मोह के दल-दल से निकलें

September 1984

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मनुष्य के लिए ठीक तरह सोचना और करना तभी तक सम्भव होता है जब तक उसकी बुद्धि सावधान होती है। बुद्धि भ्रष्ट होते ही सारा चिन्तन लड़खड़ा जाता है। उलटा सोचता है और उलटे ही काम करता है। फलतः परिणाम भी उलटे होते हैं। सारे प्रयास सत्परिणाम उत्पन्न करने के स्थान पर उलटी विपत्ति खड़ी करते हैं। अस्तु मनुष्य का सर्वप्रथम प्रयास यह होना चाहिए कि बुद्धि को भ्रष्टता की दलदल में न फंसने दें।

इस सम्बन्ध में गीता की उक्ति है-

यदा ते मोह कलिलं बुद्धिर्व्धतरिष्यति। तदा गन्तेसि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य श्र॥

अर्थात्- भगवान अर्जुन से कहते हैं जब तेरी बुद्धि मोह रूपी दल-दल से निकल आवेगी। तब उस रास्ते पर चलेगा जो करने वालों और सुनने वालों सभी के लिये श्रेयस्कर है।

बुद्धि भ्रष्ट कैसी होती है? वह किस दल-दल में फंस जाती है। इसका कारण और निवारण इस श्लोक में बताया गया है। मोह रूपी दलदल ही ऐसा है जिसमें बुद्धि फंस जाती है और प्रयत्न करने पर भी निकल नहीं पाती।

धन का लालच लोभ कहलाता है और व्यक्तियों के प्रति असाधारण लगाव मोह। यह मोह ही बुद्धि को मगर की तरह निगल जाता है । मनुष्य की अपनी आवश्यकताएँ तो बड़ी सीमित हैं। उनकी सूची बनाई जाय, और उतने साधन जुटाये जायें तो यह सब सरलतापूर्वक जुट जाता है। सात्विक आवश्यक और उपयोगी का ध्यान रखा जाये तो वे इतनी सरल होती हैं कि अपने निजी परिश्रम से उतना सब दो चार घण्टे में ही उपार्जित हो सकता है। वासना की लिप्सा अपनाने पर शरीर की आवश्यकताएँ भी बढ़ जाती हैं। वे महंगी पड़ती हैं। बहुत ही विलासी साधन सामग्री की आवश्यकता पड़ती है। ठाठ-बाट, शृंगार, चटोरेपन, कामुकता आदि का क्षेत्र बड़ा है इसके लिए बहुत साधन चाहिए। बहुत परिश्रम भी अभीष्ट है। तो भी आदमी जितना कमा सकता है उसे देखते हुए शरीर की शोभा सज्जा की एक सीमा है और वह इतनी अधिक नहीं है कि उसके लिए पूरा जीवन ही निछावर करना पड़े।

न पार हो सकने वाला दलदल तो मोह का है। मोह को ममता भी कहते हैं। मेरे पन का विस्तार इतना बड़ा हो सकता है कि उसकी पूर्ति हो सकना कठिन है। कुटुंबियों, मित्रों, संबंधियों की परिधि तो और भी बड़ी है। अपनी संपत्ति, जायदाद, वाहन, नौकर आदि का विस्तार कितना भी किया जा सकता है। यह मोह है। जिन्हें मेरा कह सकें उनकी सूची बनाई जाये तो वह इतनी बड़ी हो सकती है कि बुद्धि की मर्यादा छोटी पड़ जाय। बुद्धि अपनी सामर्थ्य और शक्ति के अनुरूप ही उपार्जन का ताना-बुना बुन सकती है। परिश्रम के सहारे तो वह थोड़ा सा ही हो सकता है। चोरी, बेईमानी के आधार पर कमाने की भी हर व्यक्ति की सीमा होती है। उपार्जन के उपरान्त उसके संरक्षण का प्रश्न आता है। वस्तुएं तो अपने पास बहुत हो जायं पर उनका संरक्षण न हो सके ता फिर चार, डाकू, भिक्षुक, ईर्ष्यालु, ठग उसे किसी न किसी बहाने अपहरण कर ले जाते हैं। सत्प्रयोजन में तो साधनों का कितना ही व्यय किया जा सकता है। पुण्य परमार्थ की कोई सीमा नहीं। किन्तु मात्र संग्रह या उपभोग करना हो तो बहुत बड़ा झंझट है। उपभोग की औचित्य की सीमा से बाहर किया जाय तो वह दुर्व्यसन ही हो सकते हैं। ऐसा संग्रह अहंकार ता बढ़ाता है, पर उसके साथ में इतने झंझट हैं कि यह मोह ममता बहुत भारी पड़ती है और सुख देने की अपेक्षा चिन्ता और दुर्गुण बढ़ाते हुए विनाश का कारण बनती है।

