यत्र तं बुद्धि संयोगं लभते पौर्वदेहिकम्”

August 1985

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मनुष्य शरीर जीवात्मा को वरदान स्वरूप प्राप्त होता है। उच्च-नीच कर्मों के आधार पर ही उसे विभिन्न योनियों में जाना पड़ता है और कर्मों के अनुरूप फल भी भुगतने पड़ते हैं। प्रकृति की नियामक सत्ता अदृश्य है। मनुष्य के भले-बुरे कर्मों पर वह सीधे अंकुश तो नहीं लगा पाती, पर कर्मफल की ऐसी व्यवस्था बनी हुई है, जिससे कोई बच नहीं सकता। अच्छे कर्म के फल भी उसे अच्छे मिलते हैं, जबकि पाप कर्म का प्रतिफल बुरा होता है। जब वह निकृष्ट कार्य पर उतारू होता है, तो उसे निम्न योनियों में भ्रमण करना पड़ता है। यहाँ तक कि कभी-कभी जड़ योनि भी प्राप्त होती है, किन्तु ऐसा तभी होता है, जब वह नियन्ता की निर्धारित मर्यादा को तोड़ता है।

छोटी-छोटी गलतियों के लिए जीवात्मा को इतनी बड़ी सजा नहीं मिलती, वरन् उसी योनि में रहकर तद्नुरूप कर्मफल भुगतने पड़ते हैं। इसके लिये सृष्टा ने पुनर्जन्म की व्यवस्था बनायी है। ताकि जीवात्मा को किये का उचित दण्ड अथवा पुरस्कार अगले जन्म में मिल सके। इसी श्रृंखला की कड़ी के रूप में हम किसी को लूला, लँगड़ा, अन्धा देखते हैं, तो किसी को पूर्णतः स्वस्थ। यत्र-तत्र अत्यल्प वय में विलक्षण प्रतिभाएं भी दिखाई पड़ती हैं, जिन्हें देखकर अचम्भा ही होता है। सामान्यतया इस छोटी वय में प्रतिभा उनमें इस ऊंचाई तक विकसित हो जाती है, जो सामान्य स्थिति में अत्यन्त कड़ी मेहनत करने पर प्रौढ़ावस्था तक में ही संभव हो पाती है।

प्रकारान्तर से ये घटनाएं पुनर्जन्म की ही परिपुष्टि करती हैं। पिछले जन्मों में किये गये प्रयास और परिश्रम ही अगले जन्म में प्रतिभा बन विकसित होते हैं। 16 वर्ष की आयु में शंकराचार्य का वेद वेदान्तों पर अधिकार प्राप्त करना, सातवलेकर का 7 वर्ष की आयु में ही फर्राटे से संस्कृत बोलना, मात्र 8 वर्ष की आयु में मोजार्ट का संगीत शास्त्र में महारत हासिल करना- ये सभी परोक्ष रूप से पुनर्जन्म के ही प्रमाण हैं। इसके अतिरिक्त आये दि यदा-कदा ऐसी अनेक घटनायें प्रकाश में आती ही रहती हैं, जो इसकी पुष्टि करती हैं।

ऐसी ही एक घटना हरदोई जिले के पंडरवा ग्राम में घटित हुई।

बद्री प्रसाद गुप्ता पंडरवा का अत्यन्त गरीब किसान था। पाँच सदस्यों की गाड़ी को बड़ी मुश्किल से खींच पाता था। परिवार व्यवस्था चलाने में खेती की सीमित आय जब अपर्याप्त साबित हुई, तो अपने निकटवर्ती गाँव के एक संपन्न सेठ अगले साल के यहाँ नौकरी कर ली। वह उसकी आटा चक्की चलाने लगा और अपने परिवार का किसी प्रकार भरण-पोषण करने लगा। सन् 1978 में सेठ की मृत्यु हो गई।

