जीवन सत्ता की आधारभूत सात प्रवृत्तियां - 2

September 1984

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पराक्रम :- शरीर का हर अवयव, कोश, ऊतक निरन्तर क्रियाशील है। रक्त परिभ्रमण, श्वास-प्रश्वास, मल विसर्जन आदि कार्य निरन्तर चलते रहते हैं। गति हर कार्य की अलग-अलग है, पर कोई क्रिया-कलाप कभी रुकता नहीं। आंतें, मस्तिष्क, गुर्दे आदि सतत् क्रियाशील हैं। वास्तविकता तो यह है कि गतिशीलता की कमी ही बुढ़ापा एवं गति रुक जाना मृत्यु है।

इसे अच्छी तरह जीव कोश के स्तर पर देखा जा सकता है। कोशों की बाहरी झिल्ली, सेलमेम्ब्रेन सतत् क्रियाशील है। यदि कुछ क्षणों के लिये यह झिल्ली कोश के भीतर से सोडियम को निकालना बन्द कर दे तो कुछ मिनटों में जीवकोश की मृत्यु हो जाती है। यही नहीं, कोश के अंदर विद्यमान साइटोप्लाज्म नामक जीवित पदार्थ सतत् चलता रहता है, एक ही स्थान पर नहीं बैठा रहता। हरेक जीवकोश में इस तरह द्रव्य में सतत् रासायनिक क्रियाएँ चलती रहती हैं।

रोग वैज्ञानिकों के अनुसार और कुछ नहीं, शरीर में चल रही अनेकों क्रियाओं में से एक या कुछ का रुक जाना शिथिल पड़ जाना ही है। जब भी ऐसा अंग विशेष में होता है तो वह विकार उसी अवयव में होता देखा जाता है। किन्तु शरीर का एक अंग होने के कारण वह शरीर पर प्रभाव डालता ही है। सारा शरीर विभिन्न लक्षणों के माध्यम से अपनी व्यथा प्रकट करता है। हृदय की माँस-पेशियों का जब कोरोनरी धमनियों से रक्त नहीं मिलता, थक्का रक्त-प्रवाह में बाधक बन जाता है तो हार्ट अटैक तुरन्त होता है। अपनी पुकार मांसपेशियां हृदय के दर्द के रूप में प्रकट करती हैं।

मनुष्य के लिए सतत् क्रियाशील बने रहना ही उसके अंग अवयवों के पराक्रम का प्रतीक है। यही अक्षुण्ण स्वास्थ्य की कुँजी है। यदि किसी कारण वश वह अधिक समय तक बिस्तर पर पड़ा रहे तो उसे अनेकों रोग आ घेरते हैं। सक्रिय, कर्मठ नजर आता मनुष्य देखते-देखते बूढ़ा हो जाता है। हड्डियों में कैल्शियम की मात्रा घट जाती है तथा वह घुल-घुलकर मूत्र मार्ग से निकल कर बाहर आने लगता है। कभी-कभी यही कैल्शियम जमकर पथरी रोग को जन्म देता है। निरन्तर लेटे रहने के कारण मूत्र संस्थान में संक्रमण की दर भी बढ़ जाती है, फेफड़ों में से वायु निष्कासन उचित ढंग से नहीं हो पाता तथा उनमें कभी-कभी पानी भर जाता है तथा त्वचा पर व्रण हो जाते हैं जिसे ‘बेडसोर’ कहते हैं।

