वैभव को आम आदमी शक्ति और सौभाग्य का चिह्न मानता है किन्तु वस्तुस्थिति का विवेचन करने पर प्रतीत होता है कि शरीरगत बलिष्ठता का महत्व वैभव की तुलना में की अधिक है। सम्पदा के बल पर प्रतिभा नहीं खरीदी जा सकती, किन्तु प्रतिभावान पराक्रम और साहस के बल पर अनुपयुक्त परिस्थितियों में भी सुविधा साधन उपार्जित करते और संपत्तिवान बनते देखे गये हैं।
शरीर सौष्ठव से भी बढ़कर बुद्धिमता को समझा जाना चाहिए। कुरूप और अपंग स्तर के अष्टावक्र, सूरदास स्तर के व्यक्ति भी वरिष्ठों में गिने गये इसके विपरीत सुन्दर और बलिष्ठ दिखने वाले अनाचारी अपराधी भी घृणा और भर्त्सना के भाजन बनते हैं। बुद्धिमानों में से कितने ही ऐसे हुए हैं जो देखने में दुर्बल या कुरूप लगते थे फिर भी उनके सम्मान में कोई कमी नहीं हुई। चाणक्य और सुकरात की शरीर संरचना कुरूपों जैसी ही तो थी।
बुद्धिमता का एक पक्ष चातुर्य है। व्यवहार कुशल, मिलनसार और वस्तुस्थिति को ताड़ लेने वाले सामान्य जनों की तुलना में, नफे में रहते हैं। किन्तु देखना यह है कि ‘व्यक्तित्व’ को मानव जीवन जीवन की सर्वोपरि विशेषता है क्या वह भी मात्र मस्तिष्कीय कुशाग्रता के सहारे उपलब्ध हो सकता है? यहाँ उत्तर ‘ना’ में देना होगा और कहना पड़ेगा कि मानवी महानता व्यक्ति की भाव सम्वेदना, आदर्शवादिता एवं संयमशीलता पर निर्भर है। यही है वे अवलम्बन जो सामान्य योग्यता और परिस्थिति वालों को भी महानता के उच्च पद तक पहुँचाने में समर्थ होते हैं।
आवश्यक नहीं कि शारीरिक दृष्टि से बलिष्ठ और विशाल स्तर के प्राणी बुद्धिमान भी हों। इसी प्रकार यह भी नहीं कहा जा सकता कि हर बुद्धिमान भावनाशील संकल्पवान भी होगा। इतने पर भी प्रगति पथ पर अग्रसर करने वाली और स्तर ऊँचा उठाने के लिए संकल्प एवं उमंग को ही वरिष्ठता दी जाती है। उसकी ऊर्जा एवं प्रेरणा से प्राणी प्रतिकूलताओं के बीच रहते हुए भी अनुकूलता उत्पन्न करने में सफल होते हैं। इसके विपरीत आलसी प्रमादी प्रकृति के बलिष्ठता एवं सुविधा की दृष्टि से सुसम्पन्न होते हुए भी परिस्थितियों से लोहा लेने में परिवर्तनों के अनुरूप अपने को ढालने में प्रयत्नरत न होने के कारण अपनी सत्ता तक गँवा बैठते हैं।
डायनोसौर अपने समय के धरती पर पाये जाने वाले प्राणियों में सर्वाधिक संख्या में, शरीर की दृष्टि से दैत्याकार, स्वभाव से क्रूर, विकसित एवं बुद्धिमान प्राणी माने जाते थे। एक अरब 40 करोड़ वर्ष पूर्व पाया जाने वाले ब्रैकियोन्सौरस की ऊँचाई पाँच मंजिली इमारत के बराबर थी। व्हेल से कई गुना भारी छोटे मस्तिष्क वाला यह भीमकाय प्राणी स्वतन्त्र विचरण करता था। डायनोसौर्स में सबसे अधिक शक्तिशाली टाइरैनोसौरस थे। इनकी ऊँचाई दो मंजिल भवन के बराबर थी। दाँतेदार जबड़ों वाला, मशीनों जैसा शक्तिशाली विध्वंसक विशालकाय सिर के होते हुए भी इनका मस्तिष्क बहुत छोटा था। सात करोड़ वर्ष पूर्व पृथ्वी का वातावरण बदल गया और डायनोसौर इस परिवर्तित वातावरण में अपने को अधिक समय तक जीवित नहीं रख सके और क्रमशः प्रकृति की गोद में विलुप्त हो गये।