सेठ की मृत्यु के एक वर्ष पश्चात् बद्री प्रसाद का एक लड़का हुआ। कमलेश जब 5 वर्ष का हुआ, तो उस ओर से पिहानी गाँव का जो कोई भी गुजरता, उसे वह पुकार कर प्रणाम करता और हालचाल पूछता। आरम्भ में परिवार वालों ने उसके इस व्यवहार पर विशेष ध्यान नहीं दिया। एक दिन बद्री प्रसाद ने किसी कारण वश कमलेश की पिटाई कर दी, तो गुस्से में आकर कमलेश ने कहा- ‘‘तुम तो हमारे ही नौकर हो और हमीं को पीट रहे हो। मैं पिहानी का सेठ अंगने लाल हूँ। उस दिन यदि आश्रय नहीं दिया होता, तो आज तुम कहीं और खाक छान रहे होते। उस एहसान को भूल गये और अब मुझी पर रोष दिखा रहे हो।’ लड़के की इन बातों को सुन बद्री प्रसाद चौंक गया। तथ्य के प्रति और दृढ होने के लिये उसने कमलेश से अनेक सवाल किये। सभी का उसने सही-सही जवाब दिया। इसके अतिरिक्त उसने अपने पिता के संबन्ध में कुछ ऐसी घटनायें भी सुनायी, जिसे सेठ अंगने लाल के सिवाय और कोई नहीं जानता था। इसके बाद सेठ के परिवार को बुलाया गया। उसने अपने पत्नी, बच्चे, पुत्र, पौत्र सभी को पहचान लिया। अनेक अन्य प्रश्न भी उससे किये गये, सभी का ठीक-ठाक उत्तर दिया। यहाँ तक कि जब उसे सेठ की तस्वीर दिखाई गई, तो तुरन्त उसने पहचान ली तथा कहा- ‘यही तो मेरा चित्र है।’ इस घटना की साक्षी आज भी उपरोक्त स्थान पर जाकर ली जा सकती है।

एक अन्य घटना प्रसिद्ध उपन्यासकार चार्ल्स डिकेन्स की है। एक बार वे इटली भ्रमण को गये। रोम में एक होटल का कमरा किराये पर लिया और वहीं ठहर गये। आस-पास के दर्शनीय स्थानों को देखने के बाद वहाँ से 120 कि.मी. दूर रोम का प्रसिद्ध पार्क देखने की उन्हें इच्छा हुई। दूसरे ही दिन एक टैक्सी से गन्तव्य के लिये निकल पड़े। अभी 80 कि.मी. रास्ता ही तय हुआ होगा कि अंग्रेज उपन्यासकार को रोड के आस-पास के दृश्य कुछ परिचित से जान पड़े। वहाँ से ज्यों-ज्यों वे आगे बढ़े ऐसा प्रतीत हुआ मानो सारे के सारे दृश्य पूर्व परिचित हों। कार जब पार्क के गेट पर रुकी, तो वहाँ के आस-पड़ोस के मकान, बहुमंजिली इमारतें, वाटर-टायर सभी जाने पहचाने से लगे। पार्क में वे प्रविष्ट हुए। वहाँ भी वही सारे दृश्य। परिचित-सा तरण ताल, जाने पहचाने लम्बे-लम्बे यूक्लिप्टस के दरख्त, घास का लम्बा मैदान, जिसके बीचों बीच बड़ा-सा फव्वारा। सभी दृश्य उसके दिमाग में तेजी से घूम रहे थे। वह मैदान में वहीं बैठ गये और कुछ याद करने लगे। सहसा वे उठे तथा आस-पास के क्षेत्र का बिल्कुल हूबहू विवरण प्रस्तुत कर अपने मित्र को अचम्भे में डाल दिया। उनका मित्र उक्त क्षेत्र से पूर्ण भिज्ञ था। वह डिकेन्स के शत-प्रतिशत सही विवरण से सकते में आ गया। आश्चर्य की बात तो यह है कि चार्ल्स अपने जीवन में इटली पहली बार आये थे। इतनी सही-सही जानकारी कोई किसी अजनबी क्षेत्र का बिना किसी परिभ्रमण किये दे नहीं सकता। इस बारे में डिकेन्स से पूछने पर उनने बताया कि रोड के पार्श्व के दृश्य देखने के बाद इस क्षेत्र के सारे दृश्य स्वतः उनके स्मृति-पटल में फिल्म की भाँति उभरने लगे।