हृदय की गति को पेसमेकर नामक एक विशेष ऊतकों का समुच्चय संचालित करता है। यदि यह काम करना बंद कर दे तो हृदय की धड़कन बंद होने- मृत्यु होने का खतरा उत्पन्न हो जाता है। कुछ मिनटों तक तो ‘कण्डक्शन टीश्यू’ अपनी भूमिका पेसमेकर रूप में निभाने का प्रयास करते हैं, पर मूल प्रेरणा स्रोत यदि निर्देश भेजना तत्काल आरम्भ न करे तो मृत्यु निश्चित है। हृदय का यह पराक्रम ही उसे जीवन भर चौबीसों घण्टे चलते रहने वाले पम्प की भूमिका निभाने में समर्थ बनाता है। ऐसे अनेकों उदाहरण शरीर तंत्र में देखे जा सकते हैं जो उनकी वैयक्तिक एवं सामूहिक क्रियाशीलता का परिचय देते हैं। इन्हीं के बलबूते वह स्फूर्ति व जीवनी शक्ति का अस्तित्व पराक्रम के रूप में सामने प्रत्यक्ष देखा जाता है।

प्रत्यावर्तन :- काय तन्त्र की इस कर्मशाला का हर कोश अवयव निरन्तर गतिशील ही नहीं रहता आदान-प्रदान के सतत् चक्र में घूमने की भूमिका भी बखूबी निभाता है। त्वचा के कोश निरन्तर झड़ते व नये आते रहते हैं। हर सत्ताईसवें दिन शरीर की समग्र त्वचा (सरफेस एरिया) 108 वर्ग मीटर है, की बाह्य सतह इपीडर्मीस के सभी कोश बदल जाते हैं। इनका स्थान नये सेल्स ले लेते हैं। शरीर में होने वाले हर सूक्ष्म परिवर्तन को त्वचा के जीवकोशों से जाना जा सकता है। रक्त के लाल कण एक नियत अवधि तक जीने के पश्चात् मृत्यु को प्राप्त होते हैं, उसका स्थान नवीन रक्त कोशिकाएँ ले लेती हैं।

जल चक्र भी शरीर की एक महत्वपूर्ण विशेषता है। अम्ल व क्षार के रक्त में अनुपात के अनुरूप रक्त आयतन बनाये रखने के लिये पानी ग्रहण करने व विसर्जन की प्रेरणाएँ उठती रहती हैं। सारी प्रक्रिया एक सूक्ष्म ‘हारमोन इलेक्ट्रो लाइट्स एन्जाइम तन्त्र’ द्वारा संचालित होती है जो निरन्तर गतिशील रह प्रश्वास, पसीने एवं मूत्र के माध्यम से इस चक्र को नियोजित करता है। यही तथ्य खनिज तन्त्र पर भी लागू होता है। नानप्रोटीन नाइट्रोजन, फास्फोरस, कैल्शियम, सल्फर, आयोडीन इत्यादि अनेकों प्रकार के तत्व शरीर एवं वातावरण के मध्य एक निश्चित गतिचक्र में घूमते हैं। अस्थियों में जमे कैल्शियम का समुच्चय तो नहीं, अठारह प्रतिशत भाग हर साल बदलकर नया हो जाता है। एक प्रकार से यह सारे कंकाल तन्त्र का नूतन काया कल्प है।

नित्य नूतनता तथा अपरिग्रह की भावना विधाता ने मानवी काया के साथ ऐसी संजो दी हैं, कि जीवन सहज ही सरस, गतिशील बना रहता है। प्राकृतिक जीवन जिया जा सके तो प्रफुल्लता बनी रहती है, काय तन्त्र अपनी प्रत्यावर्तन प्रक्रिया चालू रखता है एवं किसी वस्तु का न कहीं अभाव प्रतीत होता है, न कभी अनावश्यक जमाव ही हो पाता है। यह परिवर्तन चक्र इकॉलाजी के अनुशासन में बँधे सारे जीव जगत पादप समुदाय में पाने जाने वाले अनुशासन तन्त्र का ही अंग है। इसे रासायनिक आधार पर नहीं, विधि-व्यवस्था के एक समग्र सिस्टम के रूप में समझना होगा। पेड़-पौधे निरन्तर ट्रान्सपिरेशन प्रक्रिया द्वारा नीचे से जल खींचते व ऊपर वायुमण्डल में छोड़ देते हैं, नूतन पत्तियाँ हर वर्ष बदल कर अपना काया-कल्प करते रहते हैं। यह अद्भुत व्यवस्था प्रत्यावर्तन हेतु ही बनायी गयी है।

