निराकार और साकार का स्पष्टीकरण

August 1985

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निखिल ब्रह्माण्ड में संव्याप्त नियामक सत्ता का कोई एक आकार नहीं बन सकता। जो एक स्थानीय होगा वह सर्वव्यापक नहीं बन सकता। एक स्थान पर तो उस पर ब्रह्म सत्ता का एक अंश या एक घटक ही किसी कलेवर में सीमाबद्ध देखा जा सकता है। व्यापक अग्नि तत्व समेट कर एक स्थान में केन्द्रित नहीं किया जा सकता। मोमबत्ती में जलता हुआ उसका एक अंश ही देखा जा सकता है। इस प्रकार प्रत्येक प्राणी या पदार्थ में भगवान की अंश रूप में झाँकी की जा सकती है। पर उसे पूर्ण ब्रह्म या परब्रह्म नहीं कह सकते हैं। मिट्टी के ढेले को चन्दन, पुष्प, कलावा आदि से सुसज्जित करके उसे पूजा प्रकरण में गणेश बनाया जाता है। भक्त का श्रद्धा संवर्धन का कार्य इतने से भी सध जाता है। पर कोई यह दावा नहीं कर सकता कि ब्रह्माण्ड व्यापी गणेश तत्व सिमट कर उसके जल कलश में केन्द्रित हो गया है। इस प्रकार समझने को तो किसी भी प्राणी या पदार्थ को भगवान का अंश प्रतीक मान सकते हैं। पर यह मान्यता भर की बात है। तत्त्वतः वह व्यापक सत्ता अपने व्यापक रूप में ही समग्र रहेगी।

भगवान का प्रत्यक्ष दर्शन करने का आग्रह अर्जुन को ही रहा था। वह इसके लिए हठ कर रहा था। कृष्ण उसे बार-बार समझा रहे थे कि चर्म चक्षुओं से आज तक भगवान को न किसी ने देखा है न कोई देख सकेगा। आग्रह हो तो ज्ञान चक्षु भाव चक्षु- इसके लिये खोलने पड़ेंगे। कृष्ण ने अर्जुन को ज्ञान चक्षु प्रदान करते हुए अपना विराट् रूप दिखाया और कहा देख, यह विश्व ब्रह्माण्ड ही मेरा रूप है। अर्जुन ने वैसी ही भावना की और अपना समाधान कर लिया। यशोदा भी ऐसे ही प्रत्यक्ष दर्शन चाहती थीं उन्हें भी विराट् रूप दिखाकर सन्तोष कराया गया। राम के समय भी कौशल्या और काकभुसुण्डि इसी प्रकार विराट् विश्व की भाव कल्पना से अपना समाधान कर सके।

पूजा प्रयोजन के लिए काष्ठ, मृतिका, पीतल, कांस्य आदि धातुओं की मूर्तियाँ बनाई जाती हैं। दिवाली के अवसर पर गणेश, लक्ष्मी प्रायः मिट्टी के बने ही पूजे जाते हैं। बंगाल में नवरात्रि के समय दुर्गा की और महाराष्ट्र में गणेश पूजा के अवसर पर गणेश जी की भव्य मूर्तियाँ बनती हैं वे मिट्टी, लुगदी, जूट, बांस आदि को मिलाकर बनाई जाती हैं। पूजा के उपरान्त किसी जलाशय में विसर्जन कर देते हैं। इसे प्रतीक पूजा कहते हैं। मन्दिरों में पत्थर या धातु की प्रतिमाएं स्थापित की जाती हैं और भक्त जन उसी बैसाखी के सहारे अपनी भाव यात्रा का अभ्यास जारी रखते हैं। छोटे बच्चों को जब तक चलना नहीं आता तब तक तीन पहियों की गाड़ी हाथ में थमाकर चलने का अभ्यास कराते हैं। स्कूल में भर्ती होने वाले बालकों को क-कबूतर, ख-खरगोश, ग-गाय, घ-घड़ी की छवियां दिखाकर स्मरण और उच्चारण का अभ्यास कराते हैं। किन्नर गार्डन के लकड़ी के टुकड़े भी इस प्रयोजन में सहायता करते हैं। प्रतीक पूजा का विज्ञान इसी आवश्यकता की पूर्ति करता है। इतने पर भी बच्चे जानते हैं कि तीन पहिये की गाड़ी पैर नहीं हो सकती, कबूतर, खरगोश, गाय, घड़ी देखते रहने से शिक्षा का प्रयोजन पूरा नहीं हो सकता। किन्नर गार्डन के लकड़ी के टुकड़े जेबों में भरे फिरने भर से कोई विद्वान नहीं बन सका है। यह सब आरम्भिक आश्रय मात्र हैं। देव पूजा में प्रतिमाऐं, उस तत्व का स्मरण भर दिलाती हैं और बिखरे हुए ध्यान को एकाग्र करने के काम आती हैं।

