“स एको मानुष आनन्दः”

November 1984

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उपनिषद्कार कहता है कि मनुष्य पूर्ण है, पूर्ण ही रहेगा। ईश्वर का स्वरूप ही आनन्द है एवं मनुष्य उसकी एक इकाई। ऐसी स्थिति में दार्शनिक भ्रान्तियों एवं मनोवैज्ञानिक भटकावों से दिग्भ्रान्त मनुष्य को आप्त पुरुष सही दिशा देते व यह बताते हैं कि वह निम्न स्थिति से ऊपर नहीं आया अपितु श्रेष्ठ का ही अंग बनकर अवतरित हुआ है। यह मान्यता विकसित करने पर ही वह सर्वांगपूर्ण विकास की ओर उन्मुख हो सकता है।

आज से एक शताब्दी पूर्व डार्विन के विकासवाद का सिद्धान्त नृतत्व विज्ञानियों के एक खेमे द्वारा तर्कों एवं तथ्यों के साथ शोर मचाता जनमानस को आन्दोलित करता चला गया। इस सिद्धान्त ने जन साधारण के चिन्तन पर असामान्य प्रभाव डाला। “सृष्टि का विकास किसी परम सत्ता की प्रेरणा से विशिष्ट उद्देश्यों के लिये हुआ है” इस मान्यता को नकारा जाने लगा।” जिसकी लाठी उसकी भैंस” वाले सिद्धान्त पर आधारित सखाइवल ऑफ द फिटेस्ट के सूत्र को मूल मन्त्र माना जाने लगा।

मान्यता यह बनी कि अतीत का कोई महत्व नहीं क्योंकि मनुष्य बन्दर से विकसित सभ्य प्रजाति है। नृतत्व विज्ञानियों एवं विकासवादियों की मान्यता थी कि मानव पूर्व की तुलना में बौद्धिक दृष्टि से प्रखर एवं साधनों की दृष्टि से सम्पन्न है। वैज्ञानिकों द्वारा इन उपलब्धियों पर सन्तोष व्यक्त किया जाने लगा है। शरीर की दृष्टि से समर्थ, बुद्धि की दृष्टि से प्रखर तथा साधनों की दृष्टि से बेहतर स्थिति को बुद्धिजीवी समाज द्वारा मानवी प्रगति का चरम लक्ष्य माना जा रहा है। यही कारण है कि सुविधाओं के आधिक्य के लिए अगणित प्रयत्न किये जा रहे हैं तथा मात्र शारीरिक एवं बौद्धिक दृष्टि से अति मानवी पीढ़ी के निर्माण के लिए जेनेटिक इंजीनियरिंग जैसे दुस्साहसी, पर जोखिम भरे प्रयोग वैज्ञानिक क्षेत्र में चल रहे हैं। श्रेष्ठता का मापदण्ड भौतिक सामर्थ्य की उपलब्धि को माना जाने लगा। मानव जीवन को गौरवान्वित करने वाली व्यक्तित्व की महानता तथा मानवी अन्तःकरण की उदात्तता जैसी उपलब्धियों का चरम लक्ष्य आज के बुद्धिजीवी समाज में उतना महत्वपूर्ण नहीं रहा। उल्टे चिन्तन तथा उल्टे दर्शन से होने वाले लक्ष्य भटकाव का परिणाम सामने है- नयी पीढ़ी नैतिक मर्यादाओं तथा मानवी उदात्त अनुशासनों के बन्धन स्वीकार करने को तैयार नहीं है। वे अंकुश हटते-टूटते जा रहे हैं। जो व्यक्ति एवं समाज की सुव्यवस्था एवं शालीनता के लिए आवश्यक हैं।

