क्या पृथ्वी का नक्शा बदलने जा रहा है?

August 1985

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धरातल के स्वरूप में समय-समय पर परिवर्तन होते रहे हैं। इनमें से कुछ ऐसे होते हैं जिनके लिये भूगर्भीय परिस्थितियों को उत्तरदायी ठहराया जा सके। यह क्रम तो चलता ही रहा है और चलता भी रहेगा। विचारणीय प्रश्न यह है कि अन्तरिक्षीय दबाव तथा मानवी उद्धत आचरण की इन परिस्थितियों के निर्माण में कितनी महत्वपूर्ण भूमिका होती है।

पृथ्वी को सबसे अधिक प्रभावित करने वाला घटक सूर्य है। उसकी स्थिति में जब भी तनिक-सी उथल-पुथल होती है तो धरातल और समुद्र स्थल का सन्तुलन भी गड़बड़ा जाता है और नक्शा कुछ से कुछ बदल जाता है। इसी प्रकार मनुष्य जब भूगर्भ की सम्पदा का दोहन करने में अत्यधिक जल्दबाजी करता है तो भी स्थिति बेतरह बिगड़ जाती है।

इन दिनों तेल, कोयला और धातुओं के उत्खनन के लिए अत्यधिक आतुरता बढ़ती जा रही है। इस बढ़ती लिप्सा का कारण यह है कि कारखानों के लिए इनकी अत्यधिक आवश्यकता पड़ रही है। द्रुतगामी वाहन भी इन्हीं के आधार पर चलते हैं। रेल, मोटर, जलयान, वायुयान आदि के लिए ईंधन अपेक्षित होता है। विद्युत उत्पादन में भी प्रायः इन्हीं की आवश्यकता पड़ती है।

बढ़ी हुई जनसंख्या के लिए प्रयास यह किए जा रहे हैं कि भूतल से जितना अधिक पानी निचोड़ा जा सके, निचोड़ लिया जाय। इस सबका पृथ्वी का आन्तरिक स्थिति पर भी प्रभाव पड़ता है। भूगर्भ बड़ा सम्वेदनशील है। ठीक हृदय की तरह। जब शरीर पर चिन्ता, भाव सम्वेदना, आहार-व्यतिक्रम, बढ़ते कोलेस्टेरॉल, रक्तवाही नलिकाओं के मोटे होने से दबाव पड़ता है तो हृदय चीख उठता है व इसे एन्जाइना पेक्टोरिस या मायोकार्डियल इस्चीमिया कहते हैं। भूगर्भ भी जब दबाव सहन नहीं कर पाता तो ज्वालामुखी फूटने, भूकम्प आने से लेकर पर्यावरण और ऋतु परिवर्तन का ऐसा अवाँछनीय चक्र चल पड़ता है जो भूगर्भीय समस्वरता में असाधारण परिवर्तन उत्पन्न करता है और उसके कारण स्थिरता पर भारी दबाव पड़ता है। इस प्रकार के परिवर्तनों का मनुष्य जीवन पर कितना बुरा प्रभाव पड़ता है, यह सहज ही समझा जा सकता है।

पुरातत्त्ववेत्ताओं ने ईसा से 6000 वर्ष पुराने इतिहास में पृथ्वी पर हुई उलट-पुलट का विवरण ढूँढ़ निकाला है। ‘‘वर्ल्ड एथनालाजी फ्रॉम 6000 बी. सी.” पुस्तक में ऐसे प्रमाण प्रस्तुत किए गये हैं जिनसे प्रतीत होता है कि नदियों के प्रवाह बदल गए। धरातल पर समुद्र घुस पड़े और समुद्रों की हलचलों ने कितने ही नये द्वीप विनिर्मित किए।

“साइण्टिफिक अमेरिकन” (अप्रैल 85) पत्रिका में वैज्ञानिक द्वय डा. ग्रेगरीविंक एवं जैसन भॉर्गन ने “द अर्थ्स हाँट स्पॉट्स “ शीर्षक से एक निबन्ध प्रस्तुत किया है जिसमें उन्होंने इस विषय का विस्तार से विवेचन किया है। वे कहते हैं कि भूगर्भ शास्त्री यह मानते हैं कि पृथ्वी की सतह स्थिर नहीं है। इसमें कुछ बड़े-बड़े टुकड़े (प्लेट्स) तैरते रहा करते हैं और कभी-कभी टकराते भी रहते हैं। विज्ञान की इस शाखा को “प्लेट टेक्टोनिक्स” नाम दिया गया है। इसके अनुसार पृथ्वी की 100 से 150 किलोमीटर मोटी ये प्लेटें होती हैं जिस पर भूखण्ड बने होते हैं किन्तु समुद्र के नीचे इस प्लेट की मोटाई 50 से 75 किलोमीटर पायी जाती है। इस प्लेट को भूविज्ञानी “लिथोस्फियर” कहते हैं। इस परत के नीचे 200 किलोमीटर मोटी दूसरी परत होती है जिसे “एस्थिनोस्फियर” कहा जाता है। आज भी भूभौतिकी विज्ञान का मूल विषय यह जानना है कि जो स्थिर है, उसके ऊपर “लिथोस्फियर” किस प्रकार रेंगता है, किस दिशा में सरकता है।