मोह ममता निजी प्रयोजनों से आगे बढ़कर जब कुटुंबियों, संबंधियों तक में फैलती है तो उसकी सीमा और भी बढ़ जाती है। फालतू कमाने वाले या संग्रह करने वाले के कुटुंबियों की सीमा नहीं रहती। सगे तो स्त्री पुत्र आदि थोड़े ही होते हैं। बिना सगे भी सगे बन बैठते हैं और अपने को सम्बन्धी सिद्ध करते हुए फालतू सम्पदा पर अपना अधिकार जताते हैं। हिस्सेदारी की माँग करते हैं। जब अनावश्यक धन संग्रह है ही तो उसे चाटुकारों में वितरण करके उनसे प्रशंसा सुनने, आत्मीयता की दुहाई कान में पड़ने का लोभ भी संवरण नहीं होता। अपनी ही तरह इन कुटुम्बियों, संबंधियों के लिए भी धन-दौलत जमा करने और बांटने का मन होता है। इसके लिए जितने भी साधन एकत्रित किये जायें उतने ही कम हैं।

बुद्धि के उपयोग करने के लिए यह मोहजन्य ताना-बाना इतना सुविस्तृत होता है कि इतनों के लिए सोचने और करने के अतिरिक्त और कुछ बचता ही नहीं। क्या करना? इसका पूर्ण रूप है- क्या सोचना। सोचना भी एक प्रकार का कर्म है। बीज का विकसित रूप पौधा है। चिन्तन का विकसित रूप कर्म है। कर्म से साधन एकत्रित होते हैं। जो एकत्रित है उसी को तो वितरण किया जायेगा। इन सारी भूमिकाओं को बुद्धि ही सम्पन्न करती है। वह कितनी ही तीव्र और सक्षम क्यों न हो पर जब मोह जाल में फंस जाती है, तो मकड़ी के जाले की तरह अपने आप को उसी में फंसा लेती है। न उसमें से निकलने का अवसर मिलता है न इच्छा ही होती है। सामान्य मनुष्य बुद्धि को इसी मोह जाल में फंसाये रहता है। पूरा जीवन इसी में खप जाता है। सारी योजनाएँ इसी की बनती हैं। अवांछनीय उपार्जन जितना पेचीदा है उससे अधिक उसका उपभोग और वितरण है। इन दोनों कामों में आदि से अन्त तक अनौचित्य भरा रहता है। अतएव उनकी गुत्थियों को सुलझाना लोभ की पूर्ति में भी कठिन पड़ता है। मोह को लोभ का बड़ा भाई बताया गया है । जिन्हें अपना मानकर धन दिया जाता है उनके सम्बन्ध में यह इच्छा भी होती है कि यह हमारा कहना माने। लेने को तो हर कोई तैयार है पर मानने को कदाचित ही कोई तैयार होता है।

आत्म-कल्याण के लिए, पुण्य परमार्थ के लिए- जीवन को सार्थक बनाने के लिए- मानव परायणता के लिए भी बुद्धि और कर्म की आवश्यकता पड़ती है। यह कार्य इतने सरल नहीं है कि तनिक से पूजा-पाठ को चिन्ह पूजा भर से सम्भव हो सके। इसके लिए जीवन को एक विशेष ढाँचे में ढालना होता है। उच्चस्तरीय कर्म व्यवस्था अपनानी पड़ती है। इस निमित्त बुद्धि का नियोजन उससे भी अधिक चाहिए जितना कि लोभ और मोह के निमित्त लगाना होता है। यह लगे कैसे? बुद्धि या कर्म का- समय या श्रम का वह भाग आये कहां से? जो कुछ है वह तो सारा मोह रूपी दलदल में फँसा रह जाता है।

आत्म कल्याण के लिए साधारण बुद्धि से भी काम नहीं चलता। इसके लिए प्रज्ञा, मेधा चाहिए। विवेकवान दूरदर्शिता अभीष्ट होती है। इस स्तर की बुद्धि उपजे कैसे? उसका एक ही उपाय है कि उसे मोह रूपी दलदल में से किसी प्रकार बाहर निकाला जाय। यह दलदल ही समस्त मेधा को उदरस्थ कर जाता है। इसलिए परमार्थिक जीवन के लिए प्रथम आवश्यकता इस बात की है कि चिन्तन को मोह-जाल में से निकाला जाय। सौम्य, सात्विक, सरल, निर्लोभ, निर्मोह जीवन का लक्ष्य बनाया जाय। गीता की यही उक्ति ऐसी है जिसे अपनाये बिना और कोई गति नहीं।


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