लक्ष्य सिद्धि का चरम सोपान

November 1984

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घर बार और राज परिवार छोड़कर सिद्धार्थ ने सत्य की खोज में स्वयं को समर्पित किया तो स्वाभाविक ही था कि अनेकों कष्ट, कठिनाइयों से मुकाबला पड़ा हो। राजसी सुविधाओं के अभ्यस्त सिद्धार्थ के लिए अरण्यवास वैसे ही असुविधाजनक रहा था और फिर ऊपर से कठिन तितिक्षा, साधनायें और कठोर व्रत उपवास। भोजन की मात्रा घटाते-घटाते एकदम निराहार रहने लगे, वस्त्र इतने कम हो गये कि दिशायें ही वस्त्र बन गयीं। फिर भी प्राप्तव्य दूर ही रहा। तो लगा कि मन की शान्ति ही मृगतृष्णा है। संसार असार तो है ही परन्तु सत्य भी यही है। जिस धैर्य का सम्बल पकड़ कर वे साधना समर में उतरे थे वह जवाब देने लगा और इस भ्रम से स्वयं को निकालने के लिए उठने लगे। बुद्ध घर वापस लौटने की तैयार करने लगे।

जब वे घर की ओर लौट रहे थे तो रास्ते में एक ठण्डे जल की झील पड़ी ‘झील’ के किनारे खड़े होकर वे उसे देखने लगे। उनकी दृष्टि एक गिलहरी पर पड़ी जो बार-बार झील में डुबकी लगाती, बाहर आती, रेत में लोटती और पुनः झील में डुबकी लगाने के लिए दौड़ पड़ती। बुद्ध को बड़ा आश्चर्य हुआ। देर तक वे उसे देखते रहे जब गिलहरी की क्रिया में कोई अन्तर नहीं आया तो आखिर वे पूछ ही बैठे- ‘नन्ही गिलहरी यह क्या कर रही हो तुम।’

‘इस झील ने मेरे बच्चों को खा लिया है अब मैं इसे खाली करके ही रहूँगी।’

हंसी आ गयी सिद्धार्थ को- ‘तो क्या तुम सोचती हो कि तुम्हारी पूँछ को पानी में डूबोने से इतनी बड़ी झील खाली हो जायेगी।’

‘यह तो मैं नहीं सोचती परन्तु जब तक झील खाली न हो जाये तब तक ऐसी ही करती रहूँगी।’

‘भला बताओ तो अनुमानतः यह कितने समय में हो सकेगा।’

‘इसका अनुमान लगाने का मेरे पास समय नहीं है।’

‘इस जन्म में तो सम्भव नहीं है।’

‘भले ही न हो। मेरा सारा जीवन ही इसमें लग जाय परन्तु इतना तो निश्चित है कि इस प्रकार चुल्लू-चुल्लू भर पानी निकाल कर मैं अपना काम तो पूरा करने की ओर बढ़ती ही रहूँगी।’- और गिलहरी यह कहकर अपने काम में पुनः लग गयी कि- ‘मेरे पास बातें करने का समय नहीं है, मुझे काम करने दो।

गिलहरी की इन बातों को सिद्धार्थ ने कानों से तो कम, हृदय से अधिक सुना और उनका खोया हुआ आत्म-विश्वास पुनः लौट आया। उनकी अन्तः चेतना से यह आवाज आयी कि- यह नन्ही-सी गिलहरी भी अपनी सामर्थ्य, समय और क्षमता का विचार किये बिना आजीवन इस बोझिल कार्य को पूरा करने के लिए सन्नद्ध है तो मैं ही क्यों इतनी जल्दी हार मान लूँ जबकि मेरा लक्ष्य तो सुनिश्चित है और उसके पथ भी काफी हद तक बढ़ चुका हूँ। उन्होंने बीच में ही अपना इरादा बदल दिया और खोया हुआ धैर्य पुनः जुटाकर तपःस्थली की ओर लौट गये।

बुद्ध यह निश्चय कर लौटे कि- जब तक मैं अपना लक्ष्य प्राप्त नहीं कर लूँगा तब तक कोई बात मन में नहीं लाऊँगा, नहीं कोई निर्णय लूँगा, अपने मार्ग के सम्बन्ध में। इस गिलहरी ने मेरे जीवन का एक नया अध्याय खोल दिया है। यह मेरी गुरु है और सफलता के लिए अन्तिम साँस तक प्रयत्न करूंगा।

सिद्धार्थ फिर ध्यानावस्थित हो गये और उस समय तक साधना में लगे रहे जब तक कि उन्हें निर्वाण प्राप्त नहीं हो गया।


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