जिन छोटे-छोटे स्तनधारी जीवों को डायनोसौर निगल जाते थे, दुश्मनों का आतंक समाप्त होते ही परिस्थितियों के अनुरूप अपने को ढालने में समर्थ हो गये। इनकी मस्तिष्कीय क्षमता डायनोसौर्स की बुद्धिमता से 20 गुनी अधिक थी फिर भी परिस्थितियों के चंगुल से फंसकर असहाय बने विनष्ट होते रहे। इनमें से अधिकांश प्राणी दैत्यों के शिकार बनकर अपनी जाति वंश तक को समाप्त कर बैठे। दानवाकार डायनोसौर्स के अचानक विलुप्त होने पर वे स्तनधारी विभिन्न रूपों में विकास की ओर अग्रसर होने लगे। मैदानी भागों को छोड़कर जंगल की ओर आकर्षित होने लगे। इनमें से कुछ हवा में उड़ने लगे और चमगादड़ बन गये। कुछ ने समुद्र को चुना तथा व्हेल तथा डालफिन्स बन गये। अधिकाँश प्राणियों ने अपने निवास के लिये पृथ्वी के धरातल को पसंद किया और जंगली जीवन व्यतीत करने लगे। इनमें से कुछ प्राणियों ने पेड़ पर चढ़ना सीखा उसी पर रहने लगे जिनसे बाद में बन्दरों, लंगूरों का विकास हुआ। रहन-सहन-खानपान, स्थान एवं परिस्थिति के अनुरूप आवश्यक अंगों का विकास इन प्राणियों में प्रकृति प्रेरणा से स्वयमेव होता गया। शारीरिक और मस्तिष्कीय क्षमता का विकास क्रमशः पीढ़ी दर पीढ़ी होता गया। लंगूर से बन्दर, गोरिल्ला, चिरपैन्जी और इसी क्रम से कालान्तर में मनुष्य का विकास हुआ।
बुद्धिमता की अभिवृद्धि के लिए यह आवश्यक नहीं कि मस्तिष्क के आकार का उसमें भरे पदार्थों का भी विस्तार हो। भार एवं विस्तार एक बात है और तीक्ष्णता सूक्ष्मता दूसरी। यह मानना ठीक नहीं कि आकार में बड़ा होने पर भी कोई मस्तिष्क अधिक बुद्धिमता का परिचय दे सकता है। मनुष्य का सिर आरंभ से ही प्रायः उतना ही लम्बा-चौड़ा और भारी रहा है जैसा कि आदि काल में था। ......... अभिवृद्धि एवं उत्कृष्टता की जांच पड़ताल खोपड़ी की नाप तौल से नहीं, वरन् इस बात से की जानी चाहिए कि उसमें संकल्प शक्ति, श्रद्धा, सम्वेदना एवं आशा की कितनी मात्रा है। मानवी प्रगति का उद्गम स्रोत इसी भावना सम्वेदना को समझा जा सकता है। इस मर्म केन्द्र का विस्तार होने पर अगले दिनों मनुष्य सच्चे अर्थों में बनेगा। सच्ची बुद्धिमत्ता, वस्तुतः सुसंस्कारिता का ही दूसरा नाम है। आशा की जानी चाहिए कि भविष्य में मानवी विकास की दिशाधारा इसी ओर गतिशील होगी।
बौद्धिक क्षमता में मनुष्य अब चरम सीमा पर पहुँच गया हो, ऐसी बात नहीं है। वैज्ञानिकों की मान्यता है कि ‘मनुष्य’ शब्द ही विकास की अन्तिम शब्दावली नहीं है वरन् विकास का वह मूल स्रोत है जिससे नये और उच्चतर जीवन का प्राकट्य-प्रादुर्भाव होना सुनिश्चित है। मनुष्य अपने पूर्वजों से कुछ न कुछ हमेशा ग्रहण करता आया है और भविष्य के लिए अधिकाधिक विचार संचयन, उद्यमशीलता, बुद्धिमता अपनाने का प्रयत्न करता रहा है।
