हम सब स्वरचित भाव लोक में रहते हैं।

September 1984

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भगवान बुद्ध से उनके शिष्यों ने निर्वाणावस्था में हुई उपलब्धियों के बारे में प्रश्न पूछे- तो उनने कोई उत्तर न दिया, मौन हो गये। इस पर शिष्यों ने अपने-अपने ढंग से अनुमान लगाये। बुद्ध ने सोचा कि वे किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचे हैं और वे अनिश्चय की स्थिति में रह रहे हैं। व्याख्याकारों ने बाद में उनके इस मौन को शून्यवाद ठहराया और आत्मा-परमात्मा तथा संसार के सम्बन्ध में उनकी मान्यता अनिश्चित ठहराई। अस्तु बुद्धवाद को प्रच्छन्न नास्तिकवाद तक कहा जाने लगा।

गहराई में उतरकर देखने वालो ने बुद्ध मान्यता को भाव दर्शन में निरूपित किया है। वे इस संसार को तथा जीवन ब्रह्म को व्यक्ति विशेष की निर्धारित मान्यताओं के अनुरूप बताते थे और जीवन तथा संसार को भाव लोक कहते थे। अनुभूतियाँ भिन्न-भिन्न व्यक्तियों की भिन्न-भिन्न प्रकार की इसी आधार पर होती हैं।

एक व्यक्ति अपने को चोर मानता है। वह उसी स्तर के साथी सहयोगी तलाश कर लेता है। उन्हें ही बुद्धिमान मानता है। जो वस्तुएँ जहाँ रखी हैं वे वहाँ से किस प्रकार चोरी करके हटाई जा सकती हैं। इसका ताना-बाना बुनता है। घर आकर पत्नी को सावधान करता है कि सर्वत्र चोरों की भरमार है। ऐसा न हो कि सामग्री कोई चुरा ले जाय। जो चुराकर लाया गया है, उसे ऐसे छिपाकर रखता है कि किसी पर भेद न खुले।

ऐसे व्यक्ति के लिए संसार एक अच्छा-खासा चोर लोक है। वह अपने असली स्वरूप को लोगों की आँखों से छिपाता रहता है। इसके लिए ऐसा कृत्य करता और वचन बोलता है जिससे उसे चुराने और छिपाने में प्रवीण समझा जा सके। कल्पनाएँ वह इसी स्तर की करता और योजनाएँ इसी सन्दर्भ की बनाता है। वह उसका स्वनिर्मित लोक है जिसमें जिन्दगी भर निर्वाह करते रहने की पूरी गुंजाइश है।

एक व्यक्ति विलासी है। उसकी दृष्टि उपभोग सामग्री पर ही लगी रहती है। सुविधा और सुन्दरता की ललक लगी रहती है। वह ऐसे ही वातावरण के साथ सम्बन्ध जोड़ता है। ऐसों से ही घनिष्ठता साधने के लिए प्रयत्नशील रहता है। कामुक साहित्य पढ़ने, वैसी ही फिल्में देखने और उन्हीं प्रसंगों की चर्चा कहने सुनने में उसे रस आता है। किस इन्द्रिय के द्वारा, किस प्रकार, क्या रसास्वादन किया जा सकता है, इसी की कल्पनाएँ उठती रहती हैं। चिन्तन और समय इन्हीं बातों का ताना-बुना बुनने में बीतता है। सम्पदा का बड़ा भाग इसी में खर्च हो जाता है। विलासी लोगों की जीवनचर्या कहाँ किस प्रकार बीतती है। वे किस प्रकार क्या साधन जुटाते हैं, इसी की खोज-खबर में आँख-कान लगे रहते हैं। इस संदर्भ का संचित ज्ञान, अनुभव, इतना इकट्ठा हो जाता है कि उन्हें विलास का विश्व कोश कहा जा सके। ऐसे लोगों का संसार ‘विलास संसार’ है।

