पृथ्वी पर होते रहे परिवर्तन

August 1985

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पृथ्वी की स्थिति में समय-समय पर भयानक परिवर्तन होते रहते हैं। इन्हें महाप्रलय या खण्ड प्रलय कहा जाय तो भी आश्चर्य नहीं। यह परिवर्तन भूत काल में भी हुए हैं और भविष्य में भी उनके होने की सम्भावना है।

इन परिवर्तनों के उपरान्त प्राणी स्वल्प काल में ही विकसित कैसे हो गये यह आश्चर्य की बात है। इसका एक और समाधान निकला है कि पाषाणों के मध्य प्राणी चिरकाल तक जीवित रह सकते हैं। इसी प्रकार यह भी सम्भव है कि मनुष्य भी कहीं सुरक्षित स्थानों पर अपना अस्तित्व बनाये रहे हों।

कहा जाता है कि आदिम काल का मनुष्य अनगढ़ गुफाओं में रहता था, पर अब पर्वतीय प्रदेशों में ऐसे भव्य भवन ढूँढ़ निकाले गये हैं जो प्राकृतिक अनगढ़ नहीं हैं वरन् मनुष्यों द्वारा उच्चस्तरीय कला-कौशल के साथ बनाये गये हैं।

पृथ्वी की, समुद्री द्वीपों की खोज के श्रेय अमुक मनुष्यों को दिये जाते हैं पर प्रश्न यह उठता है कि उनने इतनी जल्दी इतनी सरलतापूर्वक वे स्थान कैसे ढूँढ़ निकाले। इसका समाधान उन मानचित्रों से मिला है जो अतीव पुरातन हैं और पृथ्वी एवं समुद्र की सही स्थिति के विवरण बताने की स्थिति में उपलब्ध हुए हैं। नवीन शोध कर्ताओं ने सम्भवतः इन्हीं मानचित्रों से सहायता ली है और खोज का काम शीघ्रतापूर्वक समग्र रूप से सम्पन्न किया है।

सभ्यताओं का इतिहास इतना नवीन नहीं है जितना कि पाठ्य पुस्तकों में पढ़ाया जाता है। वरन् वास्तविकता यह है कि अनुमानित काल की अपेक्षा कहीं पहले ऐसी सभ्यताओं का विकास विद्यमान था, आज की वैज्ञानिक प्रगति से किसी भी प्रकार कम महत्व की नहीं माना जा सकता।

चेचेन-इंगुशेती पहाड़ियों में पुरावेत्ताओं की एक खोज ने मनुष्य के गुफा निवास की ‘असभ्यता’ के बारे में पुरानी भ्रान्त धारणाओं को भंग कर दिया है। यहाँ बड़ी ऊंचाइयों पर चट्टानों को तराशकर बनाये दो तले-तीन तले आवास मिले हैं, जिन्हें बहुकक्षी गुफाओं की संज्ञा दी जा सकती है। इस गुफा नगरी में लोगों के रहने के अतिरिक्त घरेलू कामकाज और पशुओं के लिए भी जगहें बनी हैं।

सन् 1900 में काईथेरा टापू के पास समुद्र में जब गोताखोरों ने स्पांज ढूंढ़ने के लिए डुबकी लगायी, तो उन्हें एक ध्वस्त जहाज का मलवा मिला। 180 फुट नीचे समुद्र तल पर इस मलबे में जब खोजबीन की तो विभिन्न प्रकार की धात्विक मूर्तियों और बरतनों के अतिरिक्त उन्हें किसी यन्त्र का एक भाग भी मिला। यह यन्त्र का गियर वाला भाग था, जिसमें प्रयुक्त तकनीक अत्यन्त जटिल थी। सूक्ष्म निरीक्षण से यह किसी अत्यन्त परिष्कृत यन्त्र का कोई हिस्सा मालूम पड़ा। सम्भवतः यह किसी खगोलीय कलैंडर का भाग हो, क्योंकि इसमें चन्द्रमा और ग्रह-मण्डलों की स्थितियाँ दिखायी गई हैं।

