र से लड़ना पड़ा। जिसने 1916 में प्रलयंकर बाढ़ बनकर एमस्टरडम का सारा उत्तरी इलाका उदरस्थ कर लिया था और खारा पानी भरकर उस भूमि को बेकार बना दिया था। इस प्रकार मात खाते रहने की अपेक्षा उस देश के निवासियों ने निश्चय किया कि समुद्र को मजा चखना चाहिए। तब कोई अगस्त मुनि तीन चुल्लू में सागर सोखने नहीं आये और न किसी लक्ष्मण ने धनुष बाण उठाकर उसे क्षमा माँगने के लिए बाधित किया। वरन् मनुष्य का कौशल ही आगे आया जिसका कर्तृत्व देखकर आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है। जूडर की खाड़ी में 15 से 50 किलोमीटर की चौड़ाई में प्रायः 130 किलोमीटर धंस कर असाधारण बाँध बांधा गया। यह समुद्र तल से 6 मीटर ऊंचा है। इसकी नींव 180 मीटर चौड़ी है। बांध बनाते समय सन् 1916 से 1920 तक समुद्र के साथ आँख मिचौनी खेलनी पड़ी जैसे ही भाटा पीछे हटता बजरी, सीमेन्ट आदि का इतनी मुस्तैदी से वजन डाला जाता कि जब तक ज्वार वापस लौटे तब तक डाला हुआ मसाला पत्थर जैसी मजबूती पकड़ ले। मिलिक, इंजीनियर, नाविक एक मुस्तैद सेना की तरह छापा मारते और समुद्री उछालों की कमर तोड़ देते। यह प्रयास बिना नागा पूरे 4 वर्ष तक चला और वह प्रयोजन सिद्ध हो गया जिसकी योजना बनाने वालों को स्वप्नदर्शी कहा जाता था। इस टकराव में प्रायः आधा श्रम आधा मसाला समुद्र ने बर्बाद कर दिया तो भी अन्ततः उसे हार ही माननी पड़ी। सन् 1920 में बांध बनकर तैयार हो गया। उसका सिरा इतना चौड़ा और इतना मजबूत है कि उस पर ट्रकों, बसों, और कारों की निरन्तर धमा-चौकड़ी मची रहती है।

इस निर्माण कार्य में जो साधन, उपकरण एवं धन जन का भारी प्रबन्ध करना पड़ा उसे उस छोटे से देश के निवासियों ने किस प्रकार जुटाया होगा और बीच-बीच में आने वाली निराशाजनक कठिनाइयों का किस प्रकार सामना किया होगा। इसका सुविस्तृत विवरण पढ़ने पर पता चलता है कि मनुष्य की सृजनात्मक भक्ति भी कितनी प्रचण्ड है आवश्यकता उसे नियोजित करने भर की है।

संसार में अभावों की शिकायत बहुत की जाती है। जनसंख्या की तुलना में जमीन कम पड़ने की बात भी कही जाती है। पर कभी सृजन के क्षेत्रों पर दृष्टि नहीं जाती। अफ्रीका का इतना बड़ा क्षेत्र वीरान पड़ा है जिसे सहयोगपूर्वक समुन्नत किया जाय तो न केवल उस देश के निवासियों को भारत जैसे एक समूचे देश का उसमें अभिनव निर्वाह हो सकता है। ब्रह्मपुत्र के प्रभाव से बने हुए दलदलों को यदि पर्वतीय चूरे से पाटा जा सके तो एक नया वर्मा बस सकने जितनी भूमि हस्तगत हो सकती है।

पारस्परिक भय और अविश्वास यदि बड़े देश अपने मन से निकाल सकें और मिल-जुलकर प्रस्तुत शक्तियों को विकास कार्यों में लगा सकें तो पिछड़ी हुई और दरिद्र दुर्बल दुनियाँ उतनी ही समृद्ध दृष्टिगोचर हो सकती है जैसी कि आज जापान जर्मनी आदि दृष्टिगोचर होते हैं।

अन्तरिक्षीय कार्यक्रम का उद्देश्य अगले दिनों आकाश को कुरुक्षेत्र बनाना और प्रतिद्वन्द्वियों को भूनकर खाक बना देना है। यदि यह इरादे बदले जा सकें और युद्ध आयुधों में लगने वाली राशि एवं कुशलता को जन साधारण की कठिनाइयों से उबारने में लगाया जा सके तो एक पंच वर्षीय हो जाने में न केवल आर्थिक समस्याओं का समाधान हो सकता है वरन् प्रगति के लिए जिन साधनों की आवश्यकता है उन्हें जुटा सकना नितान्त सरल हो सकता है।

बात दिशा बदलने भर की है विश्व विजय की महत्वाकाँक्षाओं को विश्व निर्माण के लिए नियोजित किया जा सके तो सर्वत्र उतनी खुशहाली उत्पन्न हो सकती है जिसके आधार पर सभी बिना किसी टकराव के जीवनोपयोगी समस्त साधन प्राप्त कर सकें और उन्हें मिल बाँटकर खाते हुए हंसती-हंसाती जिन्दगी जी सकें। इस दिशा परिवर्तन में उतना जोखिम नहीं है जितना कि विनाश पर उतारू मनःस्थिति में अपनी प्रतिपक्षी में तथा अगणित निर्दोषों की न पूरी हो सकने वाली क्षति की सम्भावना है।

आज सबसे बड़ी आवश्यकता मानवी चिन्तन की दिशा बदलने की है। विद्वता, बुद्धिमत्ता की कहीं कमी नहीं। सफलता के एक से एक बड़े कीर्तिमान प्रस्तुत करने वालों की सामर्थ्य और प्रतिभा की कम नहीं आँकी जा सकती। वैभव भी कम नहीं। जितना धन सरकारों के सम्पन्नों के पास है वह इसके लिए पर्याप्त है कि संसार के दो तिहाई वनमानुषों और पिछड़ों को उनकी स्थिति से उबार कर देवोपम न बन पड़े तो भी बुद्धिमान मनुष्यों की तरह सुविधा सम्पन्न जीवन तो जी ही सकते हैं।

जिस परिवर्तन को लाने की आज महती आवश्यकता अनुभव की जा रही है उसे उपलब्ध करने का राजमार्ग एक ही है कि मनुष्य आपा-धापी और छीन-झपट का विचार छोड़कर मिल-जुलकर रहने और सहयोगपूर्वक आगे बढ़ने का मन बनाये और उसी के लिए योजनाबद्ध कदम उठाये।

मनुष्य के पास न साधनों की कमी है न सूझ-बूझ की। उसका सहयोगपूर्ण पराक्रम यदि सृजन की दिशा में नियोजित हो सके तो कोई कारण नहीं कि सर्वत्र संव्याप्त चिन्ता, आशंका, उद्विग्नता, से छुटकारा न मिल सके। स्नेह सहयोग की प्रवृत्ति अपनाई जा सके और जो अभाव इन दिनों खलते हैं उन्हें पूरा करने के लिए नीदरलैण्ड निवासियों जैसा संकल्प किया जा सके तो हर क्षेत्र में हर स्तर की चमत्कारी प्रगति का आश्चर्य देखा जा सकता है।


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