मनुष्य मुक्ति के अपने लक्ष्य तक तो पहुँचना चाहता है किन्तु आत्म-परिशोधन की शत उसे मंजूर नहीं। भगवान को पाने का अर्थ है, उसकी विशेषताओं से अभिपूरित हो जाना। जब तक मन कामनाओं से, वासना-तृष्णाओं से मुक्त रहता है तब तक श्रेष्ठता के पथ पर कदम रख पाना कैसे संभव हो? स्वतन्त्र प्रखर बुद्धि ही विवेक का पथ चुनती है। जब तक मन और बुद्धि की इन दो वैतरणियों से मानव पार नहीं होता, वह भटकता ही रहता है। जो इन्हें भगवत् सत्ता को समर्पित कर देता है, उसे लक्ष्य प्राप्ति होकर ही रहती है।