जीव-जन्तु भी हर वर्ष शीत ऋतु में शीत-निद्रा में चले जाते हैं। वे ऐसा शीत ऋतु से बचने के लिये नहीं करते। वैज्ञानिक श्री पेन्ग्रेले तथा श्री एडमण्डसन का कथन है कि शीत निद्रा में जाने वाले जानवर अपनी आन्तरिक घड़ी से चालित होते हैं, न कि बाह्य मौसम से। वह निर्देश देती है, तब शरीर हाइबरनेशन में चला जाता है। इस समाधि से उठने के बाद शरीर में नये जन्म के समान स्फूर्ति उभर आती है। सम्भवतः योगीजन इसी कारण हिम समाधि, कल्प साधना, एकान्त सेवन की प्रक्रिया सम्पन्न करते थे, ताकि वर्ष में एक बार प्रत्यावर्तन होता चले एवं आयुष्य बढ़ती रहे।

अनुशासन :- नियमित, अनुशासित बने रहना जीवन के लिये उतना ही जरूरी है जितना कि पारस्परिक सहकार, गतिशीलता एवं प्रत्यावर्तन। इस गुण को शरीर के अंग-अंग में क्रियाशील देखा जा सकता है।

यदि हृदय सतत् क्रियाशील रहे पर यह सक्रियता अनियमित हो, 70 से 80 बार प्रति मिनट धड़कन के रूप में न होकर एरिदमिक (लय-ताल रहित) हो तो हृदय की कार्य क्षमता में असामान्य कमी आ जाती है एवं वह सारे शरीर को प्रभावित करती है। हृदय रोगी न भी हो पर उसकी धड़कन अनियमित हो तो रोगी तुरन्त “कार्डिक फैल्योर” की स्थिति में चला जाता है। वाल्व संकरा हो तो काम चल भी जाता है लेकिन धड़कन अनियमित होने पर तुरन्त हृदयाघात- एट्रियल फिब्रिलेशन एवं मृत्यु की स्थिति आ पहुंचती है। अनुशासित विधि-व्यवस्था का यह क्रम श्वास संस्थान से लेकर मूत्र विसर्जन संस्थान तक सभी पर एक समान लागू होता है।

हर स्वर, ताल अथवा उच्चारित शब्दों की निर्माण प्रक्रिया में ऊपरी श्वास संस्थान के ‘वोकल कार्डस्’ ही नहीं अपितु जिव्हा, तालु, नासिका, होंठ आदि सभी अवयवों का एक नियमित क्रम से सिकुड़ना एवं फैलना उत्तरदायी होता है। इसी प्रकार विचारे गये शब्दों को लिपिबद्ध करने में हाथ की 15 से भी अधिक मांसपेशियां एक नियमित क्रम में आकुँचन-प्रकुँचन करती हैं। इस क्रम के गड़बड़ाने पर अक्षर लिख पाना संभव नहीं।

जीव कोश के स्तर पर तो यह नियमन-अनुशासन का क्रम और भी स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। हर जीव कोश में डी.एन.ए., आर.एन.ए. जैसे सूक्ष्म प्रोटीन घटक होते हैं। हर प्रोटीन में सैकड़ों अमीनो अम्ल एक नियमित क्रम से लगे होते हैं। ग्लूकोस के एक अणु में न्यूनतम बीस से भी अधिक इन्जाइमों को एक नियमित क्रमबद्ध सहयोग से तोड़ने पर ऊर्जा प्राप्त होती है जिसे कैलोरी कहा जाता है एवं सारा शरीर व्यापार चलता है।

