चार साधकों ने एक सप्ताह तक मौन व्रत पालन की प्रतिज्ञा ली और किसी एकान्त आश्रम में साथ-साथ रहने लगे।
दूसरे दिन दीपक का तेल ख़त्म लगा तो एक ने नौकर से कहा- “तेल डाल दे।” दूसरे ने देखा तो व्रत तोड़ने की उलाहना देते हुए बोला- “प्रतिज्ञा के अनुसार तुम्हें बोलना नहीं चाहिए था।” तीसरे ने दोनों को डाँटा और कहा- “व्रत निभाते हो या चें-चें करते हो।”
इतना सुनने पर चौथे से भी रहा न गया और दर्प भरे शब्दों में बोल पड़ा- “अकेला मैं ही हूँ जो बोल नहीं रहा।”
यही है आज की स्थिति। लोग दूसरों के दोष बताते तो हैं, पर यह भूल जाते हैं कि स्वयं भी तो वही गलती नहीं कर रहे।