“संगत बुरी असाधु की- आठों पहर उपाधि”

November 1984

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सम्राट चमूपति ने राजपुरोहित महामंत्री और अनेक विद्वान व्यक्तियों से परामर्श किया किन्तु वे राजकुमार श्रीवत्स की उद्दण्डता न छुड़ा पाये। महामंत्री के सुझाव पर उन्होंने राजकुमार का विवाह कर दिया- सोचा यह गया था कि नये उत्तरदायित्व राजकुमार के स्वभाव में परिवर्तन ला देंगे किन्तु स्थिति में कुछ परिवर्तन के स्थान पर राजकुमार का स्वभाव और भी उग्र हो गया। जबकि दूसरे सभी राजकुमारों की- सौम्यता, सौजन्यता के घर-घर गीत गाये जाते थे श्रीवत्स का स्वभाव राज-कुल का कलंक सिद्ध हो रहा था।

उन्हीं दिनों महर्षि श्यावाश्व ने वाजि- मेधयज्ञ का आयोजन किया था। सम्राट चमूपति उस आयोजन के प्रमुख यजमान के रूप में आमंत्रित किये गये। आचार्य प्रवर का सन्देश पाकर एक दिन वे आश्रम की ओर चल पड़े। प्रथम विराम, उन्होंने राजधानी से 5 योजन की दूरी पर स्थित अरण्यजैत ग्राम में किया। महाराज का विराम-शिविर प्रमुख परिचारकों के साथ- ग्राम के बाहर एक देव स्थान के पास किया गया। दिनभर के थके परिचारकों को जल्दी ही नींद आ गई किन्तु सम्राट किसी विचार में खोये अब भी जाग रहे थे।

तभी किसी विलक्षण आवाज ने उन्हें चौंका दिया। आवाज एक नन्हें से तोते की थी। वह मनुष्य की बोली में अपनी स्वामी से बोला-तात! आज तो बहुत अच्छा शिकार पास आ गया। इसके पास तो सोने का मुकुट, रजत की अम्बारियाँ और मणि-मुक्ताओं से जड़ित बहुमूल्य वस्त्र भी हैं- एक ही दाव में जीवन भर का हिसाब पूरा कीजिए स्वामी- ऐसा समय फिर हाथ नहीं आयेगा।

तोते का मालिक- अरण्यजीत का खूँखार दस्यु नायक- महाराज को पहचानता था। उसने तोते को चुप करना चाहा किन्तु ढीठ तोता- चुप न रहा- फिर बोला- आर्य! महाराज हैं तो क्या हुआ डरो मत सिर धड़ से अलग कर दो और चुपचाप इनका सारा सामान अपने अधिकार में ले लो।

सम्राट चमूपति- रात के अन्धकार की नीरवता से पहले ही सहमे हुए थे तोते की भयंकर मन्त्रणा ने उन्हें और डरा दिया- उन्हें नीति वचन याद आया “जहाँ मनुष्य को कुछ आशंका हो उस स्थान का तत्काल परित्याग कर देना चाहिए” सो उन्होंने अंग रक्षकों को जगाया और अविलम्ब वहाँ से चल पड़े।

प्रातःकाल होने को थी महाराज ने श्यावाश्व के आश्रम में प्रवेश किया उधर भगवान रश्मि-माल ने अपनी प्रथम किरण से उनका अभिषेक किया। आश्रम के द्वार पर महाराज पहुँचे ही थे कि एक अति मधुर ध्वनि कानों में पड़ी- आज के मंगलमूर्ति अतिथि- आइये, पधारिये आपका स्वागत है, आपका स्वागत है। आश्चर्य से महाराज श्री ने दृष्टि ऊपर उठाई। समीप के वृक्ष पर बैठा एक नन्हा सा शुक बोल रहा था।

महाराज ने ऊपर की ओर देखा और रात की घटना सजीव हो मानस पटल पर गूँज उठी- सम्राट बोले- तात! तुम्हारा स्वर कितना मधुर, कितना मोहक है और एक वह स्वर था जिसने मुझे रात में डरा ही दिया।

शुक के पूछने पर महाराज ने रात का सारा वृत्तांत कह सुनाया। वेदनासिक्त प्रच्छ्वास छोड़ते हुये शुक ने कहा- तात! अरण्यजैत का वह शुक मेरा सगा ही भाई है उसके कृत्य के लिये क्षमा याचना करता हूँ।

महाराज बोले- वत्स! एक ही उदर से जन्मे तुम दोनों भाइयों में यह विसंगति कैसी? नन्हे शुक ने उत्तर दिया- महाराज! सब संगति का फल है। मेरा भाई दस्युओं के गाँव में रहता है सो स्वाभाविक ही है कि उसमें वहाँ के लोगों जैसी क्रूरता हो, मुझे जो ज्ञान मिला वह महर्षि श्यावाश्व के इस संस्कार भूत आश्रम के वातावरण का प्रतिफल है। महाराज- श्री राजकुमार श्रीवत्स के बुरे होने का कारण समझ गये और उन्हें सुधारने का सूत्र भी मिल गया- सत्संगति।


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