प्राण ही परमेश्वर है।

September 1984

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शास्त्रों में प्राण को ईश्वर का स्वरूप माना गया है। शरीर में भी ईश्वर प्राण देवता के रूप में ही है। इसलिए हमें जानना चाहिए कि प्राण तत्व कोई साधारण वस्तु नहीं वरन् वह जिसकी महिमा महान से महानतम बताई गई है। उपनिषदकार का कथन है-

प्राणोवा ज्येष्ठः श्रेष्ठश्च। - छान्दोग्य

अर्थात्- प्राण ही बड़ा है। प्राण ही श्रेष्ठ है।

कतम एको देव इति। प्राण इति स ब्रह्म नद्रित्याचक्षते। -बृहदारण्यक

अर्थात्- वह एकदेव कौन सा है? वह प्राण है। ऐसा कौषितकी ऋषि से व्यक्त किया है।

‘प्राणों ब्रह्म’ इति स्माहपैदृश्य।

अर्थात्- पैज्य ऋषि ने कहा है कि प्राण ही ब्रह्मा है।

वेदों में प्राणतत्व की महिमा का गान करते हुए उसे विश्व की सर्वोपरि शक्ति माना है।

प्राणों विराट प्राणो देष्ट्री प्राणं सर्व उपासते। प्राणो ह सूर्यश्चन्द्रमाः प्राण माहुः प्रजापतिम्॥ -अथर्व

अर्थात्- प्राण विराट है, सबका प्रेरक है। इसी से सब उसकी उपासना करते हैं। प्राण ही सूर्य, चन्द्र और प्रजापति है।

प्राणाय नमो यस्य सर्व मिदं वशे। यो भूतः सर्वस्येश्वरो यस्मिन् सर्व प्रतिष्ठम्। -अथर्व

अर्थात्- जिसके अधीन यह सारा जगत है, उस प्राण को नमस्कार है। वही सबका स्वामी है, उसी में सारा जगत प्रतिष्ठित है।

ब्राह्मण ग्रंथों और आरण्यकों में भी प्राण की महत्ता का गान एक स्वर से किया गया है- उसे ही विश्व का आदि निर्माण, सबमें व्यापक और पोषक माना है। जो कुछ भी हलचल इस जगत में दृष्टिगोचर होती है उसका मूल हेतु प्राण ही है। देखिए :--

सोऽयमाकाशः प्राणेन वृहत्याविष्टव्धः तद्यथा यमाकाशः प्राणेन वृहत्या विष्टब्ध एवं सर्वाणि भूतानि आपि पीलिकाभ्यः प्राणेन वृहत्या विष्टव्धानी त्येवं विद्यात्। -एतरेय 2।1।6

अर्थात्- प्राण ही इस विश्व को धारण करने वाला है। प्राण की शक्ति से ही यह ब्रह्मांड अपने स्थान पर टिका हुआ है। चींटी से लेकर हाथी तक सब प्राणी इस प्राण के ही आश्रित हैं। यदि प्राण न होता तो जो कुछ हम देखते हैं कुछ भी न दीखता।

प्राण एव प्रज्ञात्मा। इदं शरीरं परिगृह्यं उत्थापयति। यो व प्राणः सा प्रज्ञा, या वा प्रज्ञा स प्राणः। -शाखायन आरण्यक 5।3

अर्थात्- इस समस्त संसार में तथा इस शरीर में जो कुछ प्रज्ञा है, वह प्राण ही है। जो प्राण है, वही प्रज्ञा है। जो प्रज्ञा है वही प्राण है।

शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है कि :--

प्राणेहि प्रजापतिः 4।5।5।13

प्राण उ वै प्रजापतिः 8।4।1।4

प्राणः प्रजापति 6।3।1।9

अर्थात्-प्राण ही प्रजापति परमेश्वर है।

सर्व ह्रीदं प्राणनावृतम्। -एतरेय

अर्थात्- यह सारा जगत प्राण से आदृत है।

प्रश्नोपनिषद में प्राणतत्व का अधिक विस्तारपूर्वक विवेचन किया गया है-

स प्राणमसृजत प्राणाच्छ्रद्धां खं वायुर्ज्योतिरापः पृथिवीन्द्रियं मनोऽन्नाद्धीर्य तपोमंत्राः कर्मलोकालोकेषु च नाम च। -प्रश्नोपनिषद् 6।4

अर्थात्- परमात्मा ने सबसे प्रथम प्राण की रचना की। इसके बाद श्रद्धा उत्पन्न की। तब आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी यह पाँच तत्व बनाये। इसके उपरान्त क्रमशः मन, इन्द्रिय, समूह, अन्न, वीर्य, तप, मंत्र, और कर्मों का निर्माण हुआ। तदन्तर विभिन्न लोक बने।

