बुद्धिमता सर्वोपरि सम्पदा

September 1984

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मानवी काय संरचना में मोटे तौर पर हृदय और मस्तिष्क को बहूमूल्य माना जाता है। उन्हीं की मजबूती पर शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य की स्थिरता एवं प्रखरता आँकी जाती है। इतने पर भी एक और बड़ी वस्तु है, जिसे सर्वोपरि एक सर्वोत्तम कहा जा सके। वह है- बुद्धि। बुद्धि का तात्पर्य यह कल्पना शक्ति या शिक्षा सम्पदा से नहीं है। यह दोनों तो मस्तिष्कीय प्रशिक्षण से अवलम्बित हैं। कल्पनाओं की उत्तेजना देने वाला साहित्य एवं सम्पर्क कारगर हो सकता है। विद्यालयों की अध्यापकों की सहायता से शिक्षा का स्तर भी बढ़ाया जा सकता है। अनुभव अभ्यास से क्रिया कुशलता आती है। यह सभी उपलब्धियाँ ऐसी हैं जिन्हें सामान्य रीति से सामान्य साधनों से उपलब्ध किया जा सकता है। उन्हें प्राप्त करने के लिए प्रयास करने की उपयोगिता भी सर्व-साधारण को विदित है और चेष्टा भी चलती रहती है।

बुद्धिमता इससे ऊँची और आगे की वस्तु है। उसमें भावी परिणामों की ऐसी संगति बिठाई जाती है जो तथ्यों पर अवलम्बित हो। आमतौर से लोग किसी बात के पक्ष या विपक्ष में भावुक होते हैं, पूर्वाग्रह संजोये रहते हैं और जो प्रिय लगता है उसके पक्ष समर्थन में ही चिन्तन को जुटा देते हैं। यह भूल जाते हैं कि प्रस्तुत परिस्थितियों में यह संभव भी है या नहीं। यदि नहीं तो कोई मध्यवर्ती मार्ग निकल सकता है क्या? भावावेश में ऐसा प्रति पक्षी चिन्तन नहीं बन सकता। एक पहिये की गाड़ी एक पटरी पर दौड़ने की कोशिश करती है। अव्यावहारिक तरीका अपनाने के कारण इधर-उधर पड़ती है। सही निर्णय पर पहुंचने के लिए आवश्यक है कि पक्ष और विपक्ष की सभी संभावनाओं को सामने रखा जाये और दोनों के द्वारा प्रस्तुत किये गये तर्कों तथा तथ्यों का गंभीरतापूर्वक पर्यवेक्षण किया जाये।

शेख चिल्ली की कथा बताती है कि वह सफलताओं का अत्युत्साह भरा ताना-बाना बुनता चला गया। समय और साधन का स्मरण ही नहीं रहा। फलतः तेल की मजूरी से मुर्गी खरीदना और उसके मुनाफे को बढ़ाते-बढ़ाते भरा-पूरा गृहस्थ बसा लेने में उसे आधा घण्टा भी नहीं लगा। यदि अतिवादी कल्पना उड़ान उड़ने के स्थान पर उसमें साधन जुटने और समय लगने की बात को ध्यान में रखते हुए निर्णय किया होता तो उसे बुद्धिमानी कहा जाता। तब उसके सिर का घड़ा भी न फूटता और भर्त्सना प्रताड़ना का भाजन भी नहीं बनना पड़ता। न्यूनाधिक मात्रा में आम लोग यही भूल करते हैं। जो सुहाता है, उसी की उपयुक्तता और संभावना सफलता को मान्यता दे बैठते हैं। फलतः उत्साह भरे कदम तत्काल उठा बैठते हैं। यथार्थता जब सामने आती है तब प्रतीत होता है कि साधन जुटाने, श्रम सहयोग का तारतम्य बिठाने और अड़चनों से निपटने जैसी महत्वपूर्ण बातें ध्यान में ही नहीं आई। फलतः बालू का महल तनिक-सा हवा का झोंका लगते ही ढह गया।

बुद्धिमता हानि और लाभ का- साधनों, परिस्थितियों और क्षमताओं का लेखा-जोखा लेती और व्यावहारिक कदम उठाती है। जबकि अत्युत्साही अपने प्रिय चिन्तन को ही सब कुछ मान बैठते हैं। ऐसे ही लोग चाटुकारों और ठगों के कुचक्र में फंसते हैं। जो कहा गया है उसी को सत्य मान बैठते हैं। परामर्श में लाभ ही लाभ देखते हैं। यह भूल जाते हैं कि कथन के पीछे कोई ऐसी दुरुभि सन्धियाँ हो सकती हैं जो पीछे सर्वनाश करके रख दें। गुण-दोष देखने की सूझ-बूझ का विकास न होने अथवा प्रयोग न बन पड़ने के कारण अक्सर लोग अनुपयुक्त कदम उठा बैठते हैं और पीछे जब हानिकारक प्रतिफल सामने आते हैं तब भूल के लिए पछताते अथवा अन्यान्यों को दोष देते हैं।