सन् 1960 में फिरोजपुर (पंजाब) के नूरपुर गाँव में पुनर्जन्म की एक ऐसी ही घटना घटी। फिरोजपुर से 10 मील दूर नूरपुर नामक गाँव के एक ब्राह्मण परिवार में एक बालक पैदा हुआ। पिता सुन्दरलाल जी गाँव के शिव मन्दिर के पुजारी थे। बालक जब ढाई वर्ष का हुआ, तो पिता से स्कूल जाने के लिये जिद करने लगा। कौतूहल शान्त करने के लिये सुन्दरलाल ने उसकी भर्ती गाँव के स्कूल में करा दी। कुछ ही दिन में बालक रमेश ने अपनी तीक्ष्ण बुद्धि का परिचय देना आरम्भ किया। जो सवाल अन्य साथी हल नहीं कर पाते, उसका जवाब वह तुरन्त दे देता। अपनी कक्षा में वह सदा प्रथम आता। 15 वर्ष का होते-होते उसने गीता, रामायण और महाभारत में अधिकार कर लिया तथा इन विषयों पर विद्वता पूर्ण प्रवचन देने लगा, जिसे सुन सब अचम्भा करते। रमेश जब तीन वर्ष का था, तभी से स्वयं को गुजरात के एक ब्राह्मण से संबद्ध बताता। कहता, ‘पूर्व जन्म में मैं उसी ब्राह्मण परिवार का एक सदस्य था और जगह-जगह भागवत कथा का आयोजन करता। एक दिन एक सड़क दुर्घटना में मेरी मृत्यु हो गई, उसके बाद मेरा यहाँ जन्म हुआ।’ रमेश द्वारा बताये पते पर जब खोजबीन की गयी, तो घटना बिल्कुल सत्य पायी गयी। उस गुजराती परिवार वालों ने इसे स्वीकारा कि कुछ वर्ष पूर्व परिवार के एक सदस्य की मृत्यु सड़क दुर्घटना में हो गयी थी।

कभी-कभी निकृष्ट कर्मों के कारण मनुष्य को अण्डज अथवा पशु योनि भी प्राप्त होती है। यहाँ भी उसके सूक्ष्म संस्कार जीव का पीछा नहीं छोड़ते और पूर्व जन्म की उसकी प्रवृत्ति मनोवृत्ति इस योनि में भी स्पष्ट झलकती दिखाई पड़ती है। कैरेकस का तोता एवं जोहान्स वर्ग का एक बन्दर इसके स्पष्ट प्रमाण है जो अपनी अद्भुत गतिविधियों द्वारा लोगों को अचम्भित आकर्षित करते रहते हैं।

कैरेकस (क्यूबा) के इस तोते के बारे में कहा जाता है कि उसमें किसी कम्यूनिष्ट नेता के उग्रवादी गुण मौजूद हैं। क्यूबा के फिडल कास्ट्रो समर्थक साम्यवादी गुरिल्लों को यह तोता ‘हुर्रा’ कहकर उत्साहित करता है, एवं उनके तोड़-फोड़ के कार्यों में प्रोत्साहन व सहयोग देता देखा जाता है। स्थानीय लोगों का कहना है कि तोता साम्यवादी गुरिल्लों को क्यूबाई भाषा में स्पष्ट निर्देश मार्गदर्शन भी देता है। तोते के उत्पात से तंग आकर वहाँ की सरकार ने कैरेकस से 278 मील दूर सान फ्रांसिस्को में इसे बन्दी बना लिया है। वहाँ अब उसके दुर्गुणों को निकालने एवं उसमें सद्गुणों के समावेश की कोशिश की जा रही है, किन्तु अब तक इस प्रयास में असफलता ही हाथ लगी है।

कुछ वर्ष पूर्व जोहान्सवर्ग, अफ्रीका के एक औद्योगिक फार्म के पास एक ऐसा ही करामाती बन्दर था। इसने अपनी तीक्ष्ण बुद्धि और विलक्षण प्रतिभा से परिवार वालों का मन जीत लिया था। इस ऊंचाई तक उसमें प्रतिभा का विकास क्यों और कैसे हुआ? जीव विज्ञानियों के पास इसका कोई उत्तर नहीं है।