शोधकर्ताओं ने इस यन्त्र को 100 ई. पू. के हेलेनिस्टिक युग का बताया, किन्तु उनका कहना है कि इस युग में टेक्नलॉजी का अभाव था। जब उस गियर तन्त्र की शुद्धता की परीक्षा की गई, तो इस कसौटी में भी वह खरा उतरा। उसमें त्रुटि एक मिली मीटर के 10 वें भाग से अधिक न थी। यह त्रुटि कोई बहुत अधिक नहीं मानी जा सकती। जब उस काल के लोग टेक्नलॉजी से बिल्कुल ही अनभिज्ञ थे, तो इतना परिष्कृत यन्त्र उन्हें कहाँ से प्राप्त हुआ? वैज्ञानिकों एवं विशेषज्ञों का कहना है कि यह यन्त्र सम्भव है उन्हें किसी अन्तरिक्षीय अतिविकसित सभ्यता से प्राप्त हुआ हो।

सन् 1929 में टर्किश नेशनल म्यूजियम के डायरेक्टर बी. हैलिल एडेम को एक क्षति प्राचीन नक्शे के कुछ टुकड़े प्राप्त हुए। नक्शा रैडसी एवं परसियन गल्फ के क्लीट एडमीरल पीरीरेस द्वारा विनिर्मित है। उक्त एडमीरल ने नक्शे का सन् 1513 में बनाया। म्यूजियम से प्राप्त टुकड़े उसके विश्व नक्शे के ही भाग हैं। सन् 1940 में इसकी अनेक प्रतियाँ तैयार करवायी गईं। सन् 1954 में यह नक्शा विख्यात अमरीकी मानचित्रकार अरलिंग्टन एच. मैलरी के हाथ लगा। मैलरी प्राचीन नक्शे के विशेषज्ञ माने जाते हैं। उन्होंने बताया कि पीरी रेस के नक्शे में महाद्वीपों एवं दक्षिणी ध्रुव को स्पष्ट दिखाया गया है। उनके अनुसार सन् 1513 तक दक्षिणी ध्रुव की खोज नहीं हो पायी थी। उसके मानचित्र में अमरीका का भी उल्लेख है, जिसके बारे में तत्कालीन लोगों को कोई जानकारी नहीं थी। जब दो स्थानों के बीच की दूरी जानने के लिए आधुनिक मानचित्र एवं पीरी रेस के नक्शे का तुलनात्मक अध्ययन किया गया, तो यह जानकर अचम्भा हुआ कि पुराने नक्शे में भी विभिन्न स्थानों के बीच की दूरियों को बिल्कुल सही-सही आँका गया है। इसके अतिरिक्त मानचित्र में विभिन्न स्थानों का सही-सही निरूपण भी नक्शे की विलक्षणता है। विशेषज्ञों का कहना है कि इतना सही मानचित्र किसी अतिविकसित टेक्नलॉजी के बिना सम्भव नहीं। आधुनिक युग में ऐसे मानचित्र बनाने के लिए वायुयानों एवं जलयानों के माध्यम से इन्फ्रारेड फोटोग्राफी एवं प्रतिध्वनि का सहारा लिया जाता है। दक्षिणी ध्रुव के बारे में तो सन् 1949 तक विज्ञानियों को सही जानकारी नहीं थी। फिर इतना सही मानचित्र 15 वीं सदी में कैसे बना लिया गया, जबकि नक्शे में उल्लिखित अधिकाँश स्थानों के बारे में तत्कालीन लोगों की कोई जानकारी नहीं थी।

डेनिकेन का कहना है- नक्शा देवमानवों द्वारा कक्षा में घूमते स्पेश-स्टेशन से बनाया गया और इसे पृथ्वी वासियों को भेंट स्वरूप प्रदान किया।

