सामर्थ्य एवं सुरक्षा देने वाली शक्ति

November 1984

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सूक्ष्मीकरण के चौथे और पाँचवें उत्पादन के लिए दो कार्य पहले से ही निजी प्रयोजन के लिए सुरक्षित रखे गये हैं। इन क्रियाशीलता के साठ वर्षों में जिनके साथ संपर्क साधे गये हैं, उन प्रज्ञा परिजनों की संख्या प्रायः 24 लाख है। उनका स्तर सामान्य लोगों से कहीं ऊँचा है। मात्र गायत्री उपासना ही इन्हें सिखायी नहीं गयी है, वरन् उनके चिन्तन, चरित्र और व्यवहार में उन उत्कृष्टताओं का समावेश किया गया है, जो व्यक्तित्व को वरिष्ठता की दिशा में उभारती उछालती है। इनकी गतिविधियों में कुछ नवीनताएँ आयी हैं। ऐसी नवीनता जो देश, धर्म, समाज और संस्कृति के बारे में लगनशील विचार कर सके। न केवल विचार वरन् उसके लिए कुछ कहने लायक पराक्रम भी दिखा सके। ऐसा पराक्रम जो दूसरों को भी अपनी ओर आकर्षित कर सके, जो अन्यान्यों को भी कुछ ऐसा करने की प्रेरणा दे सके।

इन प्रज्ञापुत्रों को जो भूमिका निभानी चाहिए, वह तो अभी नहीं निभ रही है, पर यह भी नहीं कहा जा सकता, कि यह सर्वथा छूँछ है। केवल कथनी ही जिनके हाथ हो, करनी का प्रसंग आये, तो बगलें झाँकने लगे। प्रज्ञा परिजनों ने अब तक क्या किया है, यह एक आश्चर्यजनक कहानी है। बूँद-बूँद कर घड़ा भरता है। कण-कण से मन तौला जाता है। प्रज्ञा परिवार के इन 24 लाख परिजनों द्वारा लोक मानस के परिष्कार और सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन की दिशा में अब तक जो कुछ हुआ है, इन्हीं सब की सहायता से हुआ है। अपने आप में हम सन्तुष्ट नहीं हैं, उसे कम मानते हैं, पर अन्यान्य लोगों की दृष्टि से देखा जाय तो लोक-मंगल में संलग्न अन्य और संगठनों को हमने बहुत पीछे छोड़ दिया है। एक व्यक्ति का काम कम हो सकता है, एक प्रज्ञा पुत्र का उत्पादन कम समझा जा सकता है पर प्रस्तुत प्रज्ञापुत्रों का सम्मिलित कार्य रचनात्मक क्षेत्र में और सुधारात्मक क्षेत्र में मिलकर इतना अधिक हो जाता है कि उस पर दृष्टिपात करते हुए सन्तोष की साँस ली जा सके।

इस समुदाय को बैटरी बराबर मिलती रहनी चाहिए। मार्गदर्शन मिलते रहना चाहिए। प्रोत्साहन देने में कमी नहीं पड़नी चाहिए। यह काम थोड़ा या छोटा नहीं है। इसे अब तक जिस लगन एवं तत्परता से किया गया है उसमें कमी नहीं आना चाहिए। कमी आने पर 60 वर्ष का प्राण-पण से किया गया परिश्रम बेकार हो जायेगा।

अब तक जो किया गया है वह एक स्थूल शरीर का प्रतिफल है वह शरीर अब जवाब दे रहा है। आयु 75 वर्ष हो जाने पर जराजीर्ण स्थिति का प्रभाव प्रत्यक्ष दीखने लगा है। एक आसुरी आक्रमण छुरा लेकर हो चुका है। बारह भयंकर घाव उसने हँसते-हँसते झेल लिए। पर इससे आगे कोई और आक्रमण न होंगे इसकी क्या गारण्टी? असुरता को जहाँ से भी अपने लिए खतरा दीखता है वहाँ वह चढ़ दौड़ती है। उसके आक्रमण स्थूल शरीर पर ही तो होते हैं। जरा-जीर्ण 75 वर्ष का शरीर इस या उस प्रकार के आक्रमणों को सहन करता ही रहेगा, इसकी कोई निश्चिन्तता नहीं। फिर अत्यधिक परिश्रम में जिसे संलग्न रहना पड़ा है वह उसी मुस्तैदी से अगले कितने दिन काम करता रहेगा, इसका कोई भरोसा नहीं। एक ओर यह गिरती दशा दूसरी ओर बढ़ता हुआ काम और उसकी बढ़ती हुई जिम्मेदारियों को देखते हुए निराशा होती है और आशंका होती है कि कहीं ऐसा न हो कि छकड़ा बीच में ही चरमरा जाय, गाड़ी पटरी से उतर जाय। यदि ऐसा हुआ तो 60 वर्ष की उपलब्धियाँ हाथ से निकल जायेंगी। यह इतनी बड़ी हानि है जिसकी क्षतिपूर्ति सहज ही न हो सकेगी।

