चमत्कारी सामर्थ्यों की पिटारी- अपने ही मस्तिष्क में

September 1984

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यों तो मानव शरीर के हर अंग, अवयव का महत्व है। शरीर के विभिन्न क्रिया-कलापों में उनकी छोटी-बड़ी भूमिका है। पर उन सबमें मस्तिष्क का अपना अलग स्थान है। वह न केवल मूर्धा पर अवस्थित है वरन् मूर्धन्य गतिविधियों का संचालक भी है। आमतौर पर उससे सोचने- विचार करने, स्मृति रखने, निर्णय लेने जैसे काम लिये जाते हैं पर मस्तिष्क की सामर्थ्य उतने तक ही सीमित नहीं है। सूक्ष्म शक्तियों का वह ऐसा भाण्डागार है जिसका एक अत्यन्त छोटा भाग ही सामने आता तथा प्रयुक्त हो पाता है। अपने भीतर अद्भुत शक्तियों को दबाये एक ऐसे ही मानसिक केन्द्र की जानकारी वैज्ञानिकों को मिली है, जिसमें रहस्यमय शक्तियों के होने- उभरते रहने की संभावना व्यक्त करते हैं। जिसे योग विज्ञानी चिर पुरातन काल से आज्ञा चक्र- तृतीय नेत्र कहते रहे हैं तथा महान संभावनाओं से युक्त बताते रहे हैं, सम्भवतः वह केन्द्र यहीं कहीं स्थित हो।

दोनों भौहों के मध्य में स्थिति कोश-समूह को योग-विज्ञान में आज्ञाचक्र कहा गया है। यह दिव्य दृष्टि का एक महत्वपूर्ण संयंत्र है। यह रेडियो सेट के उस अति सूक्ष्म क्रिस्टल या चुम्बक-घटक से कहीं अधिक सूक्ष्म और समर्थ है, जो अदृश्य तथा अश्रव्य ध्वनि तरंगों को अपनी ओर खींचता है- उन्हें पकड़ता है और पुनः उन्हें दृश्य एवं श्रव्य कंपनों में परिवर्तित कर देता है। अदृश्य को देखने तथा अश्रव्य को सुनने की अद्भुत सामर्थ्य इस आज्ञा चक्र में है। संजय ने इसी के माध्यम से महाभारत के विविध दृश्य देखे थे तथा गीता के उद्बोधनों को सुना था। इसे ही शिवनेत्र कहा गया है जिससे भगवान शिव ने कामदेव को भस्म किया था।

वेदों तथा उपनिषदों में आज्ञाचक्र को छठी इन्द्रिय अर्थात् अतीन्द्रिय क्षमताओं का समुच्चय कहा गया है। जागरण की स्थिति में इसके द्वारा दूरस्थ घटनाओं को देखा तथा सुना जा सकता है, मनोविज्ञान वेत्ता जिसे ई.एस.पी. नाम से पुकारते हैं।

मनः शास्त्रियों का मत है कि स्वप्नावस्था में सामान्यतया आंखें बंद रहती हैं। अन्य ज्ञानेंद्रियां भी विश्राम की स्थिति में होती हैं। कामेन्द्रियाँ भी शिथिल हो जाती हैं। उस स्थिति में दोनों भौहों के बीच ही आप्टिक चिआज्मा के आस-पास की कोशिकाएँ सक्रिय होतीं तथा विविध प्रकार के स्वप्नों की अनुभूति कराती हैं। स्वप्नों में मनुष्य का दांया मस्तिष्क सक्रिय होता है, वह विभिन्न प्रकार की बातें करता सुनता तथा अन्य तरह की चेष्टाएँ भी करता है। यह तथ्य इस पक्ष पर प्रकाश डालता है कि हर व्यक्ति बिना आँख कान के भी देखने-सुनने की दिव्य सामर्थ्य रखता है। स्वप्नों के पूर्वाभास के माध्यम से उस क्षमता का छोटा-सा परिचय भर मिलता है।