बन्दर को प्यार से लोग सैण्डो कहकर पुकारते थे। फार्म मालिक अल्बर्टो को पशुओं से बड़ा लगाव था। इसी कारण फार्म के अन्दर ही उसने एक छोटी पशुशाला खोल रखी थी, जिसमें भेड़, बकरियाँ और गायें रहती थीं। इन्हें चराने और इनकी देखभाल करने के लिए एक नौकर रखा गया था। यह बन्दर भी देख−रेख के लिए नौकर को ही सौंप दिया गया।

नौकर जब गाय चराने जाता तो प्रतिदिन बन्दर को भी अपने साथ ले जाता। धीरे-धीरे बन्दर को इसका अभ्यास हो गया। एक दिन किसी कारण वश नौकर अपने गांव चला गया। उस दिन बन्दर बिना किसी से कुछ कहे नियत समय पर भेड़ बकरियों को बाड़े से निकाल चराने ले गया और दिन भर चराता रहा। उसने न सिर्फ पशुओं को चराया, वरन् एक कुशल चरवाहे की भूमिका भी निभायी भटके हुए मेमनों को ढूँढ़-ढूँढ़ कर इकट्ठा करता और एक स्थान की घास खत्म होने पर पशुओं को घेर कर हरी घास वाले मैदान की ओर ले जाता। ठीक समय पर हर रोज पशुओं को घर भी ले आता।

एक दिन घर पहुँचने पर बकरी का एक मेमना अपनी माँ का दूध पीने लगा तथा दूसरा अन्यत्र खेलता रहा। सेण्डो ने जब देखा कि सारा दूध एक ही बच्चा चट किये जा रहा है, तो उसने उसे पकड़ कर अलग किया और उसके दूसरे मेमने को भी ढूंढ़कर लाया। तब फिर दोनों का एक-एक थन से लगाकर दूध पिलाया।

इस घटना से अल्बर्टो बहुत प्रसन्न हुआ। उसने नौकर को दूसरे काम पर लगा दिया और चरवाहा का काम बन्दर को सौंप दिया। लगातार 14 वर्ष तक सैण्डो यह सेवा करता रहा।

सैण्डो के बारे में लोगों का विश्वास है कि वह पूर्व जन्म में कोई गड़रिया रहा होगा। उस जन्म में इसके बुरे कर्म के कारण जीवात्मा की अवगति हुई, फलतः दूसरे जन्म में इसे अन्दर का कलेवर प्राप्त हुआ।

पुनर्जन्म की मान्यता को समर्थन करते हुए गीताकार ने भी कहा है-

‘यत्र तं बुद्धि संयोगं लभते पौर्वदेहिकम्।’

अर्थात्- “आत्मा पहले शरीर में संग्रह किये हुए बुद्धि संयोग अर्थात् बुद्धियोग के संस्कारों को अनायास ही प्राप्त हो जाती है।’’

इस प्रकार उपरोक्त सभी एवं ऐसी अनेकों घटनाएं यही सिद्ध करती हैं कि जीवन अनन्त है, इसकी कोई परिसीमा नहीं। एक कलेवर की मृत्यु के बाद जीवात्मा दूसरा कलेवर ग्रहण करती है और अपने पूर्वजन्म के कर्म फल को भोगती है। कर्मफल के आधार पर ही उसके जन्म, जाति, आयु का निर्णय होता है। इस संदर्भ में पातंजलि का कथन ध्यातव्य है। योगदर्शन में वे कहते हैं-

क्लेशः मूलः कर्माशयो दृष्टादृष्ट जन्मवेदनीयः। सतिमूले तद्विपाको जात्यायुभोगाः॥

अर्थात्- सब प्रकार के क्लेशों के मूल में जीव द्वारा किये गये कर्म ही प्रधान है। उन्हीं के द्वारा उसकी जाति, आयु व सुख-दुःख भोग का निर्धारण होता है।

अस्तु, यदि हमें अपने अगले जन्म को सुधारना है, तो प्रयास इसी जीवन से आरम्भ हो जाना चाहिए और आचरण व व्यवहार, कर्तृत्व एवं व्यक्तित्व को उस स्तर का बनाया जाना चाहिए जिसके लिए ‘मनुष्य में देवत्व का उदय’ की बात कही गयी है और समस्त भूखण्ड पर 33 कोटि देवताओं के निवास की प्राचीन व अलंकारिक मान्यता रही है। इसी में मनुष्य जीवन की सार्थकता भी है।


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