सूक्ष्मीकरण का एक वीरभद्र इसलिए सुरक्षित रखा गया है और प्रशिक्षित किया जा रहा है कि जराजीर्ण शरीर का स्थान ग्रहण कर सके। गुरुदेव का वर्तमान शरीर न रहे अथवा और भी अधिक दुर्बल हो जाए तो 24 लाख व्यक्तियों को जो प्रेरणापूर्ण मार्गदर्शन चाहिए उसमें किसी बात की कमी न पड़ने पावे। प्रस्तुत प्रज्ञा परिवार अपने आपको अनाथ अनुभव न करे। इन सभी गाड़ियों में एक रक्त संचार होता रहना चाहिए। समय से पहले यह प्रबन्ध होना चाहिए कि धड़कने वाला वर्तमान तन्त्र यदि अपनी हरकत बन्द कर दे तो उसका स्थानापन्न तत्क्षण उस स्थान पर फिट किया जा सके। सच तो यह है कि उस नए प्रतीक से काम लेना अभी से आरम्भ कर दिया गया है। विगत बसन्त पर्व से उसे एक प्रकार से पूर्ण अवकाश दे दिया गया है। एकान्त सेवन, मौन साधना, किसी से न मिलना, जो शारीरिक गतिविधियाँ अभी भी हो सकती थीं उन सबसे निवृत्ति लेने का तात्पर्य यही है कि जराजीर्ण शरीर को पूर्ण अवकाश देकर उसके स्थान पर नव-निर्मित वीरभद्र को प्रशिक्षित किया जाय और देखा जाय कि वह अपना नवीन उत्तरदायित्व ठीक तरह निभा सक रहा है या नहीं। प्रसन्नता की बात है कि इस नवीन शरीर ने इतनी जल्दी अपनी जिम्मेदारियाँ उठाना आरम्भ कर दिया है, जिसकी कि आशा नहीं थी। चौबीस लाख परिजनों की देखभाल उनकी उलझी समस्याओं का समाधान, आवश्यक क्षमता की नई माँग को पूरा करना, मार्गदर्शन विश्वास में कभी न पड़ने देना, हिम्मत हारने न देना, यह कार्य नवीन शरीर को सौंपे गये थे और 6 महीना होते-होते उसने वे सभी कमियाँ पूरी कर ठीक तरह अंजाम देना शुरू कर दिये हैं। मनुष्य का बच्चा 6 महीने की अवधि में कुछ भी नहीं सीख पाता। पशुओं के बछड़े भी इतने कम समय में कुछ सीख नहीं पाते। कुछ पक्षियों में यह बात जरूर देखी गई है कि वे छह महीने में स्वावलम्बी हो जाते हैं पर अपने नए बच्चे उत्पन्न करने और पालने में वे भी समर्थ नहीं होते,किन्तु सूक्ष्मीकरण प्रक्रिया द्वारा उत्पन्न एक वीरभद्र चौबीस लाख पेड़ पौधों वाले उद्यान की ठीक तरह रखवाली ही नहीं सिंचाई भी करने लगा। यह आश्चर्य की बात भी है और प्रसन्नता की बात भी। आशा की गई है कि अगला बसन्त आने तक यह वीरभद्र पूर्ण प्रौढ़ हो जायेगा और पुराने स्थूल को पूर्णतया छुट्टी मिल जायेगी। उसे किसी से वार्ता तक न करनी पड़ेगी। कोई किसी प्रकार की आशा उससे न रखेगा। मोहवश कोई कभी उसके दर्शन-झाँकी करना चाहे तो उतने भर की छूट भले ही मिल सके। जिम्मेदारियाँ सम्भालने और पराक्रम करने का काल इस नए उत्पादन द्वारा ही होने लगेगा। कोई भाग्यवान बुड्ढे ही यह आनन्द भोग पाते हैं कि निवृत्ति की चारपाई पर पड़े रहें और उनके प्रौढ़ बच्चे सारा काम धन्धा सम्भालने लगे। गुरुदेव का जराजीर्ण शरीर आगामी बसन्त तक पूरी तरह इस स्थिति में पहुँच जाएगा कि उन्हें पिछले 60 वर्षों से किये जाते रहे घनघोर परिश्रम में से एक भी न करना पड़े। साथ ही काम में राई रत्ती भी फर्क न पड़े। इतना ही नहीं बढ़ी हुई जिम्मेदारियों का निर्वाह और भी अच्छी तरह होने लगे।

जितने प्रज्ञा परिजन अब हैं, उतने ही सीमित रहें यह नहीं हो सकता। अब उनकी संख्या बढ़ेगी। साथ ही उनकी आवश्यकताओं में भी अभिवृद्धि होगी। उनके कन्धों पर नई जिम्मेदारियाँ महाकाल के द्वारा सौंपी जायेंगी। फिर उनकी प्रौढ़ता भीतर से उमंगें मारेंगी। ऐसी दशा में नये काम करने होंगे और उनकी मात्रा भी बढ़ी-चढ़ी होगी। साथ ही नई समस्याएँ भी सामने होंगी और वे अपना समाधान खोजने के लिए किसी का सहारा तकेंगी। प्रज्ञा परिजनों की व्यक्तिगत समस्याओं में गुरुदेव का योगदान अभी तक चलता रहा है। जिनसे नवसृजन का नया काम लेना है वे बैल घास भी माँगते हैं। उन्हें लोकमंगल के लिए सार्वजनिक सेवा करने की क्षमता तो चाहिए ही, साथ ही उन्हें व्यक्तिगत सहायता देने का क्रम भी चलता रहता है। 24 लाख प्रज्ञा परिजन अगले वर्षों में 48 लाख या 50 लाख भी हो सकते हैं। इनमें से कुछ तो बिल्कुल ही नौसिखिये होंगे। उनसे सार्वजनिक काम कम बन पड़ेगा किन्तु निजी उलझनों के समाधान, निजी कठिनाइयों में सहायता अधिक मांगेंगे। इन्हें प्रोत्साहन मार्गदर्शन ही नहीं, प्यार दुलार का सहयोग देने और हाथ बँटाने की आवश्यकता अब की अपेक्षा अगले दिनों और भी ज्यादा होगी। सूक्ष्मीकरण से उत्पन्न चौथे वीरभद्र को प्रस्तुत एवं भावी प्रज्ञा परिजनों को दृष्टि से अधिक समर्थ बनाने के लिए सुरक्षित छोड़ दिया है।


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