सजीव सत्ताओं के बीच घनिष्टता उत्पन्न करने का काम प्रेम करता है। वह अन्तःकरणों को परस्पर जोड़ने का गोंद है। इसीलिए प्रेम को परमेश्वर कहा गया है। भक्त और भगवान के बीच घनिष्ठता स्थापित करने के लिए प्रेम भावना प्रदीप्त करनी होती है। मनुष्यों के बीच भी यही अवलम्बन काम देता है। इससे पराये अपने बन जाते हैं। इसके अभाव में अपने भी परायों की अपेक्षा अधिक दूर लगते हैं। पति-पत्नी, विवाह से पूर्व अपरिचित होते और दूर रहते हैं पर जब उनके भीतर आत्मीयता उगती और प्रेम भावना उफनती है तो एक दूसरे के लिए प्राण प्रिय हो जाते हैं। दो शरीर एक आत्मा जैसी अनुभूति होती है। बच्चे, कुटुम्बी, मित्र, पड़ौसी इसी आधार पर आत्मीयता के बन्धनों में बंधे होते हैं और अपने ही शरीर के अंग अवयवों जैसे लगते हैं। जड़ पदार्थों को परस्पर जोड़ने के लिए ठोकने, सरेस चिपकाने, सिलाई या बैल्डिंग करने जैसे उपाय काम में लाये जाते हैं। आत्माओं को एकीभूत बनाने के लिए प्रेम ही एक मात्र उपाय है।

आत्मा को परमात्मा के निकटतम लाने ले जाने के लिए उच्चस्तरीय प्रेम का अभ्यास करना पड़ता है। उच्चस्तरीय का तात्पर्य है- उत्कृष्ट, आदर्श, निस्वार्थ, पुनीत। बाजारू प्यार तो रण्डी भडुओं के बीच भी होता है। ठग अपनी शिकार को मीठी बातें करके फंसाते हैं। चाटुकारों का धन्धा ही यह है। चमचागिरी से जिसे चुना जाता है उसके प्रति असमय सद्भावना का लवादा ओढ़ना पड़ता है। यह बाजारू बातें हुईं जिसमें झूठ-मूठ का प्रेम दिखाया जाता है। किन्तु सच्चे आत्मीयजनों के लिए प्यार की परिपूर्ण वास्तविकता रहती है। आत्मा और परमात्मा के बीच घनिष्ठ आत्मीयता उत्पन्न करने के लिए उच्चस्तरीय प्रेम का आश्रय लेना पड़ता है।

प्रेम की प्रकृति ऐसी है जो दृश्यमानों के साथ ही निभती है। अदृश्य के प्रति नहीं। वायु, ऊष्मा, ऊर्जा, प्रकाश, शब्द आदि शक्तियाँ निराकार हैं। उनका उपयोग ही साधनों से हो सकता है पर इनसे प्रेम नहीं हो सकता। प्रेमी का शरीर धारी होना आवश्यक है। वस्तुएं भी तभी प्यारी लगती हैं जब उनका कोई आकार हो। साकार उपासना में इष्टदेव की प्रतिमा इसी प्रयोजन के लिए कल्पित करनी पड़ती है और उस कल्पना में घनिष्ठता का पुट लगाना पड़ता है।

