संकल्प बल और स्वस्थता

August 1985

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सभी रोग भावना से सम्बन्धित नहीं होते। कुछ ऐसे शारीरिक कष्ट होते हैं जिन्हें मनोवैज्ञानिक रूप से दूर किये बिना भी उनसे उत्पन्न तकलीफों से छुटकारा पाया जा सकता है।

एक फ्राँसीसी प्रौढ़ जो कि काफी हृष्ट-पुष्ट और स्वस्थ था, चालीस की अवस्था में ‘आक्राइटीस’ रोग से आक्रान्त हो गया। कुछ दिनों तक इसके ग्रस्त रहने के उपरान्त असीम पीड़ा शुरू हुई, लेकिन कुछ ही दिनों में वह दौर समाप्त हो गया और वह विक्रेता के रूप में यात्रा पर निकल पड़ा।

अन्तः में उसे घड़ी का सहारा लेना पड़ा। पैर और उंगलियों के जोड़ो में भयंकर गाँठें पड़ गईं। एक यात्रा में उसकी पत्नी भी उसके साथ थी। उसकी हालत बहुत ही दयनीय थी। आज वह गलियों में लड़खड़ाता हुआ चल रहा था तथा चलने में अपनी असमर्थता जाहिर का रहा था।

तभी अचानक एक नवयुवक उनके सामने से गुजरा। वह काफी प्रसन्न था तथा सीटी बजाते हुए जा रहा था। उसके हाथ नहीं थे। उनकी जगह उन्होंने हुक लगा रखा था। महिला ने अपने पति का उस ओर ध्यान आकर्षित किया। उसे देखकर उनके दिमाग में एक ऐसे युवक का चित्र उभरा जिसके समक्ष अपना सारा का सारा जीवन अभी भी पड़ा हुआ हो, जिनके हाथों को काट दिया गया हो और उनकी जगह हुक लगे हों। फिर भी वह खुश हो।

युवक को अति प्रसन्न देखकर उस व्यक्ति ने भी दृढ़ संकल्प लिया कि मैं भी अब किसी से कोई शिकायत नहीं करूंगा। इसके बाद उसे अनेक प्रकार की बीमारियाँ हुईं। उसका यकृत बढ़ गया। उसने अपनी नेत्र ज्योति खो डाली, उंगलियां इतनी मुड़ गईं कि बटन लगाना भी दूभर हो गया। फिर भी उसके मुँह से आह तक नहीं निकली।

अब वह काफी खुश था मनोबल उसका दृढ़ था। हालाँकि उसकी शारीरिक समस्याओं का निदान नहीं हो पाया था। उसकी मुड़ी उंगलियाँ पूर्ववत् थीं। यकृत अभी भी बढ़ा हुआ था, लेकिन उसने उन सभी समस्याओं का हल ढूंढ़ निकाला था।

जिन्हें ईश्वर पर विश्वास होता है वे समस्याओं के रहते हुए भी उनकी तकलीफों पर विजय प्राप्त कर लेते हैं।

इस रोगी ने ऋणात्मक विचारणाओं को अपने से बिल्कुल निकाल दिया। अतः आक्राइटीस रोग यद्यपि रहा अवश्य पर उसके लिए वैसा कष्ट साध्य नहीं रहा।

दृढ़-संकल्प और विधेयात्मक कथन भी स्वास्थ्य पर चमत्कारिक असर डालते हैं। यदि प्रतिदिन स्वास्थ्य के प्रति दृढ़तापूर्वक विधेयात्मक कथन यथा- ‘‘मैं निरोग हूँ, स्वस्थ हूँ। कभी भी रोगी नहीं बनूँगा।” आदि आदि कहा जाय तो बहिरंगों एवं अन्तरंगों पर उसका अनुकूल प्रभाव पड़ता है और सचमुच व्यक्ति आजीवन स्वस्थ बना रहता है। इसके विपरीत यदि निषेधात्मक कथन कहा जाय तो स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। ग्रन्थियाँ एवं अन्य अंतरंग स्वाभाविक रूप से अपना काम नहीं कर पाते। फलतः शारीरिक विकार उत्पन्न होने लगता है।

