दिल्ली में एक संत थे- हजरत निजामुद्दीन। उनके यहाँ ईश्वर की वन्दना वाला संगीत चलता ही रहता था।उन दिनों दिल्ली के राजा थे- गयासुद्दीन तुगलक। उनने संत को गाना बजाना बन्द करने का हुक्म भेजा। उनने फरमान मानने से इनकार कर दिया।तुगलक ने सीधा दण्ड तो न दिया पर उन्हें हैरान करने की ठानी।निजामुद्दीन एक बावड़ी बनवा रहे थे। उसमें लगे मजूरों को उनने किले में काम करने के लिए बुला लिया। ताकि काम रुक जाय।मजूर दिन में किले का काम करते और रात को चुपके से बावड़ी बनाने आ जाते।रात को दिये की जरूरत पड़ती। तेल के ढेरों दिये जलते और बावड़ी बनती।तुगलक ने हुक्म दिया- हजरत के हाथों कोई तेल न बेचे।हजरत ने पानी भर कर दिये जलाना शुरू कर दिया और बावड़ी बनती रही।इस चमत्कार से तुगलक का शिर नीचा हो गया बावड़ी पूरी होने तक पानी के चिराग जलते ही रहे।तब से उस बावड़ी का दरगाह का नाम चिराग निजामुद्दीन पड़ गया।