आत्मिक प्रगति के तीन आधार हैं (1) ज्ञान (2) कर्म और (3) भक्ति। ज्ञान के लिए स्वाध्याय, सत्संग, चिन्तन और मनन से काम लेना पड़ता है। कर्म के लिए उद्देश्यपूर्ण प्रबल पुरुषार्थ की आवश्यकता होती है। भक्ति के लिए कोई उच्चस्तरीय आधार भगवान का गढ़ना पड़ता है। यों प्यार तो स्त्री बच्चों से भी होता है पर उसके पीछे स्वार्थ और आदान-प्रदान के तत्व काम करते हैं। इस अभ्यास को आगे बढ़ाने के लिए आदर्श के समुच्चय इष्टदेव की प्रतिमा गढ़ते हैं और एकान्त एकाग्रता के समय अंतर्मुखी होकर उसके साथ अपने को घुला देने की भावना करते हैं। हिन्दू समाज में, राम, कृष्ण, शिव, सूर्य, हनुमान, दुर्गा, सरस्वती, गायत्री आदि की छवि इतनी अच्छी तरह अन्तःक्षेत्र में उभारते हैं जिसमें वह काल्पनिक न होकर वास्तविक प्रतीत होने लगे। अन्य धर्मावलम्बी अपने-अपने मजहब में ईश्वर की जो छवियाँ प्रचलित हैं उन्हें काम में ले सकते हैं। ईसाई धर्मानुयायी ईसा, मरियम की, मुसलमान पैगम्बर, अल्लाह की, बौद्ध बुद्ध की छवियों को इष्टदेव मानते हैं और उनकी छवि को इतनी अधिक आत्मीयता से निहारते हैं मानो वे काल्पनिक न होकर वास्तविक ही हों। इसी कारण विभिन्न धर्मावलम्बियों के बीच इस प्रसंग को लेकर कोई विग्रह नहीं होता क्योंकि वे वास्तविकता को जानते हैं कि इष्टदेव अपनी ही भावभूमि में अपने ही द्वारा गढ़े गये हैं।

प्रेम की एक प्रकृति और है कि वह घनिष्ठ बनाने के लिए पूर्वाभ्यासों का सहारा लेता है और कोई रिश्तेदारी जमाता है। प्रियजनों में, माता, पिता, सहायक, स्वामी, सखा, पति प्रमुख हैं। भगवान को अपने से ऊंचे स्तर का रखना है इसलिए पत्नी पुत्र या नौकर के रूप में वह प्यार निम्न स्तरीय हो जाता है। इष्टदेव की छवि के साथ उपरोक्त उच्च सम्बन्धियों में से एक मानकर अपने आत्मीय अनन्यता बढ़ानी पड़ती है। इसमें भावोद्रेक होने लगते हैं। विश्वास बंधता है श्रद्धा तत्व को अपने भीतर अधिकाधिक मात्रा में बढ़ाने का अवसर मिलता है।

प्रतिमा पूजन का मूल उद्देश्य श्रद्धा संवर्धन का आधार निश्चित करना है। आत्मिक सफलताओं में श्रद्धा सबसे बड़ा तत्व है। मीरा के गिरधर गोपाल, बोडाना के रनछोड़जी, रामकृष्ण परमहंस की काली, एकलव्य के द्रोणाचार्य श्रद्धा के कारण ही अपनी चमत्कारी शक्ति का परिचय दे सके थे। साकार उपासना की विशेषतया इसी निमित्त आवश्यकता पड़ती है। जो आस्तिक नास्तिक, साकारवादी निराकारवादी, सभी क्षेत्रों में ऐसे श्रद्धा संवर्धक आधारों का आश्रय लिया जाता है। मुसलमान संगे असवद के प्रति असीम श्रद्धा रखते हैं। राष्ट्रीय क्षेत्रों में झण्डे का श्रद्धापूर्ण सम्मान किया जाता है। कलश स्थापन, दीपक प्रज्ज्वलन आदि के पीछे यही भाव है। तत्त्वतः भगवान को सर्वव्यापी निराकार मानने वालों को भी श्रद्धा संवर्धन के लिए-भक्ति भावना विकसित करने के लिए प्रतीक पूजा का आश्रय लेना पड़ता है। क्रमिक साधना का यह एक सुनिश्चित अंग है।

विभिन्न धर्मों, सम्प्रदायों एवं परंपराओं में अनेकानेक प्रतिमाओं को मान्यता मिलती चली आई है। इनमें से जिनके साथ पूर्व घनिष्ठता चल रही हो उसे चलते रखा जाता है। गायत्री उपासना में साकार उपासना वाले हंसारूढ़ देवमाता को प्रतीक बनाते हैं और निराकारवादी प्रातःकाल के उदीयमान स्वर्णिम सूर्य-सविता का ध्यान करते हैं। ध्यान या पूजन के साथ घनिष्ठ आत्मीयता की भावना करना आवश्यक है।