स्नायु वैज्ञानिकों ने अपने परिचय में पाया है कि आज्ञाचक्र का जहाँ केन्द्र है, वहा स्थित आप्टिक चिआज्मा के समीप की कोशिकाओं से निरन्तर इलैक्ट्रो मैग्नैटिक तरंगें निकलती रहती हैं। इसकी क्षमता सामर्थ्य एक्सरे लेजर किरणों से भी अधिक मानी जाती है। वे संकल्प से परिचालित तथा नियन्त्रित होती है। विविध स्थूल अवरोधों को पार करते हुए निर्दिष्ट स्थान पर जा पहुंचने की उनमें विलक्षण सामर्थ्य है। आज्ञाचक्र की सूक्ष्म विद्युत तरंगें ही परोक्ष जगत का दर्शन कराती हैं। इनकी सहायता से किसी भी व्यक्ति को मनःस्थिति- भावना, कल्पना, इच्छा, आकाँक्षा आदि के विषय में सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। अपनी ही नहीं दूसरों की अभिरुचि एवं प्रकृति को भी तृतीय नेत्र की सामर्थ्य के सहारे बदलना सम्भव है। अदृश्य सहायकों, भूत-प्रेत एवं पितरों से भी सम्पर्क साधना इस योगिक तृतीय नेत्र- आज्ञाचक्र के सहयोग से संभव है।

आज्ञाचक्र केंद्र की सूक्ष्मग्राही संवेदनशीलता तथा विलक्षणता को योगशास्त्र में तो प्रतिपादित किया ही गया है, अब तो अगणित मनोविज्ञान के प्रयोगों से यह प्रामाणित भी हो चुका है कि यह वह केन्द्र है जिसके द्वारा दिव्य दर्शन, दिव्य श्रवण, दूर दर्शन, भूत भविष्य का ज्ञान, पूर्वाभास, दूरानुभूति, विचार सम्प्रेषण जैसे कार्य सम्पन्न हो सकते हैं। उनका मत है कि इस केन्द्र से निकलने वाली सूक्ष्म किन्तु प्राणवान् भाव तरंगों के द्वारा सम्मोहन- मैस्मरेजम जैसे कार्यों को भी कर पाना संभव है।

ध्यान योगियों का अभिमत है कि आत्म-साक्षात्कार, ईश्वरानुभूति, दिव्य अनुदानों के आदान-प्रदान जैसे महान प्रयोजन तीसरे नेत्र के जागरण से ही सम्भव होते हैं। सामान्य-सा दीखने वाला व्यक्ति भी इस केन्द्र के जागरण से परम सत्ता से एकाकार होने का परम लक्ष्य सिद्ध कर सकता है। ध्यान योग के विविध प्रयोग इस केन्द्र के जागरण के लिए ही किये जाते हैं।

नूतन विकासवाद के प्रवक्ता कुछ वैज्ञानिकों का अभिमत है कि बहुत समय पूर्व मस्तिष्क के मध्य दोनों भौहों के बीच एक तीसरे नेत्र का अस्तित्व था, जो बाद में ग्रन्थि के रूप में बदल गया। पीनियल ग्रन्थि उस तीसरे नेत्र का ही बदला रूप है जो अपने भीतर अगणित रहस्यों को छिपाए हुए है। मनुष्य में इसका वजन मुश्किल से एक या दो मिलीग्राम होता है। पर इस छोटी-सी रचना का शरीर के विकास एवं उसकी हलचलों में भारी योगदान है। एकमात्र यही ऐसी ग्रन्थि है जिसमें तन्त्रिका कोशिकाएँ विधिवत् मस्तिष्कीय कोशों की तरह पायी जाती हैं। यदि इस ग्रन्थि का संतुलन गड़बड़ा जाये तो अनेकों प्रकार की शारीरिक-मानसिक समस्याएँ पैदा हो सकती हैं। जागृत स्थिति में कुरेदने उभारने पर इससे अगणित उपलब्धियां भी हस्तगत होती हैं।