कुचक्रियों की एक अलग ही दुनिया है उन्हें छल प्रपंच के बिना चैन नहीं। किसी मजबूरी से विवश होकर वे दुरभिसंधियाँ गढ़ते हों ऐसी कोई बात नहीं होती। न वे भूखे होते हैं- न दरिद्र, न जरूरतमंद न संकटग्रस्त। तो भी उनका चिन्तन ऐसे सरंजाम जुटाने में ही लगा रहता है इसमें आदि से अन्त तक चकमेबाजी और तिकड़म भिड़ाने का जाल बुना गया हो।

योग्यता की दृष्टि से वे गये-गुजरे नहीं होते। उपलब्ध बुद्धिमता को यदि वे किसी उपयुक्त कार्य में लगाना चाहें तो उससे कहीं अधिक सफलता प्राप्त कर सकते, जितनी की छल-बल से प्राप्त करते हैं। पर किया क्या जाय? उनकी विवशता है। मान्यताओं, अनुभवों और आदतों के सहारे उनने छललोक गढ़ लिया है उससे उनके उतार-चढ़ाव और मोड़-तोड़ भर हैं। अस्तु जीवन प्रवाह ही उस स्तर का बन गया है। वे अपने विनिर्मित छद्मलोक में ही प्रसन्न भी रहते हैं और कई बार अपनी चतुरता का गर्व भरा बखान भी करते हैं।

सन्त, सज्जन, लोक सेवी, परमार्थ परायण, महामानवों की दुनिया अन्यान्यों से सर्वथा भिन्न है। उन्हें न लोभ सताता है न मोह। न वासना का नशा चढ़ा होता है न तृष्णा की आग में झुलसते हैं। सीधा, सौम्य, सादगी का जीवन जीते हैं और उच्च विचारों में रमण करते हैं। उनके मित्र सहयोगी उसी स्तर के होते हैं। स्वाध्याय और सत्संग के माध्यम से उनका परिकर देवोपम बना रहता है। उत्कृष्ट सोचते और आदर्श को कार्यान्वित करते हैं। असहयोगी, विरोधी, हंस उड़ाने और मूर्ख बनाने वालों की कमी नहीं रहती। तो भी वे किसी के परामर्श सहयोग की परवाह न करते हुए एकाकी अपने मार्ग पर चलते हैं। दूसरे लोग जहाँ धन, वैभव अर्जित करने में जिन्दगी गुजार देते हैं वहाँ उनको इस कोल्हू में पिलने की इच्छा तक नहीं होती। भव बन्धनों से बचते-बचाते अपनी नाव को खेकर ले जाते हैं साथ ही उस पर बिठाकर अनेकों को उस पार पहुँचाते हैं। इस समुदाय की दुनिया भी अनोखी है जिसकी सामान्य जनों के साथ संगति नहीं बैठती। सन्तोष और आनन्द उन्हें भी इसमें किसी से कम नहीं मिलता।

एक घर में रहने वाले सदस्यों का खान-पान रहन-सहन तो एक जैसा होता है पर संसार सबका अलग-अलग। छोटे बच्चे खेल खिलौने में रमते हैं। उनकी कल्पनाएँ, मान्यताएँ, भावनाएँ इच्छाएँ ऐसी होती हैं जिन्हें बड़ों से सर्वथा भिन्न कहा जा सके। किशोरों की मस्ती का क्या कहना? पग-पग पर रोकना पड़ता है अन्यथा आसमान में उड़ने और हवा में तैरने लगें। जरा जीर्ण वयोवृद्धों का मन कहा अटका रहता है वे क्या चाहते हैं, उसका भाव चित्र तैयार किया जा सके तो प्रतीत होगा उनकी दुनिया कितनी नीरस और कष्टसाध्य है। मौत के दिन भयभीत रहकर भी गिनते रहते हैं। युवकों की रंगरेलियों उमंगों और महत्वाकाँक्षा योजनाओं का संसार ही अलग है। वे न जाने क्या-क्या करना और क्या-क्या बनना चाहते हैं। अहंता नस-नस से टपकती है। दिन भर सजते और दर्पण देखते हैं।