“सायकोसोमैटिक मेडिसिन अकादमी” के भूतपूर्व अध्यक्ष एवं फिजीसियन, अल्फ्रेड जे. केन्टर ने यहाँ तक सचेत किया है कि हमें स्वास्थ्य के प्रति अर्ध-धनात्मक कथन भी नहीं कहना चाहिए। यथा- ‘‘मैं आज बीमार नहीं पड़ूंगा।” इसके बदले हमें पूर्ण धनात्मक कथन का प्रयोग करना चाहिए, जैसे मैं आज अच्छा हो जाऊंगा।”

डा. केन्टर का कहना है कि ये सभी वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित हैं। यदि ऐसे दृढ़-संकल्प को अपनाकर अपने दैनिक जीवन में उसे व्यवहार में लाया जाय तो सेहत अच्छी हो जायेगी। जीवन-अवधि बढ़ जायेगी, स्फूर्ति और ताजगी का आभास होगा, खुशहाली बढ़ जायेगी एवं मानव जीवन का सबसे बड़ा उपहार- ‘शान्ति’ मिलेगी।

एक व्यक्ति की एक दुर्घटना में मृत्यु हो गई। जब उसका शव परीक्षण किया गया तो उसमें बहुत तरह की शिकायतें पायी गईं। उसके दिल और वृक्क खराब थे। टी. बी. और अल्सर से भी वह ग्रस्त था। इतना सब होने के बावजूद भी वह 84 वर्ष की आयु में पहुँच चुका था। उसके बारे में डाक्टरों का कहना था कि इसे 30 वर्ष पहले मर जाना चाहिए था। उसकी उत्तरजीविता के राज के बारे में जब उसकी पत्नी से पूछताछ की गई तो उसने बताया कि वे हमेशा इस बात पर दृढ़ रहते थे कि “हमारा आने वाला कल बहुत अच्छा होगा।”

इस प्रकार संकल्प-शक्ति के द्वारा रोगों पर नियन्त्रण रखा जा सकता है एवं दीर्घायु बना जा सकता है। अच्छी भावना, संकल्प, एवं व्यवहार को अपने दैनिक-जीवन में अपना कर कोई भी आजीवन स्वस्थ रह सकता है।

आशावादी चिन्तन के निम्न सिद्धान्तों को जो कि तथ्य परक है, अपना कर स्वास्थ्य लाभ किया जा सकता है-

1- दृढ़तापूर्वक यह स्वीकारना चाहिए कि मैं स्वस्थ हूँ।

2- अपने मन-मस्तिष्क में अपना चित्र एक अच्छे व्यक्ति के रूप में बनाये रखना चाहिए।

3- अद्भुत जीवनी शक्ति प्रदान करने के कारण भगवान का प्रतिदिन बार-बार धन्यवाद करना चाहिए।

4- मन को बेकार की चिन्ताओं एवं परेशानियों से मुक्त रखने का हर सम्भव प्रयत्न करना चाहिए। बैर-भाव, शत्रुता, पश्चाताप, हीनता, नैराश्य आदि को मन से निकाल कर उनकी जगह अच्छे स्वास्थ्यकर विचार लाना चाहिए।

5- वैसी कोई भी चीज हमें अपने अन्दर नहीं लानी चाहिए जो शरीर के विभिन्न तन्त्रों को कमजोर कर दे।

6- अपना शारीरिक वजन उतना ही रखना चाहिए जितना डाक्टर के अनुसार होना चाहिए।

7- नियमित व्यायाम अच्छे स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है। इसके चयन में इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि कौन-सा व्यायाम हमारे लिए रुचिकर है। किसी ऐसे व्यायाम का चयन नहीं करना चाहिए जो अपने लिए उबाऊ हो जिससे हम उसमें अनियमित बन जायें।

8- अपनी शारीरिक जाँच नियमित रूप से करवाते रहना चाहिए।

9- ‘‘आत्मा अथवा मन को आरोग्य किये बिना शरीर को आरोग्य करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए।” यह प्लेटो का प्रसिद्ध कथन है। सचमुच, मन को अस्वास्थ्यकर विचारों से मुक्त कर ही हम अच्छा स्वास्थ्य प्राप्त कर सकते हैं।

स्वास्थ्य का ठीक रहना नित्य के जीवन व्यापार के लिये अनिवार्य है। स्वस्थ शरीर ही सही चिन्तन कर पाता है एवं सही चिन्तन ही स्वल्प काया के लिये उत्तरदायी है। यह एक प्रतिष्ठित प्रामाणित तथ्य है। बहिरंग उपचार पर तो अधिकाँश पद्धतियाँ, मन एवं विशेषज्ञ जोर देते चले आये हैं। पर अन्तरंग जिसे स्थूल का पोषण करने वाला मूल केन्द्र कहा जा सकता है, पर कारगर होने वाली पद्धति के लिये समुचित प्रयास चिकित्सा जगत में नहीं किये गये।