ये तो मात्र कुछ उदाहरण हैं। शरीर में हो रही किसी भी क्रिया को नियमितता के किसी भी पहलू से देखा जाने पर वह खरा सिद्ध होता है। शरीर के सारे क्रिया-कलाप एक रिदमिक (लय-ताल युक्त) विधि-व्यवस्था से आबद्ध हैं। शरीर रोगी तब होता है जब इस अनुशासित व्यवस्था में कोई व्यतिरेक उत्पन्न होता है।

एकात्मभाव :- का अर्थ है पारस्परिक भावनात्मक सद्भाव। शरीर के खरबों जीवकोश कार्य पद्धति तथा बनावट की दृष्टि से भिन्न-भिन्न प्रकार की जटिलताओं से भरे हैं। रेटिना (आँख का भीतरी पर्दा) एवं हड्डियों के कोशों, न्यूरान्स, रक्त के लाल कण, प्रोटीन निर्माता, इम्यून कोश तथा लीवर के कोशों की परस्पर तुलना की जाये तो उनके क्रिया-कलापों तथा आकृतियों में जमीन-आसमान जितना अन्तर मिलेगा। कहाँ रेटिना के सूक्ष्मतर कोश एवं कहाँ हड्डियों के बड़े कोश, कहाँ लाल रक्त कण जो मात्र 120 दिन जीते हैं व कहाँ मस्तिष्क के न्यूटान जो जन्मने के बाद ही मरते हैं। यह विविधता सारे शरीर में संव्याप्त पाई जाती है। इसके बावजूद ये सभी परस्पर मित्र भाव रखते हैं। शरीर को कोई चोट पहुँचने, ताप बढ़ाने, जीवाणु के आक्रमण की स्थिति में सभी मुकाबले हेतु समान रूप से तैयार रहते हैं। हृदय तीव्रगति से रक्त की पम्पिंग प्रारम्भ कर देता है। इम्यून संस्थान एण्टी बॉडिज बनाने लगता है। मांसपेशियां सक्रिय हो जाती हैं। मस्तिष्क चेतना प्रखर हो जाती है एवं यकृत के कोश जल्दी-जल्दी मेटाबॉमिक क्रियाएं सम्पन्न करने लगते हैं। सहकारिता एवं पारिवारिकता की भावना की प्रत्यक्ष झाँकी शरीर में सहर्ष देखी जा सकती है।

हृदय मात्र अपनी ही चिन्ता नहीं करता, वह सारे शरीर के अंग अवयवों को आवश्यकता- परिस्थिति अनुसार रक्त पहुँचाने के लिए उत्तरदायी है। गुर्दा यदि शरीर में एक भी हो, दूसरा रोग विशेष के कारण काम न करे, या निकाल लिया जाये तो एक ही दो की भूमिका निभाने लगता है। शरीर के इस एकात्म भाव के आधार पर ही शरीर बाहरी घुसपैठियों से अपनी रक्षा कर पाता है, आवश्यकता आ पड़ने पर रसायन स्रावों से लेकर जीवकोशों, एण्टी बॉडिज सभी को जंग में खपा देता है।

शरीर को मात्र रासायनिक पदार्थों का समुच्चय मानने कहने वाले यह देखें कि काया के अन्तराल में चलती रहने वाली अनेकानेक गतिविधियाँ किस प्रकार पदार्थ के सामान्य गुण धर्म के आधार पर सम्भव हो पाती हैं? पदार्थ अपनी नियत बाह्याकृति को धारण किये रह सकता है, साथ ही जो गतिशीलता उसे प्रकृति ने दी है, उसे पूरा भी करता रह सकता है, पर उसमें यह क्षमता नहीं है कि परिस्थितियों को देखते हुए अपनी रीति-नीति में परिवर्तन करता रह सके, न ही उसकी यह विशेषता है कि उच्चस्तरीय आदर्शों को अपने क्रिया-कलाप में सम्मिलित रख सके। पदार्थ का अतिरिक्त उपयोग हो पाना तभी सम्भव है, जब उसके मूल में कोई चेतनात्मक शक्ति या प्रेरणा काम कर रही हो। स्वचालित माने जाने वाले यन्त्र रोबोट आदि भी तभी अभीष्ट प्रयोजन पूरा करते हैं जब उसके पीछे कोई विचारशील व्यक्ति निर्देशन एवं सूत्र-संचालन कर रहा है।

