परिस्थितियों पर जीवन विजय पाता रहा है।

September 1984

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परिस्थितियाँ प्रगति का मार्ग खोलती हैं या मार्ग अवरुद्ध करती हैं यह आँशिक सत्य है। सर्वदा ऐसा ही होता हो सो बात नहीं है। कितनी ही बार ऐसा भी होता है कि जो कार्य बहुतों के लिये असंभव है वह कुछ के लिये सरल स्वाभाविक बन सके।

उत्तरी ध्रुव पर कड़ाके की ठंड पड़ती है और शून्य से नीचे वाले तापमान में कड़ी बर्फ जमी रहती है। छह महीने की लम्बी रात होती है। पेड़-पौधों का नाम नहीं। इमारतें बनाने व कृषि करने जैसे कोई साधन नहीं। फिर भी उस क्षेत्र में एस्किमो जनजाति हजारों लाखों वर्षों से वहाँ रहती चली आ रही है। मछलियों का आहार और कुत्तों का सहयोग इन्हें जीवन निर्वाह के आवश्यक साधन जुटाने के लिये पर्याप्त सिद्ध होता रहता है। अन्य लोग वहाँ रहें तो ठंड से हाथ पैरों की उंगलियां गलने लगे और जीवन संभव न हो पर अभ्यास से वे लोग वहाँ मजे में रहते हैं। प्रकृति ने परिस्थिति के साथ तालमेल बैठा लिया है।

अटलाँटिक समुद्र में कुछ ऐसे टापू खोजे गये हैं जिनमें न जाने कब से जनजीवन निवास और निर्वाह करता चला आ रहा है। न वहाँ सभ्यता पहुंची है न भाषा। रीति और नीति का कोई तर्कसंगत प्रचलन नहीं है। वनमानुषों जैसी उनकी जीवन पद्धति है और निर्वाह पद्धति। परस्पर मिल-जुल कर किस तरह रहा जा सकता है। आवश्यक साधनों को किस तरह उगाया और आड़े वक्त के लिए संजोकर रखा जा सकता है। इतना तौर-तरीका उनने अपनी सूझ-बूझ से सीख लिया है। प्रकृति और परिस्थिति का तालमेल ऐसा बैठ गया है कि बाहरी दुनिया में प्रचलित सभ्यता से सर्वथा अपरिचित होते हुए भी वे लोग बिना कोई कठिनाई अनुभव करते हुए लम्बे समय से दिन गुजारते आ रहे हैं। वे लोग वहां किस प्रकार पहुँचे यह अभी भी रहस्य का विषय बना हुआ है।

समुद्री अष्टभुज प्राणियों को अपनी भुजाओं से कसकर मार डालने के कारण बहुत ही भयंकर समझा जाता है। उससे समुद्र में उतरने वाले सभी को डर लगता है। पर भूमध्य सागर के किनारे बसने वाले यूनानी लोगों का सबसे प्रिय भोजन यह अष्टभुज है। वे उसे प्रयत्न पूर्वक पकड़ते और तरह-तरह के व्यंजन बनाते हैं।

न्यू गिनी की कुओर और पहाड़ियों पर भयंकर विषधर सर्प पाये जाते हैं। उनकी फुफकार भर से प्राणियों की मृत्यु हो जाती है पर उस क्षेत्र के आदिवासी इन्हीं को स्वादिष्ट भोजन मानते हैं। जब वे अधिक संख्या में हाथ लग जाते हैं तो पेड़ों से बाँधकर सुरक्षित खाद्य का भंडार बना लेते हैं।

कई बार माँ और बच्चे का मध्यवर्ती अन्तर औसत प्राणियों की तुलना में कहीं अधिक भी पाया जाता है। माया कंगारू की ऊँचाई 2 मीटर और वजन 100 किलोग्राम होता है पर जन्मते समय उसके बच्चे झींगुर जैसे इतने छोटे होते हैं कि एक चाय के चम्मच में तीन बैठ सके।

बड़ा कीर्तिमान काँटेदार सोई का है। मादा की लम्बाई 80 सेन्टीमीटर होती है पर जन्मते ही उसका बच्चा 80 से.मी. तक लम्बा होता है।

बच्चों की वृद्धि में ब्लू व्हेल की संतति सबसे बाजी मारती है। शिशु सवा तीन ग्राम प्रति घण्टे के हिसाब से बढ़ता है और एक दिन में माँ का तीस लीटर दूध पी जाता है। प्रकृति की यह विचित्रता बताती है कि परिस्थितियां ही प्रवृत्तियों का विकास करती हैं।

जीव चेतना विलक्षण है। वह बाधाओं के बीच अपना रास्ता बना लेना और वातावरण के अनुरूप ढलना जानती है। अवरोध अड़चन तो अवश्य उत्पन्न करते हैं पर सर्वथा रास्ता रोक देने में समर्थ नहीं हो पाते।


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