सृष्टि का निर्माण कार्य पूरा हो गया तो ब्रह्माजी ने सभी प्राणी बुलाये और उनकी संरचना में जो कमी रह गई हो उसे पूरा करा लेने के लिए कहा।
प्राणियों ने अपनी-अपनी कमियाँ बताईं। फलतः ब्रह्माजी ने किसी का पूरा किसी का अधूरा सुधार कर दिया।
अब मनुष्य की बारी आई। उनमें से पहले नारी को बुलाया गया। उसने कहा- मैं रूपवान् तो बहुत हूँ पर जब कभी अपने जैसी दूसरी किसी को देखती हूँ तो जल भुन जाती हूँ। ऐसी कृपा करें कि मेरी जैसी और कोई न हो।
ब्रह्माजी ने उसे सान्त्वना दी और एक दर्पण हाथ में थमा दिया। कहा- बस, एक ही सहेली तुम्हारे जैसी इस सृष्टि में रहेगी। जब इच्छा हुआ करे। इस पर दृष्टि डालकर उस सहेली से भेंट कर लिया करो। अन्यथा वह भी तुमसे ओझल रहेगी।
अब पुरुष की बारी आई। उसने कहा- मैं बुद्धिमान तो बहुत हूँ और भी आगे बढूं और ऐसा रहूँ जिसकी समता और कोई न कर सके।
ब्रह्माजी ने उसे दो झोलियाँ दीं और कहा- उन्हें गले से लटकाये रहना। दूसरों की विशेषतायें ढूंढ़ना और उन्हें आगे वाली झोली में भरते जाना। अपनी विशेषताओं पर ध्यान न देना- उन्हें दृष्टि से ओझल पीछे की झोली में रखना। तुम्हारी बुद्धिमता बढ़ती चलेगी।
मनुष्य प्रसन्न तो रहा, पर मात्र अपनी दृष्टि में। दूसरों ने उसे मूर्ख ही ठहराया। यह गड़बड़ झोलियों की अदला-बदली के कारण हो गई।