सन् 1898 में सक्कारा के निकट एक कब्र में वायुयान का एक मॉडल प्राप्त हुआ। वायुयान का नम्बर 6347 उसमें स्पष्ट अंकित है यह माडेल लकड़ी का बना है वजन 3972 ग्राम पाया गया। दोनों डैनों का फैलाव 18 से.मी. हैं, नाक 3.2 से.मी. और इसकी सम्पूर्ण लम्बाई 14 से.मी.। मॉडल का आकार-प्रकार हवाई उड़ान के अनुकूल है। विशेषज्ञों के अनुसार इसके डैने, पूंछ एवं शरीर की लम्बाई का अनुपात एक आदर्श वायुयान का है। इस पर मिश्री भाषा में “पा-डायमेन” अंकित है जिसका अर्थ है “अमन का उपहार”। यह ‘अमन’ कौन हो सकता हैं? डेनिकेन के अनुसार अमन और कोई नहीं अन्तरिक्षवासी देवमानव ही हैं। विभिन्न स्थानों में इस प्रकार के अनेक वायुयान मॉडल पाये गये हैं। ये सभी ‘हाल आफ इजिप्टियन म्यूजियम फार एन्टिक्वीटिज’ में सुरक्षित हैं। वर्तमान समय में यहाँ इस प्रकार के 14 मॉडल उपलब्ध हैं।

कार्सन सिटि, नेवादा के सन्निकट प्रान्तीय जेल के आहाते में उत्खनन के समय सन् 1882 में सैण्ड स्टोन की एक परत में जूते पहने हुए मनुष्य के पद चिन्ह प्राप्त हुए थे। जिनकी लम्बाई 18-20 इंच और चौड़ाई 8 इंच थी। इसके पास ही उस ट्रैक में अनेकों अन्य पशुओं जैसे- हाथी, घोड़े, हिरण, भेड़ियों के पद चिन्ह मिले थे। इन पद चिन्हों तथा शैलाभों की उम्र 2000000 से 3000000 वर्ष आँकी गई थी।

नेवादा के पशिंग काउन्टी स्थित फिशर कैनन क्षेत्र में सन् 1927 में अल्फ्रेड ई. नैप को ट्राइऐसिक लाइमस्टोन में धंसे चमड़े के जूतों के चिन्ह अंकित मिले। प्रिन्टों के फोटोमाइकोग्राफ लेने पर ज्ञात हुआ कि जूतों के चमड़े पतले धागों से हाथों द्वारा टाँके गये थे। इस विधि को 1927 में जूते बनाने वाले अपना रहे थे। ट्राइऐसिक लाइम स्टोन की उम्र 180000000 से 225000000 वर्ष तक आँकी गई।

ओहियो के कोसोक्टन नामक स्थान के समीप उत्खनन करते समय सन् 1837 में बौनों का एक कब्रिस्तान मिला। नर कंकालों की लम्बाई 3 से साढ़े चार फुट लम्बी थी और सभी अलग-अलग लकड़ी के ताबूतों में बन्द करके दफनाये गये थे। बौनी सभ्यता से सम्बन्धित कोई शिल्प तथ्य उपलब्ध न होने के कारण उनकी अवधि निश्चित नहीं हो सकी, लेकिन कब्रों की संख्या देखते हुए इस सभ्यता के कार्य काल और सम्भावित शहर की सम्भावना सुनिश्चित है।

इसी तरह 1891 में ओहियो के एक बहुत बड़े कब्रिस्तानी टीले की खुदाई करने पर एक पुरुष का स्थूल काय भारी भरकम शरीर ताँबे की चद्दर में लिपटा हुआ पाया गया। सिर पर ताँबे की टोपी, हाथ-पैर और पेट-पीठ सभी ताँबे से ढके हुए थे। मुँह के अन्दर मोतियाँ ठुसी हुई थीं और गले में मोतियों तथा भालू के दाँतों से बना हार पहनाया गया था। इस कब्र के समीप ही एक महिला का अस्थि पंजर दफनाया हुआ मिला।

ये सभी कंकाल 500 फीट लम्बे, 200 फीट चौड़े और 28 फीट ऊंचे टीले की 14 फीट गहराई में दफन किए हुए मिले थे।