“अस्तित्व रक्षा के लिए संघर्ष” तथा “शक्तिशाली के ही जीवित रहने” के विकासवादी सिद्धान्तों ने एक ऐसी प्रतिस्पर्धा को जन्म दिया जो प्रायः जंगली जीवों अथवा आदिम समाज में देखी जाती हैं प्रतिस्पर्धा सही अर्थों में आत्मविकास के लिए होती तो सार्थक भी थी, पर वह तो भौतिक महत्वकाँक्षाओं की पूर्ति तक ही सीमित रह गयी। परिणाम वही हुआ जो होना था। वैयक्तिक सुखोपभोग के लिए साधनों के संग्रह में दुनिया बेतरह पागलों की तरह दौड़ी चली जा रही है। जीवन लक्ष्य शान्ति, सन्तोष, आत्मतुष्टि न रहकर, इन्द्रिय तृप्ति तथा मानसिक ऐषणाओं की पूर्ति मात्र बनकर रहा गया है। इस विडम्बना के रहते मनुष्य द्वारा विकास की उच्चतम मंजिलों पर चढ़ने की कल्पना की भी कैसे जा सकती है? अपनी यथास्थिति में संतुष्ट मानव ऊँचा उठने- महानता को वरण करने की आकाँक्षा करे भी तो कैसे?

जो भूल नृतत्व विज्ञान के क्षेत्र में हुई, लगभग उसी से मिलती-जुलती एक दूसरी भूल मनोविज्ञान के क्षेत्र में हुई। विज्ञान ने कहा कि ‘मनुष्य वानर की सन्तान है’ तो मनोविज्ञान ने राग अलापा- “मनुष्य अपनी मूल प्रवृत्तियों का गुलाम है। पराधीनता उसकी प्रकृति में जन्म से ही है। उसकी समस्त बाह्य एवं आँतरिक चेष्टाएं सेक्स से अभिप्रेरित हैं। शारीरिक एवं मानसिक हलचलों का एकमात्र उत्प्रेरक यौनवृत्ति ही है।”

प्रो. जॉन इक्लिस का कहना है कि पिछले दशकों में एक वैज्ञानिक भूल यह हुई कि मनोवैज्ञानिकों ने मनोविज्ञान का सही स्वरूप बदलकर उसे नियतिवादी तथा वस्तुनिष्ठ बना दिया। नया मनोविज्ञान व्यक्ति परक चेतना की मुक्ति को अवास्तविक और अर्थहीन बताते हुए कहता है कि पूर्वार्त्त मनोविज्ञान से मनुष्य के सामान्य व्यवहार के सम्बन्ध में कुछ विशेष जानकारी नहीं मिलती। उसमें कल्पनाओं की उड़ान अधिक है। यह आज के मनोवैज्ञानिक क्षेत्र में घुसी एक ऐसी भ्राँति है जो सचमुच ही मनःशास्त्रियों को चिन्तन के सीमित क्षेत्र से बाहर निकलने नहीं देती। तथाकथित आधुनिक मनोविज्ञान वस्तुतः आनुवाँशिकी तथा परिस्थितियों द्वारा संचालित है। इस नये मनोविज्ञान के एकाँगी तथा अपूर्ण प्रतिपादनों से लोगों की अकर्मण्यता को परिपोषण मिला है। जब वृत्तियों के अनुरूप जो होना है सो होगा ही, फिर कर्म से श्रेष्ठ बनने का आधार ही लड़खड़ा गया।

मनुष्य को पशु-प्रवृत्तियों का- सेक्स का गुलाम मानने तथा उस समर्थन में मनोवैज्ञानिक तथ्य प्रस्तुत करने वाले फ्रायडवादी विचारकों ने अपने तर्कों द्वारा सामान्य व्यक्तियों के चिन्तन को मनोवैज्ञानिक जंजीरों से बुरी तरह बाँध दिया है। विकास पशु-प्रवृत्तियों के परिपोषण एवं उनकी परितृप्ति में सन्निहित है, इस प्रतिपादन ने विकासवादियों से भी जबरदस्त दार्शनिक कुठाराघात जनमानस के चिन्तन पर किया। विकास के लिए सहज सूत्र हाथ लगते ही अवशेष मर्यादाओं के वे बन्धन भी एक झटके से तोड़ दिये गये, जो मनुष्य की निम्नगामी प्रवृत्तियों पर थोड़ा अंकुश रखे हुए थे। कहना न होगा कि विश्व के वर्तमान नैतिक अवमूल्य में यौन वृत्तियों का समर्थन करने वाले चिंतन का विशेष योगदान है। इस कारण संसार में विशेषकर पाश्चात्य जगत में नैतिक पतन का जो सिलसिला चल पड़ा है उसका अन्त कहाँ जाकर होगा, कुछ कहा नहीं जा सकता। पर यह तो सुनिश्चित है कि मनुष्य के उल्टे चिन्तन को तथा प्रचलित मान्यता प्राप्त एकांगी किन्तु निरर्थक दर्शन को उल्टा न गया तो परिणति एक ऐसी विभीषिका के रूप में प्रस्तुत होगी जो अत्यन्त कष्टदायी हो सकती है।

