डर (kahani)

September 1984

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एक सनकी था। उसे अपनी परछाई से भूत का आभास होता और पैरों की चाप सुनकर डरने लगता था। सोचता कोई उसका पीछा करता है।

आशंका बढ़ती तो वह तेज कदम उठाता, ताकि पीछा करने वालों से बच सके। बहुत समय तक यही क्रम चलता रहा। इतने पर भी डर घटा नहीं। तेजी से चलने पर विपत्ति भी पीछे दौड़ती प्रतीत होती।

अन्त में वह थक कर बैठ गया। बैठते ही छाया रुक गई और पदचाप की आवाज ने डराना बन्द कर दिया।

सनक दूर होते ही, डर दूर हुआ। आशंका मिटी और समाधान हो गया। देर से सही पर अन्त में यह समझ लिया गया कि डर अपनी ही छाया और पदचाप उत्पन्न करती थी।


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