श्रद्धा के संयोग से ही प्रतिमा में शक्तिदायिनी क्षमता उत्पन्न न हो तो फिर काम नहीं चलेगा। मुसलमानी काल में सोमनाथ, विश्वनाथ, कृष्ण जन्मभूमि, राम जन्मभूमि आदि की प्रतिमाओं को यह कहकर खण्डित किया गया कि इनमें निजी शक्ति होगी तो तोड़ने में अनिष्ट करेंगी पर वैसा कुछ नहीं हुआ। स्पष्ट है कि स्थापित प्रतीक अपने आप में शक्ति पुँज नहीं होते श्रद्धा का आरोपण ही भक्त के अन्तराल को हुलसित करता है।

इष्टदेव को सद्भावनाओं, सद्गुणों और सत्प्रवृत्तियों का केन्द्र माना जाय। पवित्रता और प्रखरता का भांडागार। उसके साथ प्रेम सम्बन्ध स्थापित करते हुए एक ही भाव रखा जाय समर्पण। द्वैत की समाप्ति और अद्वैत का आरम्भ जिस प्रकार आग में ईंधन पड़ने से तद्रूप हो जाता है समझा जाना चाहिए कि आत्मा सत्ता परमात्मा की विभूतियों के साथ एकीभूत हो रही है। नाला नदी में मिलकर नदी बनता है। बेल पेड़ से लिपटकर उतनी ही ऊंची उठ जाती है। पोली बांसुरी वादक की फूँक से स्वर निकालती है। पत्नी अपना अस्तित्व पति के व्यक्तित्व में घुला देती है, अनुभव करना चाहिए अपनी सत्ता इष्टदेव के साथ एकीकार हो रही है और परमात्मा की पवित्रता, प्रखरता अपनी अन्तरात्मा के कण-कण में ओत-प्रोत हुई जा रही है।

इस अभ्यास में बढ़ी हुई भक्ति भावना को अधिक व्यावहारिक बनाने का एक ही व्यावहारिक स्वरूप है कि इस विश्व उद्यान को अधिक सुखी, समुन्नत और सुसंस्कृत बनाने के लिए अपनी समस्त क्षमताओं का उत्सर्ग कर दिया जाय। व्यायामशाला में अर्जित की गई बलिष्ठता का दंगल में अथवा दूसरे सत्प्रयोजनों में खर्च किया जाता है। निश्चय होना चाहिए कि भक्ति भावना का इष्टदेव के साथ एकात्म भाव स्थापित करने के उपरान्त जो अभिवर्धन न किया गया है उसे प्राणिमात्र की सेवा साधना में-जनमानस के परिष्कार में-सत्प्रवृत्ति संवर्धन में किया जायेगा। ऐसा न होगा कि पूजा के समय भाव तरंगें उठाकर उसी मनोविनोद को जहाँ का तहाँ समाप्त कर दिया जाय। भगवत् भक्ति की सार्थकता उसके इस विराट् विश्व को अधिकाधिक हरा-भरा फला-फूला बनाने में है।

स्मरण रहे इस भक्ति भावना की परिपुष्टि के लिए इष्टदेव के साथ एकात्म होने में याचना जैसा कुछ नहीं है। प्रेम में दिया ही दिया जाता है उसमें लेने की कहीं कोई गुंजाइश नहीं है।

भगवान के दर्शन को लेकर अति भ्रम पैदा करना व्यर्थ है। वह तो भक्त की अपनी निज की भावना है जो घनिष्ठ होने पर दिवा स्वप्न की तरह दृष्टिगोचर होती है। भगवान की मूर्ति रही भी होती तो वह केवल एक होती। हर सम्प्रदाय वालों के लिए अलग-अलग प्रकार के रूप वे कैसे बनाते और दर्शन देने के लिए अपना लोक अथवा काम छोड़कर कैसे भागे आते। इसलिए प्रतीकों से ही काम चलाना चाहिए प्रत्यक्ष दर्शन का आग्रह किसी को भी नहीं करना चाहिए।


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