वैज्ञानिकों के अनुसार भविष्य में मनुष्य का जो बौद्धिक उत्तराधिकारी आने वाला है वह ‘बायोलॉजिकल’ न होकर ‘कल्चरल’ होगा। धरती पर आने वाला यह बौद्धिक जीवन ‘एगहेड’ होगा जो आकृति में मनुष्य जैसा होगा। इसका क्रेनियम अपेक्षाकृत बड़ा और मसल घूर्नियर होगा और इसके रहन-सहन जीवनयापन की शैली मोहक और शानदार होगी।
जीवन के स्वरूप और उसकी प्रकृति को समझने तद्नुसार समग्र व्याख्या कर सकने में विज्ञान असफल रहा है। आधुनिक जैविकी, जीवन की मात्र कुछ हलचलों, भौतिक रासायनिक प्रक्रियाओं के आधार पर उसकी व्याख्या करती है। जीवन के मूलभूत गुणों- पोषण, पाचन, चयापचय, श्वसन, उत्सर्जन, प्रजनन और गति से जीवित अजीवित- जड़, चेतन का विभेद किया जाता है। अमीबा जैसे एक कोशीय प्राणी से लेकर मनुष्य तक की जैविक प्रक्रियाओं में ‘गति’ को प्रमुख माना गया है। चलते रहना ही प्राणियों का स्वभाव है। उसके प्रत्येक अंग-अवयव, कोशिका-ऊतकों में निरन्तर कुछ न कुछ हलचल एवं प्रक्रियाएँ अवश्य होती रहती हैं। स्थिरता आते ही नियति चक्र जीवन के समापन का उद्घोष कर देती है।
विकास की दृष्टि से मनुष्य को सभी प्राणियों से सर्वाधिक बुद्धिमान, कार्य कुशल, एवं सक्षम माना गया है। जैविक प्रक्रियाओं के समान होते हुए भी मनुष्य को समस्त जीवधारियों में शिरोमणि और अग्रदूत इस आधार पर माना गया है कि उसकी बुद्धिमता, बोलने, सोचने और उसे क्रिया रूप में परिणति करने की क्षमता अन्य प्राणियों से असंख्य गुना बड़ी है। फिर भी निम्न श्रेणी के जंतुओं की बुद्धिमत्ता को भी उपेक्षणीय नहीं कहा जा सकता। उदाहरण के लिए जाल बुनने वाली मकड़ी की कलाकारिता, दीमक की कारीगरी, पक्षियों की कलाबाजी देखते ही बनती है।
वर्तमान मनुष्य की गतिविधियों क्रिया-कलापों को देखकर उसकी बुद्धिमता पर सन्देह होने लगा है। सहयोग सहकार के राजमार्ग से भटककर संघर्षात्मक विध्वंसात्मक रवैया- तौर-तरीके अपनाते हुए हर बुद्धिमान को देखा जाता है। बुद्धिमान होने की न्यायसंगत पहचान है- परस्पर स्नेह-सहयोग की भावनात्मक एकता को बढ़ावा देना- प्रोत्साहित करना। कनाडा के सुप्रसिद्ध एन्थ्रापोलाजिस्ट आर. वी. ली के अनुसार बुद्धिमान होने का अर्थ है- पारस्परिक आदान-प्रदान, सहयोग-सद्भाव जिसके आधार पर मानव सभ्यता की आधारशिला टिकी हुई है।
वैभव, शरीर, मस्तिष्क, ज्ञान, कौशल आदि को देखकर किसी को भी प्रगतिशील, समर्थ एवं बलिष्ठ नहीं माना जाना चाहिए। न किसी की साज-सज्जा देखकर उसके सौभाग्य को सराहा जाना चाहिए। वरन् ध्यान इसी तथ्य पर केन्द्रित करना चाहिए कि सच्ची प्रगति आन्तरिक वरिष्ठता के साथ जुड़ी हुई है। यह बढ़ेगी तो मनुष्य हर क्षेत्र में बढ़ेगा किन्तु अन्तरंग की दुर्बलता बनी रही या बढ़ती रही तो फिर दुर्गति ही निश्चित है। प्राणी समुदाय के उत्कर्ष एवं अपकर्ष के इतिहास पर एक दृष्टि दौड़ाकर इस तथ्य को और भी अच्छी तरह समझा जा सकता है।