सयानी लड़की किसी घर की रानी होने का सपना देखती है और लड़का स्वर्ग पर उतरकर किसी परी के आँगन में नाचने के साज संजोता है। नारी तो जिस तेजी से अपने केचुल बदलती है उसे देखकर आश्चर्य होता है। अभी-अभी प्रतियोगिताएँ जीतने वाली छात्रा- कुछ ही महीने बाद घूँघट लगाये वधू- साल छह महीने के भीतर जननी, बाद में गृह स्वामिनी और दिन बीतने नहीं पाते कि सास बनकर स्वामित्व वधू के हवाले करती है। इन विभेदों के बीच असाधारण अन्तर होता है।

मृतकों का मरणोत्तर जीवन और भी विचित्र होता है। गर्भ में निवास करने वाले भ्रूण की परिस्थितियाँ और भी विलक्षण होती है। रोगी कितना कमजोर और असहाय होता है। दरिद्र पर क्या बीतती है। अपराधी क्या सोचता है। शासक का गर्व किस भाषा में बोलता है। यह देखने और इन सबकी मित्रताएँ आँकने पर प्रतीत होता है कि पंच तत्वों से बनी और धरती आकाश के बीच बसी एक ही प्रत्यक्ष दुनिया में कितने अधिक अन्दर विद्यमान है और कितने लोग इसके नीचे कितनी प्रकार की मान्यताएँ संजोये बैठे हैं। यह एक अच्छा-खासा अजायब घर है। पागल खाने की संज्ञा देना तो ठीक न होगा।

इस दुनिया में मात्र मनुष्य ही नहीं रहते। पशु-पक्षी, सरीसृप, कीट-पतंग और सूक्ष्म जीवी समुदाय के प्राणियों की भी अनेकानेक जातियाँ उपजातियाँ हैं। इनके शरीर और मन अपने ढंग के बने हैं। इनकी इच्छाएँ, आवश्यकताएँ, रुचियाँ, सम्वेदनाएँ, समस्याएँ, सुविधाएँ और क्षमताएँ ऐसी हैं जिनके भाव चित्र तैयार किये जा सके तो इन सबके बीच उतना ही अन्तर है जितना कि लोक-लोकान्तरों के मध्य पाई जाने वाली भिन्नताओं के बीच पाया जाता है । स्वर्ग और नरक की कोई तुलना नहीं। ग्रह-उपग्रहों में से प्रत्येक का वातावरण एक दूसरे से भिन्न है। सौर मण्डल में बुध आग जैसा गरम और प्लेटो शून्य तापमान से भी अधिक ठण्डा। प्राणियों के मध्य भी ऐसी ही अगणित प्रकार की दुनिया बनी और बसी हुई है। उनमें समता कम और भिन्नता अत्यधिक है।

वैज्ञानिक और दार्शनिकों का अनुसन्धान निर्धारण और भी अधिक विचित्र है। वैज्ञानिक यहाँ अणु-परमाणुओं की आंधियां भर चलते देखते हैं। ताप, प्रकाश और शब्द की उद्देश्य तरंगें इस जगत में हलचलों की जन्मदात्री है। वे न कभी चैन से बैठती है और न बैठने देती है। जड़-जीवाणु और चेतना जीवाणुओं में उनके अनुसार कोई मौलिक अन्तर नहीं। पदार्थ ही स्थिति विशेष में जीवन बन जाता है। जब तक जीवन तब तक आत्मा। यह सब कुछ स्वयंभू और सनातन है। प्रकृतिगत अनुशासन ही सृजन अभिवर्धन और परिवर्तन के लिए उत्तरदायी है। ब्रह्मा, विष्णु, महेश वही हो सकता है। यही है वैज्ञानिक का पदार्थ परिकर और आत्म-वैभव। उनका संसार विस्तृत है पर साथ ही आधारभूत कारण की दृष्टि से इतना ही सीमित है।

