उत्थान और पतन में विचार-शक्ति की भूमिका

September 1984

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चिन्तन से चरित्र और चरित्र से व्यवहार बनता है। व्यवहार ही कर्म है। कर्म से परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं। पदार्थों का संचय और अनेकों का सहयोग सत्कर्मों के आधार पर ही सम्भव होता है। सत्कर्म और कुछ नहीं सद्विचारों के ही प्रतिफल हैं। प्रगति के सुविस्तृत वृक्ष का उद्भव जिस बीज के अंकुरित होने के कारण होता है उसे उपयुक्त दिशा में बहने वाला विचार प्रवाह कह सकते हैं।

विचारों की दो दिशा धाराएँ हैं एक विधेयात्मक दूसरी निषेधात्मक। इंजन आगे भी चलता है और पीछे भी। कृत्यों में सत्कर्म भी सम्मिलित है और दुष्कर्म भी। ज्वार-भाटे की तरह उत्थान और पतन की भी द्विधा इस संसार में गतिशील है। पुण्य और पाप का स्वर्ग नरक इन्हीं के आधार पर विनिर्मित होता है। विचारों को सही दिशा दे सकना ही परम पुरुषार्थ माना गया है।

अपने आपको दीन, दुःखी, दरिद्र, दुर्भाग्यग्रस्त मानते रहने का जी हो तो इसका बहुत ही सरल तरीका यह है कि अपने से अधिक सुखी समुन्नत लोगों के साथ तुलना करने लगिये। स्थिति पिछड़ी हुई दिखाई पड़ती रहेगी। इसके विपरीत यदि वर्तमान स्थिति में ही सुखी सम्पन्न, सौभाग्यवान मानने का मन हो तो वैसी मान्यता बन जाने में भी कोई देर न लगेगी। अपने से दुःखी दरिद्रों के साथ तुलना कीजिए। तुरन्त प्रतीत होगा कि हम लाखों करोड़ों से कहीं अधिक अच्छी स्थिति में हैं। कुबेर भी अपने को दरिद्र कह सकते हैं क्योंकि उनसे अच्छी स्थिति लक्ष्मी के पति लक्ष्मी नारायण तो होंगे ही। इसी प्रकार ऋषि कल्प लोगों को अपने कमण्डल जैसे उपकरणों में भी कुछ अनावश्यक और किसी को दे डालने योग्य प्रतीत हो सकता है। यह सब विचारों का चमत्कार है। वे जैसे भी होंगे वैसी ही अनुभूति होगी और मान्यता बनेगी। वस्तुतः मनःस्थिति ही परिस्थिति का बोध कराती है।

भविष्य के सम्बन्ध में अन्धकार और संकट में भरी-पूरी सम्भावनाएँ मजे में गढ़ी जा सकती हैं। कल्पना पर कोई रोक-टोक नहीं। उन्हें जैसा भी चाहें गढ़ा जा सकता है। इसके समर्थन में तर्क, तथ्य, कारण और उदाहरण भी ढूँढ़े जा सकते हैं। फुन्सी बढ़कर कैन्सर बन जाने के- जुकाम बिगड़कर तपेदिक होने के ऐसे अनेकों उदाहरण मिल सकते हैं जिनमें लोगों के प्राण चले गये। कोई चाहे तो फुन्सी उठते या जुकाम होते ही उसके बढ़कर भयंकर होने और मरण होने की बात मन में बिठाई जा सकती है। मान्यता की पुष्टि के लिए उस प्रकार की घटनाओं का स्मरण करते रहा जा सकता है। इसके विपरीत यदि आशावादी विचार पद्धति हो तो उन उदाहरणों की भी कमी नहीं जिनमें असाध्य समझे गये रोगी भी अच्छे हुए और बाद में लम्बी अवधि तक जिये हैं। दोनों में से किस स्तर की कल्पना की जाये और भविष्य को अन्धकारमय या उज्ज्वल अनुभव किया जाय, यह पूर्णतया अपनी मर्जी की बात है। बातें दोनों ही सही और दोनों ही गलत हैं। यथार्थता यह है कि भविष्य का किसी को बोध नहीं। बात कोई निश्चित नहीं। भवतव्यता को भगवान को पता हो सकता है। मनुष्य उससे पूर्व ही- अघटित घटनाओं की कल्पना के सहारे किसी भी स्तर की गढ़ सकता है और समय आने से पूर्व भी उद्विग्न या प्रसन्न रह सकता है। दोनों में से किसे चुना जाये यह अपनी मर्जी की बात है।