जीवन के पीछे आत्मा की- परम सत्ता की शक्ति मानने के लिए अब उन व्यक्तियों को अपनी पूर्वाग्रह की मान्यता में परिवर्तन करना पड़ेगा जो प्रकृति को सर्वोपरि सत्ता और परमाणु को सर्व समर्थ घटक मानते रहे हैं, जिन्हें आत्मा या परमात्मा की क्षमता, उपयोगिता एवं आवश्यकता प्रतीत होती है।

ईशोपनिषद के आठवें मन्त्र में ऋषि कहते हैं-

स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरं शुद्धमपापबिद्धम्। कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भूर्याथातथ्यतोऽर्थान् यदधाच्छोश्वतीभ्यः समाभ्यः॥

“ वह स्वंयभू (ईश्वर) सर्वत्र है, शुद्ध है, सूक्ष्म काया रहित, दोष रहित, मांसपेशियां रहित, पवित्र, पाप रहित, कवि-क्रान्ति दर्शी, सर्वज्ञ, सर्वव्यापी है। उसने चिरन्तर प्रजापतियों को अपने-अपने काम सौंप दिए हैं।” वेदान्त की यही मान्यता जो आत्मा के पवित्र, शुद्ध एवं परमसत्ता के अविच्छिन्न अंश होने की घोषणा करती है, हर वैज्ञानिक के लिए एक प्रेरणा भरी चुनौती है।

विज्ञान प्रत्यक्षवाद की दुहाई देता है। उसे ऐसी प्रत्यक्षवादी चुनौतियाँ भी मिल सकती हैं जो पदार्थ की सर्व समर्थ स्वावलम्बी सत्ता के सम्बन्ध में अपनी मान्यता बदले और सोचे कि काया की सामान्य कार्य पद्धति के पीछे कितने रहस्य छिपे हुए हैं। ऐसे रहस्य जो शरीर को, उसके क्रिया-कलाप को मात्र भौतिक मानने से स्पष्ट करते हैं। यह शरीर परक क्रिया-कलाप अन्तः से उठने वाली स्फुरणा की ही अभिव्यक्ति हैं जो अनेकानेक रूपों में दिखाई पड़ती है। आत्म सत्ता और परमात्म सत्ता की एकात्मता एवं जटिल संरचना के इस सुसंचालन पर कबीर ने लिखा है-

जो चरिखा अरिजाय, बढैया ना भरै। मैं कातों सूत हजार, चरखुला जिन जरै॥

इस रहस्यवादी सन्त ने चरखे के क्रिया-कलापों में भी ईश्वरीय लीला संदोह की अनुभूति की और कहा है “यदि चरखा जल भी जाये तो उसका बनाने वाला बढ़ई नहीं मर सकता, पर यदि मेरा चरखा न जलेगा तो मैं उससे हजार सूत कातूँगा।

शरीर की सहकारिता, संघर्ष, सामंजस्य, पराक्रम, प्रत्यावर्तन, अनुशासन और एकात्मभाव नामों से वर्णित गुण परक वृत्तियां तथ्यों के साथ यही सिद्ध करती हैं कि शरीर के पीछे के रसायनों की ही हलचलें काम नहीं करती, उसका सूत्र-संचालन ऐसी अदृश्य शक्ति के माध्यम से होता है जो शरीर ही नहीं, इस समस्त विश्व वैभव का भावात्मक आधार पर सूत्र-संचालन करती है।


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