दार्शनिक को कण-कण में चेतना दीखती है। इन सबमें ब्रह्म ही ओत-प्रोत है। चेतना अदृश्य और जड़ उसका दृश्य स्वरूप है। जड़ को चेतना जैसी हलचलें करने और गुण धर्म के क्षेत्र में सुस्थिर करने का कारण परब्रह्म का अनुशासन निर्देशन ही निमित्त कारण है। जड़ को वह कभी दृश्य तो कभी अदृश्य रूप में परिणति कराता रहता है। जो निर्जीव समझा जाता है उसमें भी जीवन विद्यमान है।

कुछ बातों से असहमत होते हुए भी दोनों कुछ स्थानों पर सहमत है। यह जो कुछ दिखता है लगता है वह वस्तुतः वैसा कुछ है नहीं। यह पदार्थ और प्राणी के बीच होने वाले आदान-प्रदान की अवास्तविक अनुभूति है। गन्ना रसायन विशेष से बना है जिह्वा के रसों का समन्वय होने के उपरान्त उसकी जानकारी मस्तिष्क के मिठास के रूप में लगती भर है। नीम हमें कड़वा लगता है पर ऊँट उसे बड़े चाव पूर्वक खाता है। नीम का वास्तविक स्वाद कैसा है यह कुछ भी कहा नहीं जा सकता। विभिन्न प्राणी अपनी स्थिति के अनुरूप उसका स्वाद बताते हैं। यही बात स्वरूप के सम्बन्ध में भी है। हाथी को मनुष्य अपने से कई गुना बड़ा दीखता है तो आश्चर्य नहीं। इन्द्र धनुष जैसा कि हम देखते हैं वैसा किसी भी स्थान पर होता नहीं। मात्र पानी की बूंदों पर सूर्य किरणों की प्रतिक्रिया भर वैसा बोध कराती है।

संसार कैसा है? उसका रस, रूप और गुण बताना कठिन है। यह हर किसी की अपनी-अपनी अनुभूति का विषय है। इसमें इसकी इंद्रियों, मस्तिष्कीय संरचना, मान्यता, परिस्थितियां आदि निमित्त कारण होते हैं। अतएव कहा जा सकता है कि यह संसार भाव लोक है। हर प्राणी की अपनी मान्यता और भावना है। समझने का अपना तन्त्र और अपना रुझान। इसलिए हर किसी को वह अपने-अपने स्तर पर अलग-अलग प्रकार का दृष्टिगोचर होता है। वह वस्तुतः कैसा हो इसका किसी को अता-पता नहीं।

हर व्यक्ति अपनी दुनिया अपनी मनःस्थिति एवं परिस्थिति के समन्वय से गढ़ता है। उसे जब चाहता है तब बदल भी लेता है। सुख में दुःख और दुःख में सुख भासने लगता है। विषयों की प्रतिक्रिया दुःखदायी प्रतीत होती है और तपश्चर्या की परिणति की कल्पना करके व्यक्ति दुःख उठाते हुए भी प्रसन्नता व्यक्त करता है।

यह संसार भाव लोक है। हर किसी का पृथक-पृथक भी। साथ ही यह छूट एवं सुविधा भी है कि वह उसका स्वरूप एवं स्तर जब चाहे तब बदल ले। इसलिए कहा गया है कि मनुष्य अपने भाग्य एवं संसार का निर्माता आप है। ब्रह्म ने यह ब्रह्मांड और उसका विधान अनुशासन बनाया यह ठीक है। प्रकृति का सूत्र संचालन भी इसका कारण हो सकता है। इतने पर भी यह तथ्य जहाँ का तहाँ है कि हर किसी की अपनी दुनिया निराली है वह निजी की भावनाओं के अनुरूप ही सुन्दर और कुरूप बनता है। भगवान बुद्ध ने उसकी व्याख्या विवेचना में मौन रहकर ठीक ही किया था।


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