तपोमय जीवन (kavita)

November 1984

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सहकर अगणित ताप दमकता, यह ऐसा कुन्दन है। सिन्ध तपा, जगहित जन्मा, यह जीवन ऐसा धन है॥

तपे लोकहित तो कुटियों में जीवन सहज बिताया। कन्द, मूल, फल, फूल मिल गया जब जो वह ही खाया।

जन मंगल के लिए अनेकों अश्वमेध रचवाये। कभी अस्थियाँ दीं, कैसे भी त्राण मनुजता पाये।

कुछ भी करना पड़े, दनुजता होती नहीं सहन है॥ जन जीवन में सत्, शिव, सुन्दर भरने कलम चलाई।

बेद, शास्त्र, उपनिषद् लिखे प्रज्ञापूँजी न गँवाई॥ जो भी पौरुष किया उसे ही ईश्वर अर्चन माना।

मनुज मात्र को दिया दिव्य विद्या का ज्ञान खजाना॥ जिसकी रग-रग में बहता उस जीवन का दर्शन है॥

पड़ी जरूरत जभी शक्ति की, तब भी रहे न पीछे। मातृभूमि की बलिवेदी पर चढ़ता आंखें मींचे॥

बन्दा, राणा, शिवा ताँत्या बनकर आहुति दी है। मुँह में था “हे राम”, वज्र में गोली नहीं घुसी है।

लक्ष-लक्ष जन रहे सुखी तो अपनी वही खुशी है॥ आज पुनः आ पड़ी जरूरत, धर्म मिटा जाता है।

दुष्प्रवृत्ति बढ़ गयी सत्य का रवि न नजर आता है॥ पुनः ज्ञान की गंगा लाने, भागीरथ बनना है।

तजकर भौतिक जड़ता, सूक्ष्म तेज जागृत करना है॥ क्योंकि धरा ही नहीं, विषाक्त हुआ विस्तीर्ण गगन है॥

परम्परा है जलने की, तब कैसे नहीं जलोगे। स्नेह या कि बाती बनकर सर्जन की डगर चलोगे॥

नवयुग का निर्माण कर रहे, तन, मन , धन कर अर्पण। जीवन देकर भी अनीतियों से करते संघर्षण॥ साथ तुम्हारे है वह जिसने गीता में दिया वचन है॥

*समाप्त*


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