मूर्खता का एक और भी पक्ष है और वह भी आम-तौर से पर दृष्टि से ओझल रहता है। वह है- तात्कालिक लाभ को ही सब कुछ मान बैठना। ऐसा भी होता है कि जो कार्य तात्कालिक लाभदायक प्रतीत हो रहे हैं, वे आगे जाकर लाभ की तुलना में अनेक गुनी हानि उत्पन्न करें। यह भी हो सकता है कि जिसमें तत्काल घाटा दीखता है, वह आगे चलकर बहुत लाभदायक सिद्ध हो। इस संदर्भ में दूरदर्शिता अपनाये बिना और कोई ऐसा आधार नहीं जो सही निर्णय तक पहुँचा सकने में समर्थ हो सके। इस प्रसंग में हुई भूलें इतनी भयानक होती हैं कि जिन्हें रोटी के टुकड़े के लोभ में पिंजड़े में जा फंसने वाले और जान गँवाने वाले चूहे की उपमा दी जा सके। चासनी पर बेतरह टूटने वाली मक्खियाँ अपने पर और पंख फंसा लेती हैं और भर पेट मिठाई खाने के स्थान पर तड़प-तड़प कर मरती है। दाने के लाभ में चिड़ियों का, आटे की गोली के लिए मछलियों का जाल में फंसना भी इसी उतावली का कारण होता है।

अधिक मात्रा में अथवा अधिक मूल्य की वस्तुएँ उपलब्ध कर लेना एक बात है, पर उनका सदुपयोग कर सकना सर्वथा दूसरी। वस्तुएँ तभी तक सुखद होती हैं, जब वे नीतिपूर्वक उपलब्ध की गई हों और उनका उपयोग, उचित प्रयोजन के लिए उचित मात्रा में किया गया हो। व्यतिरेक करने पर तो पौष्टिक भोजन भी विषाक्त हो जाता है। सुपाच्य भोजन तभी पोषण करता है जब उसे पाचन की मर्यादा में खाया जाय, अन्यथा वह भी वमन, अतिसार, उदर शूल जैसे संकट खड़े करने लगता है। धन का अपव्यय दुर्गुणों और दुर्व्यसनों का अभ्यास करता है और ऐसी कठिनाईयाँ सहन करने को बाधित करता है जैसी कि दरिद्रों को भी नहीं सहनी पड़तीं। समझदारी इसमें है कि सही आहार, सही ढंग से प्राप्त किया जाये और उसके सेवन में संयम एवं विवेक बरता जाय। यही बात हर वस्तु के सम्बन्ध में लागू होती है।

लिप्सा अति उपभोग के लिए उत्तेजित करती है। उसे प्रभावित लोग इन्द्रिय असंयम बरतते हैं और उपभोग का क्षणिक ललक के लिए शारीरिक, मानसिक, स्वास्थ्य गँवाकर खोखले बन बैठते हैं। अतिशय उपभोग करने वाला असंयमी संभव है, आरंभ में अपने को भाग्यवान समझे और दूसरों के सामने इतरा कर चले। किन्तु कर्मफल की परिणति किसी को भी क्षमा नहीं करती। आंखें मूँदकर दौड़ने वाले ठोकर खाते और फिर कर दाँत तोड़ लेते हैं। बुद्धिमानी इसमें है कि परिणति को ध्यान में रखते हुए उस राह पर चला जाये जो मर्यादा पालन के लिए बाधित करने के कारण आरंभ में तो अनख जैसी लगती है पर पीछे चिरकाल तक सुखद परिणामों का आनन्द देती रहती है।

तृष्णा के आवेश में संचय की मात्रा का ध्यान नहीं रहता और वैभव बटोरने में औचित्य की मर्यादा गवा दी जाती है। झरने का जल तभी तक यशस्वी उपयोगी रहता है जब तक वह बहता रहता है। एक जगह टिकने की नीति अपनाते ही वह संचय समीपवर्ती क्षेत्र को पानी से डुबा देता है या फिर सतह ऊंची उठने के कारण प्रवाह का स्रोत ही रुक जाता है। धन के संबंध में भी यही बात है। उचित उपार्जन और हाथोंहाथ सदुपयोग बन पड़ने पर ही उसकी सार्थकता है। जहाँ अनावश्यक संचय होगा वहीं अगणित विकृतियां खड़ी करेगा और ईर्ष्या द्वेष भरे ऐसे विग्रह खड़े करेगा जिनसे प्राण संकट खड़ा हो चले। संग्रही घाटे में ही रहता है। उसे जिन उत्तराधिकारियों को हस्तान्तरित किया जाता है वे भी उसे पाकर सुखी नहीं रहते। मुफ्त का माल किसी को भी पचता नहीं है।

जीवन ईश्वर प्रदत्त बहुमूल्य सम्पदा है। इसे प्राप्त तो सभी करते हैं, पर उसका सदुपयोग नहीं जानते। फलतः दुर्बुद्धि के आधार पर बनाई गई जीवनचर्या पशु-पक्षियों के अविकसित जीवन में भी अधिक बोझिल और कष्टकारक होती है। जो इन उलझनों को सुलझा सके उसी को बुद्धिमान कहना चाहिए भले ही लोगों की दृष्टि में वह अनपढ़ या देखने में अनगढ़ ही क्यों न हो?


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