विचारक पॉपर तथा मैक ने आधुनिक मनोविज्ञान की समीक्षा करते हुए कहा है कि “फ्रायड के मनोविज्ञान में मनुष्य का बहिर्मुखी व्यवहार वंशानुक्रम और अनुकूलन द्वारा निर्धारित माना जाता है। इसमें मनुष्य की सूक्ष्म शक्तियों तथा उसकी असीम संभावनाओं का कहीं भी उल्लेख नहीं है। संकल्पशक्ति, इच्छाशक्ति के प्रत्यक्ष तथा अतीन्द्रिय सामर्थ्य के परोक्ष कितने ही स्रोत मानव के अचेतन मन में विद्यमान है। इन सामर्थ्यों की जानकारी आधुनिक मनोविज्ञान में कहीं नहीं है।”

मनुष्य की असीम सम्भावनाओं पर विश्वास करने वाले मनःशास्त्री शेरिंगटन का कहना है “बिहेवियोरल साइकोलॉजी तथा न्यूरोलॉजी दोनों ही विषयों का अध्ययन एक साथ किया जाना चाहिए। वे लिखते हैं कि न्यूरोलॉजी केवल मस्तिष्क के न्यूरोनल क्रिया-कलाप की आरम्भिक जानकारी भर देता है जबकि विचारों का मस्तिष्क से घनिष्ठ सम्बन्ध है। विचारों के उठते ही न्यूरानों की गतिविधियाँ भी बदल जाती हैं पर विचारों का उद्गम स्रोत आज भी अविज्ञात बना हुआ है। शेरिंगटन का मत है कि सेरिब्रल कार्टेक्स तथा सबकार्टिकल न्यूकिल आई के वृहद तन्त्रिका जाल में चेतनात्मक अनुभवों का उद्गम स्रोत छिपा हुआ हो सकता है। सम्भव है निश्चित प्रकार के विचारों को जन्म देने में उन अनुभवों की भूमिका रहती है।”

पिछले दो दशकों में वैज्ञानिकों ने मस्तिष्क की संरचना, उसकी कार्यपद्धति पर बहुत अधिक कार्य किया है। तन्त्रिका तन्त्र, तन्त्रिका कोशिकाओं के कार्य व्यवहार, उनके द्वारा सूचनाओं का आदान प्रदान, साइनेप्सेस आदि के सम्बन्ध में बहुत कुछ अनुसन्धान कार्य हुआ है, पर आज भी अरबों कोशिकाओं के माया जाल से परिपूर्ण मस्तिष्क एक रहस्य ही बना हुआ है। यह रहस्य अभी भी अविज्ञात है कि वैचारिक गवेषणाओं अथवा इच्छाशक्ति के चमत्कारों में मन-मस्तिष्क की समन्वयात्मक भूमिका किस तरह की है। किस परिवर्तनों अथवा व्यतिरेकों से संतुलन गड़बड़ाता, मस्तिष्क पगलाता, अथवा पतन पराभव की ओर ले जाता है।