सन् 1853 में अमेरिका के एक खान उत्खनन में शिलाखण्ड में चारों तरफ से बन्द एक हार्नी लिजार्ड छिपकली निकली। पूर्ण विवरण ज्ञात करने के लिए न्यू मेक्सिको के न्यायाधीश हाटन ने इस छिपकली को वाशिंगटन स्थित स्मिथसोनिएन संस्थान को भेज दिया। पत्थर को तोड़कर बाहर निकाले जाने के बाद यह छिपकली दो दिन बाद मर गई।

1865 में इंग्लैण्ड के दुरहम प्रान्त के हार्टलेपूल वाटरवर्क्स की खुदाई का कार्य प्रगति पर था। 25 फीट की गहराई पर मैग्नीसिया लाइम स्टोन के भारी भरकम पत्थर हटाये जा रहे थे। पत्थर के एक टुकड़े के टूटने पर उस पत्थर के एक छोटे सी गुफा में बन्द एक जीवित टोड टर्र-टर्र करता हुआ बाहर निकला जिसकी आंखें चमक रही थीं और मुँह बन्द था। आवाज नासाछिद्रों द्वारा निकल रही थी। सुप्रसिद्ध भू-विज्ञानी राबर्ट टेलर ने बताया कि टोड की उम्र 6000 (छः हजार) वर्ष की थी।

सन् 1852 में इंग्लैंड के डर्बी प्रान्त में पासविक स्थित खान की खुदाई करते समय मजदूरों को 12 फीट की गहराई में पत्थरों को तोड़ते समय एक बड़े शैल खण्ड के मध्य एक छोटी-सी गुफा में 6 इंच व्यास वाला मेंढक बैठा हुआ मिला। मेंढक की बाह्य त्वचा कैल्शियम कार्बोनिक के क्रिस्टलों से ढकी हुई थी। जैसे ही मेंढक का संपर्क बाह्य वातावरण से हुआ वह मर गया।

इसी तरह 1835 में लन्दन में रेलवे लाइन बिछाते समय मजदूरों ने पत्थर के एक खण्ड को तोड़कर एक जीवित मेंढक निकाला था। प्रारम्भ में मेंढक का रंग चमकीला भूरा था, परन्तु 10 मिनट बाद बाह्य वातावरण के संपर्क में आते ही उसका रंग बदल कर काला हो गया। यह मेंढक चार दिन तक जीवित रहा।

सन् 1786-88 के मध्य फ्राँस के ऐक्सिन प्राविन्स में शहर के समीप बृहत् उत्खनन कार्य जोर-शोर से चल रहा था। खान से पत्थर निकाल कर जस्टिम पैलेस का पुनर्निर्माण कराना था। पत्थरों की चट्टानें बालू और मिट्टी की तहों से अलग-अलग परतों में जमीं थी जिन्हें एक के बाद दूसरी परत की खुदाई करके निकाला जा रहा था। 40 फीट की गहराई में से पत्थरों की 11 वीं परत निकाली जा चुकी थी। बालू हटाकर पत्थरों को तोड़ा गया। उसके नीचे पृथ्वी के गर्भ में समाई हुई 300000000 वर्ष पुरानी मानवी सभ्यता के दर्शन हुए। पत्थरों के खम्भे, अर्धनिर्मित पत्थर, सिक्के, लकड़ी से बने हथौड़े की मुठिया, आठ फीट लम्बा और एक इंच मोटा लकड़ी का सुन्दर बोर्ड तथा कई अन्य प्रकार के बुडेन टूल्स को देखकर सभी हतप्रभ हो गये। उनमें से अधिकाँश चीजें एवं डिजाइनें फ्राँस में 18 वीं सदी में, प्रचलित थीं।

तथ्यों को देखते हुए हमें इस निष्कर्ष पर पहुँचना होगा कि मानव सभ्यता अति पुरातन है और वह जीवाणु से नहीं ब्रह्माण्ड के अन्याय लोकों में निवास करने वाले देव-मानवों से अनुदान में मिली है।


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