श्रेष्ठतम का वरण

August 1985

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मगध राज की कन्या सुहासिनी जब वयस्क हुई तो उसके लिए उपयुक्त की तलाश होने लगी। राज कन्या ने पिता से अनुरोध किया उसे मर्जी का पति चुनने दिया जाय। वह किसी सर्व तन्त्र स्वतन्त्र से विवाह करना चाहती है। पराधीन तो कष्ट ही कष्ट भोगते हैं। उनके साथ रहने में आनन्द कहाँ?

राजा ने इच्छित वर का चयन करने के लिए स्वयंवर की व्यवस्था कर दी। राजकुमार, व्यवसायी, विद्वान, कलाकार अलग-अलग कक्षों में ठहराये गये। सबको अपने-अपने समुदायों में बैठने की व्यवस्था की गई ताकि राजकुमारी जिस भी वर्ग को उपयुक्त समझे उसमें चयन कर लें।

सर्वप्रथम सुहासिनी राजकुमारों के समुदाय में गई। पूछा- आप लोगों का राज्याधिकार तो प्रजाजनों और सामन्तों सभा-सदों की इच्छा पर निर्भर रहेगा। यदि वे रुष्ट हो गये तो फिर शासक बनने की स्वतन्त्रता कैसे दिखा सकेंगे?

राजकुमारों से उत्तर न बन पड़े। पहली बार उनने अपनी पराधीनता अनुभव की ओर निराश लौट गये।

फिर वे विद्वानों के वर्ग में गई। उसने पूछा- गुण ग्राहकों के अभाव में आप अपनी विद्या का परिचय कैसे देंगे और उस विशिष्टता से किस प्रकार लाभान्वित होंगे?

उत्तर उनसे भी न बन पड़ा। विद्या की उपयोगिता गुण ग्राहकों पर निर्भर है इसलिए वे भी पराधीन ही सिद्ध हुए। कन्या ने इस वर्ग को विदा कर दिया।

सम्पन्न व्यवसायियों की बारी आई। पूछा- दुर्भिक्ष पड़ा तो? अराजकता फैली तो? उपलब्ध उत्पादन की खपत न हुई तो? व्यवसाय कैसे चलेगा।

व्यवसायियों ने अपनी पराधीनता स्वीकार की और वापस लौट गये।

कलाकारों के सामने भी विद्वानों जैसी कठिनाई थी। पारखी न हो तो उनकी कला को उन्मत्तों जैसा प्रलाप ही समझा जा सकता था। उनमें से कोई भी आत्म-निर्भर नहीं था। पराधीन को सुख कहाँ? जो सुखी नहीं उसके साथ बंधने से क्या लाभ? कन्या ने सभी अभ्यागतों को निराश कर दिया और साथ ही वह उपयुक्त वर न खोज पाने के कारण स्वयं भी निराश हो गई। खिन्न मन एकान्त सेवन करने लगी।

महामनीषी कौदन्य का उधर आगमन हुआ। मगध राज कन्या, समेत उनके दर्शन के लिए उपस्थिति हुए। साथ वर न मिलने का कारण और तज्जनित निराशा का भी परिचय कराया।

कौदन्य ने राजकुमार से पूछा- दूसरों के सहारे सुखी रहने की इच्छा करने वाली आप भी क्या पराधीन नहीं हुईं?

बात काँटे की थी। अपनी पराधीनता का प्रथम बार पता चला। अब आगे सोचा तो आत्मा पर काया और कामना का बंधन और भी अधिक सघन प्रतीत हुआ। सोचा- भव-बन्धनों से अपने को मुक्त करने की व्यवस्था करने के उपरान्त ही आनन्द उपलब्धि की बात सोचना चाहिए।

साथी खोजने का विचार उनने छोड़ दिया और भव-बन्धनों को काटने वाली तप साधना में निरत हो गईं। आत्म-कल्याण और लोक-कल्याण के समन्वय परमार्थ को अपना जीवन सहचर बना लिया। विवाह की चर्चा सदा के लिए बन्द हो गई।


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