यह जानकारी आज भी अप्राप्य है कि मस्तिष्क का वह कौन-सा केन्द्र है जो जागृत होकर किसी को मेधा सम्पन्न बना देता है जिसके प्रसुप्त रह जाने पर दूसरे व्यक्ति सामान्य ढर्रे की जिन्दगी व्यतीत करते रह जाते हैं। इन प्रश्नों पर गम्भीरतापूर्वक शोध न होने का ही परिणाम है कि आधुनिक मनोविज्ञान मानवी व्यवहार के बाह्य पक्ष के अध्ययन विश्लेषण से कुछ आगे नहीं पहुँच पाता। इससे जो परिणाम सामने आते हैं, वे भी अत्यंत उथले स्तर के होते हैं। आधुनिक मनोविज्ञान के इतिहास का अवलोकन करने पर एक ही निष्कर्ष निकलता है कि मन के स्वरूप एवं कार्य के ऊपर जितना अनुसंधान हुआ है वह इतना कम है कि असीम संभावनाओं से युक्त मन के विराट स्वरूप की उसके द्वारा कुछ भी जानकारी नहीं मिलती। रोगग्रस्त व्यक्तित्वों के परीक्षणों के निष्कर्षों से मनोविज्ञान के पन्ने तो भरे हैं, पर सुरपरनार्मल व्यक्तित्वों का विश्लेषण आदि कहीं देखने में नहीं आता।

आज मनुष्य की विचारशीलता में कहीं गत्यावरोध उत्पन्न हो गया लगता है। कारणों की खोज करने पर एक ही तथ्य उभर कर सामने आता है कि गवेषणात्मक बुद्धि ने अपना आत्मविश्वास गंवा दिया है। आत्म गरिमा को वह भूल बैठा है। बात यहीं तक सीमित नहीं रही, मनुष्य को अपनी अविनाशी अस्तित्व तक पर सन्देह होने लगा है। इस महाविनाशक चिन्तन की परिणति विवेकहीनता, अदूरदर्शिता से भरे कृत्यों के रूप में सर्वत्र देखी जा सकती है। जीवन की इतिश्री जब शरीर के साथ ही होने वाली है, तो फिर अगले जन्म की बात ही क्यों सोची जाय? जैसे भी बने अधिकाधिक उपभोग क्यों न किया जाय? चार्वाक के ‘ऋणं कृत्वा घृतं पीवेत्’ के सिद्धान्त को अपनाने में हर्ज क्या?

मूलतः मनुष्य श्रेष्ठ है, अध्यात्म की इस मान्यता को स्वीकार किये बिना मनुष्य को विस्मृति के गर्त से निकाल सकना सम्भव न हो सकेगा। डार्विन के विकासवाद एवं फ्रायड के नियतिवाद मनोविज्ञान से आज का प्रबुद्ध मानव बुरी तरह प्रभावित है। उसका चिन्तन एवं क्रिया-कलाप उच्चस्तरीय प्रेरणाओं से नहीं उपरोक्त चिन्तन से अभिप्रेरित है। फलतः वह न तो कभी महान सत्ता पर विचार करता है, न ही महानता की ओर बढ़ने की उसकी आकाँक्षा जागती है। पशु-प्रवृत्तियों के परिपोषण में ही उसकी सामर्थ्य खपती रहती है। मल-विक्षेपों से आत्म सत्ता का प्रकाश धूमिल हो गया है, उन्हें हटाकर आत्मा की दिव्यता को अभिव्यक्त करना जीवन का, विकास का परम लक्ष्य है, यह आकाँक्षा चिन्तन की पराधीनता के कारण जगने नहीं पाती। फलतः महानता की अभिव्यक्ति के लिए अवसर नहीं मिल पाता।

वैज्ञानिक एवं मनोवैज्ञानिक दर्शनों के प्रतिपादन बुद्धि विलास तथा ज्ञान सम्वर्धन के लिए उपयोगी हो सकते हैं, पर मानवी जीवन के साथ उन्हें जोड़ा नहीं जा सकता। हर वैज्ञानिक सिद्धान्त को इस कसौटी पर कसना चाहिए कि उसका मूल लक्ष्य क्या है। दर्शन एवं मनोविज्ञान यदि मानवी चिन्तन को मूल उद्देश्यों से भटकाते हों, पतन की ओर धकेलते हों तो प्रभावशाली तर्कों से युक्त होते हुए भी उन्हें नकारा जाना चाहिए। जो मानवी गरिमा को ऊँचा उठाए, उसमें छिपी महान सम्भावनाओं पर विश्वास रखता हो, वहीं वैज्ञानिक दर्शन वरणीय है। 


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