टोरोंटो विश्व विद्यालय के अध्यापक डा. ज.स्नो. विल्सन ने इस दिशा में विशेष अध्ययन हेतु हवाई द्वीप की यात्रा की। वहाँ के निवासियों के बीच प्रचलित दन्त कथाओं तथा भूभौतिकी सिद्धान्तों के बीच सम्बन्ध स्थापन का पहला प्रयास उन्हीं ने किया।

इस सम्बन्ध में हवाई द्वीप में एक दन्त कथा प्रचलित है। वहाँ के ज्वालामुखी की एक देवी ‘पीली’ है जिनकी एक आँख से आग निकला करती है। पहले उनका निवास हवाई द्वीप के पश्चिम में स्थित क्वाई द्वीप में था। किन्तु समुद्र के देवता ने इन्हें जब भगाया तो वे ओई द्वीप में आई व आकर वहाँ डेरा जमा लिया। वहाँ से भी भगाई जाने पर वे मावी द्वीप में रहीं और अब अन्ततः हवाई द्वीप में आकर बस गई हैं तथा किलाऊ नामक ज्वालामुखी के मुख से ज्वाला उगला करती हैं। यह सत्य है कि यह ज्वालामुखी भूगर्भीय प्लेटों की जरा-सी हलचल से फूट पड़ता है पर इसका इस किंवदंती से कितना सम्बन्ध है, कहा नहीं जा सकता। हाँ, समुद्र के ज्वार-भाटे, तूफान आदि आने के पूर्व संकेत लावा निकलने के पूर्व मिलने लगते हैं। श्री विल्सन इस कथा को भूगर्भ विधा के “प्लेट टेक्टोनिक साइकल” से जोड़ते हैं। भूगर्भ विद्या विशारदों ने पृथ्वी की धरातल तथा महासमुद्रों में पाई जाती ज्वालामुखी श्रृंखलाओं की गणना भी की है व उनका वर्गीकरण पाया है कि उनमें से कुछ नई हैं एवं कुछ अति प्राचीन। पुरानी और नई श्रृंखलाओं को जोड़ने से एक सम्पूर्ण कड़ी बनती है। इस दिशा को भूगर्भ शास्त्रियों ने लिथोस्फियर की भिन्न-भिन्न प्लेटों के रेंगने की दिशा मानी है।

हवाई द्वीप की उक्त कथा के अनुसार पश्चिम का ज्वालामुखी पूर्व की ओर खिसकता रहा। इस बात की पुष्टि भूगर्भ शास्त्रियों द्वारा बनाए गये रेखाचित्र भी करते हैं लेकिन इस बात का अध्ययन 200 वर्षों से हो रहा है कि किसी दिशा विशेष में प्लेट्स की सरकन क्यों होती है? उसका प्रेरक बल क्या है? आज से लगभग एक शतक पूर्व अमेरिकी भूगर्भ शास्त्री डाक्टर जेम्स ह्वाइट ने यह संशोधन प्रस्तुत किया था कि लिथोस्फियर के नीचे लावा की एक जेट धारा है जिसका प्रारम्भ हवाई द्वीप के पूर्व से होता है और पश्चिम में समापन।

अमेरिका का येलोस्टोन भी इसी प्रकार ऐसा नवीनतम स्थान है। इसका प्रारम्भ मध्य अमेरिका से होता है। खिसकने की गति क्रमशः पश्चिम से पूर्व की ओर देखी गयी है। इस प्रकार भू-पटल पर अन्य स्थानों पर भी हॉट-स्पॉट्स के स्थानान्तरण का चित्राँकन किया गया है। यह पाया गया है कि कालान्तर में पुराने स्पॉट्स घिसते जाते हैं और नवीन बनते जाते हैं। यह प्रक्रिया सारी पृथ्वी के भूगर्भ में घटती देखी जा सकती है।

उपरोक्त अन्वेषणों के आधार पर गम्भीर विचार करने वाले यह आशंका गलत व्यक्त नहीं करते कि अगले दिनों कोई ऐसी उथल-पुथल हो सकती है जो पृथ्वी के नक्शे में असाधारण परिवर्तन न करके रख दें। जिस तरह महाद्वीपों के खिसकने से भूतल की आज की स्थिति हुई एवं समुद्र ने एटलांटिस उप महाद्वीप का स्थान ले लिया, हो सकता है, अगले दिनों खिसकते जाने की प्रवृत्ति बढ़े एवं पृथ्वी वैसी न रहे जैसी कि आज दिखाई देती है।


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