असन्तुलन की स्थिति में शारीरिक प्रौढ़ता शीघ्र आ धमकती है। जननाँग तेजी से बढ़ने लगते हैं। ग्रन्थि के हारमोन्स के असंतुलन से विकास अवरुद्ध हो जाता है। जीवन पर्यन्त बचपन का अभिशाप लद जाता है। शरीर एवं मस्तिष्क का विकास बंद हो सकता है। कुछ विशेषज्ञों का मत है कि पीनियल ग्रंथि रक्त में शक्कर की मात्रा के माध्यम से “ग्रोथ” को संतुलित बनाये रखने में पिट्यूटरी ग्रंथि तथा पैन्क्रियाज की मदद करती है। इस ग्रंथि का नियंत्रण एड्रीनल तथा थायराइड ग्रंथियों पर भी रहता है।

वैज्ञानिकों ने अपनी खोजों में पाया है कि मनुष्येत्तर कितने ही जीव-जन्तु ऐसे हैं जिनमें तीसरे नेत्र का अस्तित्व स्थूल रूप में विद्यमान है। अपने दैनन्दिन कार्यों में वे उस नेत्र का उपयोग उसी प्रकार करते हैं जैसे कि सामान्य मनुष्य आंखों का करता है। न केवल देखने बल्कि समय, दिशा, मौसम, प्रकृति की घटनाओं का भी अनुमान वे अपने तृतीय नेत्र से लगा लेते हैं। यह मात्र उसका स्थूल स्वरूप है जिसका उपयोग जीव-जन्तु कर पाते हैं। मनुष्य के लिये तो अनेकों सम्भावनाएँ छिपी पड़ी हैं।

वैज्ञानिकों की खोज से यह भी मालूम हुआ है कि ठण्डे खून वाले प्राणियों में इस क्षेत्र की कोशिकाएँ थर्मोस्टेट का काम करती हैं। उनके शरीर का तापक्रम एक-सा नहीं रहता, बदलता रहता है। गर्मी में गरम और ठण्ड में ठण्डा। तापक्रम नियन्त्रण के लिए वे गर्मी में ठंडे स्थानों पर रहते हैं तथा ठंड में गरम स्थानों पर। उनकी इस विलक्षणता के कारण उन्हें तापक्रम की पूरी खबर रहती है तथा समय-समय पर स्थान परिवर्तन के लिए निर्देश देती रहती है।

प. जर्मनी में हुई खोजों का निष्कर्ष है कि तीसरी आँख कुतुबनुमा का भी काम करती है। दूसरे पशु-पक्षी दिशा का अनुमान अपने इसी चुम्बक के आधार पर लगा लेते हैं। पृथ्वी चुम्बकत्व एवं जैव चुम्बकत्व दोनों की तरंग गति समान है, यह इससे सिद्ध होता है कि मनुष्यों में भी अपवाद रूप में किन्हीं-किन्हीं में यह कुतुबनुमा क्रियाशील बताया गया है। जिस प्रकार साइबेरिया से आने वाले आव्रजक पक्षी अपनी दिशा स्वयं ढूंढ़ते एवं आस्ट्रेलिया फिर वापस अपने निवास स्थान पर पहुँच जाते हैं, मनुष्यों में भी यही बोध विद्यमान होता है।

मानवी विलक्षणता के परिचायक किसी अंग का उपयोग न हो तो एनाटामी की दृष्टि से वेस्टीजियल ऑर्गन (निरर्थक अंग) ही कहा जाएगा। यही विडम्बना पीनियल- पीटुचरी एक्सिस एवं हाइपोथैलेमिक उत्तकों के साथ हुई है। सामान्य नजर आने वाले क्रिया-कलापों में असामान्य सामर्थ्य छुपी पड़ी है, किन्हीं-किन्हीं में यह फूट पड़ती है तो उन विभूतियों का परिचय मिलता है। वस्तुतः ये अपवाद नहीं है। ध्यान-धारणा द्वारा- योग अनुशासनों के माध्यम से इस केन्द्र को जगाकर असीम सामर्थ्यों को हस्तगतकर परोक्ष से सीधे सम्बन्ध जोड़ पाना संभव है।


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