मन का निरोध निग्रह

September 1984

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

एक राजा था। उसने राज्य के ज्ञानियों की परीक्षा करने के लिए एक विचित्र उपाय अपनाया। एक बकरा पाला। घोषणा की कि जो इसका पेट भर देगा उसे हजार स्वर्ण मुद्राओं का पुरस्कार मिलेगा। बकरे को कोई भी सवेरे से शाम तक अपने साथ ले जा सकता है और पेट भर सकता है। शाम को यह राजा ही जाँचेगा कि पेट भरा कि नहीं।

घोषणा सुनकर बहुतों का उत्साह उभरा। काम जरा सा और सरल भी। इनाम इतना बड़ा। अनेकों लालायित हुए और उसे कर दिखाने का आवेदन लेकर राज दरबार में आये।

राजा ने सभी के नाम नोट कर लिए और बारी-बारी एक-एक बकरा सभी को मिलने का वायदा करते हुए, निश्चित दिन बता दिया।

अब सिलसिला शुरू हुआ। जिसकी पारी थी वह ले जाता और साधारण सी घास न खिलाकर- गेहूँ, चने आदि के पौधे खिलाता पूरी छूट देता और बढ़िया से बढ़िया हरियाली सामने रखता। शाम को इस आशा से दरबार पहुँचता कि उसे इनाम जरूर मिलेगा। पर परीक्षा के समय सभी को निरुत्तर होना पड़ता। राजा द्वारा जब घास सामने रखी जाती तो बकरा आदत के अनुसार उसे खाने लगता। फलतः उसका भूखा होना सिद्ध हो जाता।

रोज की इस घिस-घिस का रहस्य एक विचारशील ने समझा और नया उपाय सोच लिया। वह बकरे को खेत में ले गया और घास खाने के लिए जैसे ही उसने मुँह खोला वैसे ही एक छड़ी उसके मुँह पर जड़ दी। सारे दिन यही चलता रहा। बकरे को कुछ भी खाने का अवसर न मिला। वरन् वह खाने का प्रयत्न करते ही मार पड़ने के डर से इतना भयभीत हो गया कि चराने वाले के हाथ में छड़ी देखकर मुँह खोलना तो दूर उलटा मुँह फेर लेता और उसकी ओर पीठ कर लेता।

नई परिस्थिति में बकरे ने नई आदत अपना ली। तो वह व्यक्ति भूखे बकरे को लेकर राजदरबार में पहुँचा। रोज वाली परीक्षा की गई। बकरे के सामने घास थी। पर सामने ही चराने वाला छड़ी लेकर खड़ा रहा। भयभीत बकरे ने घास खाना तो दूर उलटे उस ओर से मुँह फेर लिया और पीठ कर ली।

दर्शकों ने तालियाँ बजाईं और चराने वाला विजयी घोषित हुआ और उसे सहस्र स्वर्ण मुद्राओं का इनाम मिल गया।

प्रसंग समाप्त हो जाने पर सभी विज्ञजन बुलाये गये। राजगुरु ने उपस्थित लोगों को सम्बोधित करते हुए कहा अपना मन बकरा है। उसे भोग विलास की हरी घास खाने की रुचि है। इतने पर भी उसका पेट भरता नहीं, चाहे कितना ही कुछ क्यों न मिले। जैसे ही नई वस्तु सामने आती है वह आदत के अनुसार अपनी अतृप्त ललक का परिचय देता है और पेट भरा होने पर भी नये को खाने के लिए मचल पड़ता है। उसे तृप्त नहीं किया जा सकता भले ही कितना ही चारा क्यों न डाला जाता रहे।

उपाय एक ही है- रोकथाम करने का और छड़ी जमाने का। छड़ी जमाना अर्थात् अनुपयुक्त के दुष्परिणामों का बोध करना। यह अपने अनुभव से भी सीखा जा सकता है और दूसरों की दुर्गति का परिचय कराने पर भी। मन को मारना हो तो उसे संयमी बनाने और सही रास्ते पर चलने के लिए बाधित करने का उपयुक्त उपाय है। सरकस के जानवर वे रिंग मास्टर के हन्टर के इशारे पर करतब दिखाना सीखते हैं। मन को भी कड़े अंकुश, अनुशासन और प्रतिरोध से ही काबू में लाया जाता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118