अन्तरंग के दो पक्ष हैं। एक मन अर्थात् संकल्प शक्ति तथा दूसरा अन्तःकरण, आस्थाओं का मूल उद्गम केन्द्र। मन की इन्द्रियपरक (ग्यारहवीं इन्द्रिय) एवं अतीन्द्रिय सामर्थ्य का अब वैज्ञानिक भी मानने लगे हैं। परन्तु इसका सूक्ष्म पक्ष और भी बलवान एवं सामर्थ्यों से भरपूर है। यह जीवनी शक्ति का मानसिक पक्ष है जिसके बल पर प्रतिकूलताओं में भी शरीर न केवल जीवित बना रहता है वरन् स्वास्थ्य को कदापि प्रभावित नहीं होने देता। जीवनेच्छा, जिजीविषा के नाम से जानी जाने वाली यह शक्ति प्रत्येक के भीतर विद्यमान है। जो इसे पहचानकर इसका उपयोग कर लेता है वह ऐसे असम्भव काम कर बैठता है जिन्हें नादान लोग चमत्कार कह बैठते हैं। वस्तुतः है वह मन शक्ति का ही एक स्वरूप।

प्रसिद्ध विचारक नारमन वींसेन्ट पील कहते हैं, स्वस्थ रहने के लिये यह जरूरी है कि व्यक्ति अपनी जीवनी-शक्ति की असीम सामर्थ्य को दृढ़ता से स्वीकार करे। इसे जीवन की रचनात्मक शक्ति भी कहा जा सकता है। विचारों की विधेयात्मक सामर्थ्य का उपयोग कर कई असाध्य रोगी मृत्यु के मुख से निकालते देखे गये हैं। विडम्बना यह है कि अधिकाधिक व्यक्ति ठीक इसके विपरीत, निषेधात्मक चिन्तन में निरत दिखाई देते हैं। उनका एक ही रोना रहता है कि वे मजबूत हैं, अक्षम हैं, परिस्थितियों के कारण कार्य कर पाने में असमर्थ हैं एवं ये परिस्थितियाँ ही उनकी समस्त विपत्तियों का, यहाँ तक कि कुस्वास्थ्य का भी प्रधान कारण हैं। पश्चिम में भौतिक सुख सुविधाओं के बावजूद सर्जनात्मकता का अभाव कुस्वास्थ्य का कारण बनता चला जा रहा है। सर पील के अनुसार “जो कुछ भी मनुष्य कहता है, वह उसके विचारों में होता है, वह निश्चय ही जीवन में क्रियान्वित होता है। जो व्यक्ति वय की दृष्टि से वृद्ध होते हुये भी यह कहता है कि अभी तो मैं स्वस्थ हूँ, युवा हूँ, निश्चित मानिये, उसे ‘जरा’ स्पर्श भी नहीं कर सकती।” पर उल्टा ही है। तीस वर्ष पार करते करते ही आज का नवयुवक दैनिक जीवन के तनावों का सामना करने में स्वयं को असमर्थ मान ‘‘प्रिमेच्योर एजींग” बुढ़ापे से ग्रस्त होता चला जाता है। यही कारण है कि प्राचीनकाल में वृद्धावस्था में पाये जाने वाले सारे रोग अब 30-35 वर्ष के आसपास ही दृष्टिगोचर होने लगे हैं।

ईसाई धर्म गुरुओं का कहना है कि भगवान ने स्वयं मनुष्य के जीवन में श्वास फूँकी है। हमारा यह कर्त्तव्य होना चाहिए कि हम अपने प्रत्येक दिन का शुभारम्भ इस घोषणा से करें कि “मैं ईश्वर का ही एक अंश हूँ। जब ईश्वर प्रदत्त जीवन मेरे अन्दर स्पन्दित हो रहा है, मैं ईश्वर के गुणों से अभिपूरित हूँ तो फिर निराशाग्रस्त होकर उसकी अवमानना क्यों करूं? जब तक उस आनन्द प्रदायक सृष्टा की इच्छा होगी, मेरा आयुष्य काल चलता रहेगा। क्यों न मैं इस अवधि को पूरी क्षमता से जीकर पूरा करूं।


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