जो भी बनो आदर्श बनो (kahani)

September 1984

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एक जिज्ञासु कबीर के पास पहुँचा, बोला- ‘दो बातें सामने हैं- संन्यासी बनूँ या गृहस्थ।’

कबीर ने कहा- ‘जो भी बनो आदर्श बनो।’

उदाहरण समझाने के लिए उन्होंने दो घटनाएँ प्रस्तुत कीं।

अपनी पत्नी को बुलाया। दोपहर को प्रकाश तो था, पर उन्होंने दीपक जला लाने के लिए कहा ताकि वे कपड़ा अच्छी तरह बुन सकें। पत्नी दीपक जला लायी और बिना कुछ बहस किये रखकर चली गई।

कबीर ने कहा- ‘गृहस्थ बनना हो तो परस्पर ऐसे विश्वासी बनना, कि दूसरे की इच्छा ही अपनी इच्छा बने।

दूसरा उदाहरण सन्त का देना था। वे जिज्ञासु को लेकर एक टीले पर गये, जहाँ वयोवृद्ध महात्मा रहते थे। वे कबीर को जानते न थे। नमाज के उपरान्त उनसे पूछा- ‘आपकी आयु कितनी है?’ बोले- ‘अस्सी बरस।’

इधर-उधर की बातों के बाद कबीर ने कहा- ‘बाबाजी, आयु क्यों नहीं बताते?’ सन्त के कहा था- ‘बेटे, अभी तो बताया था, अस्सी बरस! तुम भूल गये हो। टीले से आधी चढ़ाई उतर लेने के बाद कबीर ने सन्त को जोर से पुकारा और नीचे आने के लिए कहा। वे हाँफते-हाँफते चले आये। कारण पूछा, तो फिर प्रश्न किया- ‘आपकी आयु कितनी है?’ सन्त को तनिक भी क्रोध नहीं आया। वे उसे पूछने वाले की विस्मृति मात्र समझे और कहा- ‘अस्सी बरस है।’ हँसते हुए वापस लौट गये।

कबीर ने कहा- ‘सन्त बनना हो तो ऐसा बनना, जिसे क्रोध ही न आये।’


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