अरा इव रथ नामौ प्राणे सर्व प्रतिष्ठम्। ऋचो यर्जूषि सामानि यज्ञः क्षत्रं ब्रह्मचं ॥6॥

प्रजापतिश्चरसि गर्भे त्वमेव प्रतिजायसे। हृदयं प्राण प्रजास्त्विमा बलिं हरन्ति यः प्राणैः प्रतिष्ठिसि ॥7॥

देवानामसिवान्हितमः पितृणा प्रथमः स्वधा। ऋषीणां चरितं सत्यमथर्वांगिरसामसि ॥8॥

इन्द्रस्तवं प्राण तेजसा रुद्रोऽसि परि रक्षिता। त्वमन्तरिक्षे चरसि सूर्यस्त्वं ज्योतिषां पतिः ॥9॥

यदा त्वमभिवर्षस्यथेमाः प्राण ते प्रजाः। आनन्द रूपस्तिष्ठन्ति कामायान्नं भविष्यतीति ॥10॥

व्रात्यस्त्वं प्राणैकर्षिरत्ता विश्वस्य सत्पतिः। वयमाद्यस्यदातारः पितात्वं मातरिश्वनः ॥11॥

या ते तनूर्वाचि प्रतिष्ठिता या श्रोत्रेयाच चक्षुषि। या च मनसि सतता शिवां तां कुरुमोत्क्रमीः ॥12॥

प्राणस्येदं वशेसवं त्रिदेव यत्प्रतिष्ठतम्। मातेव पुत्रान् रक्षस्य श्रीश्चप्रज्ञां च विधेहि न इति ॥13॥ -प्रश्नोपनिषद्-2

अर्थात्- रथ के पहिये की नाभि में जैसे अरे लगे रहते हैं उसी प्रकार चारों वेद, यज्ञ, ज्ञान, बल ये सब प्राण में लगे हैं। ॥6॥ हे प्राण आप ही प्रजापति हैं आप ही गर्भ में विचरते हैं। जन्म लेते हैं। प्राणी तुझमें मिल जाते हैं। तुम्हारे ही साथ स्थित रहते हैं ॥7॥ हे प्राण आप ही देवताओं को हवि पहुँचाने वाली अग्नि हैं। ऋषियों द्वारा अनुभूत सत्य आप ही हैं। ॥8॥ हे प्राण, आप ही सर्वशक्ति सम्पन्न इन्द्र हैं। आप ही प्रलय काल में रुद्र रूप होकर सबका संहार करते हैं। आप ही सबकी रक्षा करते हैं। वायु , अग्नि, चन्द्र, नक्षत्र, सूर्य आप ही हैं। ॥9॥ हे प्राण आप ही मेघ बनकर वर्षा करते हैं। उसी में प्राणियों का जीवन निर्वाह करने वाली अग्नि पैदा होती है। उसी से प्रजा प्रसन्न होती है। ॥10॥ हे प्राण आप ही संस्कार रहित शुद्ध, सबको पवित्र करने वाले, सर्वश्रेष्ठ ऋषि हैं। आप ही हमारे पिता हैं, आपसे ही हम पैदा हुए ॥11॥ हे प्राण आप ही वाणी, क्षोत्र, चक्षु, मन, अन्तःकरण आदि सबमें व्यक्त हैं। आप ही इन्हें कल्याणमय बनाइये ।हमें सावधान और शान्त रखिए। हमारे शरीर से बाहर न जाइए। ॥12॥ इस संसार में तथा स्वर्ग में जो कुछ है वह प्राण के ही अधीन है। जिस प्रकार माता अपने पुत्रों की रक्षा करती है वैसे ही आप हमारी रक्षा कीजिए। हमें श्री, क्रान्ति, शक्ति और प्रज्ञा प्रदान कीजिए ॥13॥

प्राण शक्ति ने भाण्डागार वाले स्वरूप को जान लेने पर ऋषियों ने कहा है कि कुछ भी जानना शेष नहीं रहता है। भृगुतंत्र में कहा गया है-

उत्पत्ति मायाति स्थानं विभुत्वं चैव पंचधा। अध्यात्म चैब प्राणस्य विज्ञाया मृत्यश्नुते॥

अर्थात्- प्राण कहाँ से उत्पन्न होता है? कहाँ से शरीर में आता है? कहाँ रहता है? किस प्रकार व्यापक होता है? उसका अध्यात्म क्या है? जो इन पाँच बातों को जान लेता है वह अमृतत्व को प्राप्त कर लेता है।


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