जिस स्तर के विचार मस्तिष्क में घूमते रहते हैं वैसी ही अभिरुचि एवं आकाँक्षा ढलने लगती है। धीरे-धीरे वैसा ही स्वभाव बन जाता है। क्रिया पद्धति भी वैसी ही ढलने लगती है। साथी सहयोगी भी उसी स्तर के जुटने लगते हैं फलतः समूचा वातावरण ही उस स्तर का बन जाता है जैसों का मनःक्षेत्र में चिन्तन प्रवाह बहाया गया। अभिरुचि में सृजनात्मक शक्ति है वह अपने अनुरूप सरंजाम जुटाने में बहुत हद तक सफल होती रहती है। चोर जुआरी अपने जैसों की चाण्डाल चौकड़ी जुटा लेते हैं। वे उन्हें ढूँढ़ लेते हैं या उस प्रकृति वाले खोजते-खोजते पास आ पहुँचते हैं। सन्त सज्जनों के सम्बन्ध में भी यही बात है। उनकी देव मण्डली में बनती और घनिष्ठता बढ़ती रहती है। विभिन्न स्तर के समुदाय, क्लब, संगठन इसी आधार पर खड़े होते हैं। उसके लिए कोई बहुत बड़ा प्रयत्न नहीं करना पड़ता। प्रकृति एक जैसों को एक जगह इकट्ठा कर देती है। पशु पक्षियों तक में ऐसा होता है तो मनुष्यों में ऐसा क्यों न होगा। स्वर्ग और नरक में अनुरूप और अनुकूल प्रकृति के लोग उपयुक्त परिस्थितियों में जा पहुँचते हैं। सृष्टि व्यवस्था इस प्रयोजन में सहज सहायता करती रहती है।

एक ही परिस्थिति में एक ही जगह जन्मे दो व्यक्तियों के दिशा धाराओं में क्रिया और सफलताओं में आश्चर्यजनक जमीन आसमान जैसा अन्तर पाया गया है। इसका कारण और कुछ नहीं उनकी विचार भिन्नता भर है। परिस्थितियाँ मनुष्य को कुछ बनाती है यह आंशिक सत्य है। केवल दुर्बल मनोभूमि के लोगों पर ही यह उक्ति लागू होती है। हवा के साथ तिनके और पत्ते उड़ते रहते हैं। यह जितना सही है, उससे ज्यादा सही है लोग झाड़ियाँ काटकर राह बनाते और दुर्गम पर्वतों पर जा चढ़ते हैं। मनोबल का चुम्बकत्व ऐसा प्रचण्ड है कि अपने अनुरूप साधन एवं सहयोग अर्जित कर सके। मनस्वी लोग अनुकूल वातावरण बनाते या फिर खोजते-खोजते यहाँ तक जा पहुँचते हैं।

प्रगतिशील महामानवों की जीवनचर्या का तात्विक विश्लेषण करने पर यह तथ्य सभी पर समान रूप से लागू होता है कि दिशाधारा का निर्माण सृजनात्मक विचार पद्धति ने किया। वे उन पर दृढ रहे। प्रतिकूलताओं में भी मान्यताओं के दीपक जलते रहे। निर्धारित लक्ष्य की ओर नियमित रूप से बढ़ते रहे। मार्ग में अड़चने आईं, निरुत्साहित करने वालों की कमी नहीं रही, फिर भी वे विचलित नहीं हुए। कदम तो कभी धीरे कभी तेज उठे पर वे रुके नहीं। संकल्प बल साथ देता रहा। फलतः वे वहा पहुँचे जहाँ उन्हें समुचित श्रेय तथा सम्मान मिल सका। ठीक यही बात उन पर भी लागू हुई है, जो हेय चिन्तन के कुचक्र में फँसे रहे, कुसंग में निरत रहे, दुर्व्यसनों के अभ्यस्त बने और क्रमशः अनुपयुक्त मार्ग पर एक के बाद दूसरा कदम उठाते चले गये। परिणति अत्यन्त दुःखदायी हई। पतन और पराभव के गर्त में गिरे और अपने तथा दूसरों के लिए संकट खड़े करते चले गये। मोटे रूप में इन दोनों के मध्यवर्ती अन्तर घटनाक्रमों परिस्थितियों और सहयोगियों के साथ भी जुड़ता है किन्तु वास्तविकता यही थी कि मनःस्थिति ने परिस्थितियाँ गढ़ीं और उत्थान पतन के सरंजाम जुटा दिये। जिन्हें वातावरण घसीटता रहता है वे एक सीमा तक ही आगे-पीछे हट या बढ़ पाते हैं। असाधारण स्तर की भली या बुरी प्रगति में मनुष्य की विचारधारा ही प्रमुख भूमिका निभाती है।

आमतौर से साधनों को महत्व दिया जाता है और परिस्थितियों को उत्थान-पतन का निमित्त कारण माना जाता है। पर वस्तुतः वैसा है नहीं। यदि ऐसा ही होता तो हेय परिस्थितियों में जन्मे लोग सदा वैसे ही बने रहते। जो सम्पन्न परिस्थितियों में जन्मे वे सुविधाओं के आधार पर कहीं से कहीं जा पहुँचते। पर ऐसा होता नहीं। मनःस्थिति ही दिशा विशेष में जीवन क्रम को धकेलती है और फिर दौड़ती रेल के पीछे उड़ते पत्तों की तरह साधन और सहयोग भी अनायास ही खिंचते जुटते चले जाते हैं। मनुष्य मनोबल का धनी है। इसी के सहारे वह अपनी दुनिया वैसी बना लेता है जैसा कि उसने चाहा है। अपने को ढालने और धकेलने की क्षमता हर किसी में विद्यमान है। उसका उपयोग निषेधात्मक और विधेयात्मक विचारों के रूप में पतन या उत्थान के निमित्त किया जाता रहता है। सफलताएँ इसी आधार पर मिलती हैं।


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